आनन्दवर्धन द्विवेदी
ग़ज़ल उर्दू की एक ऐसी आज़माई हुई कविता कहने की शैली है जिसे बड़े-बड़े उर्दू के उस्ताद शायरों ने अपनी प्रतिभा और भाषा तथा अभिव्यंजनाओं की एक-से-एक बेजोड़ अनुपमेय विशिष्टताओं के खाद-पानी से सींचा-संवारा है, जिससे समय की शताब्दियों लम्बी अनगढ़ यात्रा के बीच जिसके पुष्पों के रंग और पराग की सुगंध म्लान नहीं हुई है, फीकी नहीं पड़ी हैं। ग़ज़ल क्योंकि मूल रूप से उर्दू भाषा के पेट से जन्मी है, इसलिए स्वाभाविक है कि उसमें उर्दू की आत्मा, छवि, रंगत, ऊर्जा और उसके सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों की परिष्कृति, उसके मुहावरों और उसकी भाषिक ही नहीं, उसके आंतरिक विश्वासों के ढेरों चित्र-विचित्र रंग-रूप भांति-भांति की निर्मितियों-संरचनाओं में व्यक्त-अभिव्यक्त हुए हैं। और इस लिहाज़ से उर्दू ग़ज़ल की प्रामाणिकता, उसका छांदिक अनुशासन, कथनीयता में न केवल शब्द बल्कि उक्ति और व्यंजनात्मक वैचित्र्य तथा श्रोता-पाठक के हृदय को रंजित कर देने की क्षमता अपने श्रेष्ठतम शिखरों को स्पर्श करने वाली है। इस दृष्टि से हिन्दी में ग़ज़ल की सुस्पष्ट और लक्षित की जा सकने वाली विधा नई है, और सच बात तो यह है कि यह उर्दू ग़ज़लों की अपार लोकप्रियता के प्रभाव, दबाव तथा सापेक्षता में शुरू हुई और इसी नाते खाँटी के उर्दूदाँ लोग अनौपचारिक बातचीत में (आफ द रेकार्ड) हिन्दी ग़ज़ल को उर्दू के अनुकरण में और कुछ मुँहफट लोग तो इसे उर्दू ग़ज़ल की नक़ल (उनका सीधा आशय भौंड़ी-भद्दी नक़ल से होता है) तक मानते हैं। हम हिन्दी के लोगों को इस सच्चाई पर नाक-भौं सिकोड़ने और उनकी लानत-मलामत करने से परहेज़ करते हुए यह बात ईमानदारी से स्वीकार करनी चाहिए कि हिन्दी ग़ज़ल का काफी सारा अंश उनके इन आरोपों-तोहमतों की पुष्टि ही करता है। लेकिन यहाँ पर मोटे हर्फों में लिखा-पढ़ा जाना चाहिए हर भाषा की हर उस विधा के साथ कमोबेश यह तर्क उतना ही सच है कि जब भी किसी दूसरी भाषा में उस विधा को सिरजा जाता है तो उसमें उस विधा की मूल भाषा जैसा रस-रंग न तो तुरन्त आ जाता है, न ही आसानी से आ पाता है। इसके लिए विराट प्रतिभाओं और विराटतर प्रयत्नों की ज़रूरत पड़ती है। ध्यान से देखें तो कालिदास, भारवि, भवभूति, भास, बाणभट्ट की कोटि के कवियों-लेखकों की तलाश यदि उर्दू या अन्य भाषाओं में करने लगेंगे तो सही अर्थों में अध्येता को दाँत से पसीने आने लगेंगे क्योंकि संस्कृत ने जिस ऊंचाई को पाने के लिए एक नहीं, कई सहस्राब्दियों की परिधि नापी है, उस महकाव्यात्मक महनीयता को दो-तीन सौ, चार सौ वर्षों की भाषाएँ नहीं पा सकतीं।
इस तथ्य को ठीक से और बहुत सरलता से समझने के लिए आप मुशायरों में उर्दू शायरों द्वारा हिन्दी कवियों की भाषा में अपने श्रोताओं को संबोधित करने के उनके प्रयत्नों में कि वे कितने भोथरे ढंग से अपनी बात कहते हैं, देख-समझ सकते हैं। ठीक इसी तरह हिन्दी भाषी कवि जब उर्दू मंचों पर उर्दू के शब्दों-वाक्यों को बोलने की कोशिश करते है तो उर्दू के जानकार लोग उनके उर्दू शब्दों के उच्चारण को लेकर हमारे बड़े कवियों तक पर भी फब्तियाँ कसते हैं, उनका उपहास उड़ाते हैं। इसका सीधा-साफ़ अर्थ है कि जो रचनकार जिस भाषा में सोचता है, उसके बिम्ब, प्रतीक, रूपक, भाव जिस भाषा में उसके भीतर जन्मते हैं, उसी भाषा में उसकी अभिव्यक्ति अपने श्रेष्ठम आलोक में दिखती है, किसी भी दूसरी भाषा में उसकी वह अभिव्यक्ति इकहरी, अपर्याप्त और कदाचित कम प्रभावोत्पादक, अनुवाद सरीखी और अल्पप्राण हो जाती है। और दो-दो, तीन-तीन भाषाओं पर अपनी मातृभाषा जैसे विपुल-विकट अधिकार की बड़ी प्रतिभाएं बहुत सहज और सर्वसुलभ नहीं होतीं।
इस तथ्य को ठीक से और बहुत सरलता से समझने के लिए आप मुशायरों में उर्दू शायरों द्वारा हिन्दी कवियों की भाषा में अपने श्रोताओं को संबोधित करने के उनके प्रयत्नों में कि वे कितने भोथरे ढंग से अपनी बात कहते हैं, देख-समझ सकते हैं। ठीक इसी तरह हिन्दी भाषी कवि जब उर्दू मंचों पर उर्दू के शब्दों-वाक्यों को बोलने की कोशिश करते है तो उर्दू के जानकार लोग उनके उर्दू शब्दों के उच्चारण को लेकर हमारे बड़े कवियों तक पर भी फब्तियाँ कसते हैं, उनका उपहास उड़ाते हैं। इसका सीधा-साफ़ अर्थ है कि जो रचनकार जिस भाषा में सोचता है, उसके बिम्ब, प्रतीक, रूपक, भाव जिस भाषा में उसके भीतर जन्मते हैं, उसी भाषा में उसकी अभिव्यक्ति अपने श्रेष्ठम आलोक में दिखती है, किसी भी दूसरी भाषा में उसकी वह अभिव्यक्ति इकहरी, अपर्याप्त और कदाचित कम प्रभावोत्पादक, अनुवाद सरीखी और अल्पप्राण हो जाती है। और दो-दो, तीन-तीन भाषाओं पर अपनी मातृभाषा जैसे विपुल-विकट अधिकार की बड़ी प्रतिभाएं बहुत सहज और सर्वसुलभ नहीं होतीं।
हिन्दी में ग़ज़लें वैसे तो काफी पहले से लिखी जा रही थीं, भारतेन्दु से निराला तक ने इस पर हाथ आज़माया था परन्तु हिन्दी भाषा में दुष्यंत कुमार का अवतरण एक ऐसी क्रांतिकारी घटना है जिसने ग़ज़ल, वह चाहे हिन्दी हो या उर्दू, उसके सारे साँचों और मुहावरों को एक झटके में जैसे बदलकर रख दिया। उर्दू की समृद्ध और स्वयं पर इतराती हुई ग़ज़ल परंपरा जो दुष्यंत के आने तक हुस्न, इश्क़, मुहब्बत, वफ़ा-बेवफ़ाई, जाम-साक़ी, दरिया-समंदर, शमा-परवानों की ज़ुल्फें-अलकें सहलाने-सुलझाने तक सीमित थी और अपने बासी पड़ते इन प्रतीकों-सरोकारों से ऊब और झुंझलाहट का सबब बनी थी, दुष्यंत की नई कथन-भंगिमा नेग़ज़ल के समूचे कलेवर में जैसे एक सर्वथा नया, चकमक संसार रच दिया : तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ। एक बाज़ू उखड़ गया जबसे, और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ। दुष्यंत के बाद तो उनकी शैली इस क़दर संक्रामक हो गई कि जिसे देखो वही दुष्यंत जैसी ग़ज़लें लिखने की कोशिश में उनका गुटका या पॉकेट-संस्कारण लगने लगा। दुष्यंत की इस आंच में उनके समकालीन और परवर्ती ही नहीं, उनके पूर्ववर्ती कवि भी जो जीवित और रचनाशील थे, दहने-दहकने लगे। फिर क्या था, इस महावृक्ष की अनेकानेक शाखा-प्रशाखाएं फैलीं, फूलीं-फलीं। कुछ लोग शुद्ध हिन्दी में ग़ज़ल लिखने में जुटे(ज़हीर कुरैशी, शिवओम अंबर, चंद्रसेन विराट आदि), कुछ लोग उर्दू मिश्रित ग़ज़लों की ओर मुड़े, कुछ लोग दाएँ-बाएँ दोनों ओर आते-जाते रहे। लेकिन एक बात पक्की है, कुछ धुनी लोगों ने बाक़ायदा उर्दू की लिपि सीखी और ग़ज़ल के व्याकरण और छंदानुशासन का गहन अध्ययन करने के बाद अपनी क़लम उठाई।
कामचलाऊ या चलताऊ ग़ज़ल लिखने के लिए शायद किसी विशेषज्ञता की ज़रूरत नहीं होती लेकिन ग़ज़ल का बड़ा कवि बनने के लिए उर्दू भाषा की लिपि और उसके संस्कारों को बहुत भीतर तक जज़्ब किए बिना निबाह नहीं है। ‘नूर’ साहब( कृष्ण बिहारी ‘नूर’) जब यह शेर कहते हैं : आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें, और फिर मानना पड़ता है ख़ुदा है मुझमें —- तो वह हिन्दू संस्कृति के ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा’ का आश्रय-अवलंबन नहीं ले रहे होते, वह एक ख़ालिस इस्लामी संस्कृति की मान्यताओं-विश्वासों को आधार बनाकर अपनी बात कह रहे हैं— इस्लाम में ख़ुदा (परमात्मा) के सिवा सृष्टि के निर्माण में चार तत्वों की ही मान्यता है, उनके यहाँ ‘आकाश’ तत्व अनुपस्थित है। ज़ाहिर है, भाषा के उत्स और उसके सांस्कृतिक अवबोध की जड़ों में उतरे और उसका प्रत्याख्यान किए बिना उस भाषा में बड़ी और बेजोड़ बात कह पाना लगभग असंभव है।
ग़ज़ल के परिदृश्य में रामदरश मिश्र हिन्दी के संभवतः सबसे वयस्श्रेष्ठ कवि हैं। वह 97 वर्ष के हैं और लगातार नया से नया सिरजते हुए सक्रिय हैं। हिन्दी के कवि, साहित्य अनुशीलक अपनी भाषाविद तथा तेजोदीप्त संपादक-समालोचक की छवि वाले प्रसिद्ध साहित्यकार ओम निश्चल के सम्पादन में रामदरश जी की 83 ग़ज़लों का संकलन ‘बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे’ प्रकाशित हुआ है। रामदरश मिश्र हिन्दी का एक बहुत धैर्यवान, शीलवान नाम है, प्रसिद्ध और चर्चित होने या होते रहने के चकाचौंध भरे क्रियाकलापों तथा चेष्टा-कुचेष्टाओं से असंपृक्त, निर्लिप्त —बस यह एक काम कि धीरज से अनवरत-अप्रतिहत रूप से बस कुछ नया, नया से नया और सार्थक सिरजते रहने में व्यग्र-उदग्र रचनकार। उनकी रचनाओं का शामियाना कितना विस्तृत है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनके नाम छांदिक कविताएं, मुक्त छंद की नयी कविताएं, कहानी, उपन्यास, संस्मरण —-क्या कुछ नहीं है और सभी कुछ इतनी विपुल मात्रा में और प्रामाणिकता में इतना प्रशस्त कि हिन्दी की ‘राजनीति’ से श्लथ-शिथिल होने के बावजूद न तो वे अलक्षित रहते हैं, न ही उपेक्षित। इस संकलन के संपादक ने इसके प्रास्ताविक में यह ज़िक्र किया है कि यह पूछे जाने पर कि उनके( रामदरश जी के साहित्य) ऊपर कुल कितनों ने पीएच०डी० की है, वे बहुत सकुचाते हुए बताते हैं कि लगभग 375 लोगों ने —तब लगता है कि रामदरश जी का साहित्यिक अवदान कितना महनीय होगा जिसकी चादर में इतने शोध-प्रबंध बांध-समेट पाने की ताब हो।
लेकिन रामदरश जी का मूल स्वरूप कवि का ही है, और जैसा कि हर कवि होता है, उनके भी सबसे पहले और पहचान में आने वाले उद्दीपन प्रेम और प्रकृति ही हैं। प्रेम, रामदरश जी के यहाँ, जैसा कि दुनिया की सभी भाषाओं और साहित्यों का शाश्वत ठीहा है, उनकी ग़ज़लों में बार-बार भेस बदल-बदल कर आता है, दस्तक देता है, खिड़कियाँ-दरवाज़े खुलवाता है, थोड़ी देर ठहरता है, दिखता-दिखाता है, और बिना किसी को कोई क्षति पहुंचाए एक निस्संग योगी की तरह, जैसे आया था, वैसे ही लौट जाता है। परन्तु रामदरश जी के यहाँ से प्रेम का यह लौटना सदा-सर्वदा के लिए लौटना नहीं है, उसका लौटना उसके पुनरागमन की पूर्वपीठिका जैसा है, जैसे वह नेपथ्य में चला गया है, केवल अपनी धज बदलने के लिए, संवादों की अगली नई कड़ी के रिहर्सल के लिए, या कि भाव-भंगिमा की किसी नई अद्भुत पुनर्रचना के लिए। जैसे ठंड के मौसम में कौड़े की पूरी आग के बुझ चुके होने बाद भी, या कि उसमें एक भी लुत्ती-चिंगारी न होने पर भी कौड़ा तापते लोग, यहाँ आग थी, इस आग की धाह के आश्वासन पर अपने भीतर उष्णिमा का आभास करते हुए सुखपूर्वक बहुत सारा समय, कई बार पूरी रात बिता दिया करते हैं, कवि कहता है : वे आएंगे, ये यक़ीन नहीं दिल को हुआ / नहीं आएंगे, ये न ऐतबार ही आया —-प्रेम की किस रागात्मकता में कवि रमा हुआ है कि अपने प्रिय के आने का यद्यपि उसे यक़ीन नहीं है, फिर भी उसके भीतरी मन का विश्वास यह मानने को तैयार ही नहीं कि उसका प्रिय नहीं आएगा। प्रेम के चित्तवृत्ति की यह बेकली कवि ने किस चमत्कृत कर देने वाली अभिव्यंजना और उक्ति वैचित्र्य से सृजित किया है! रामदरश जी के इस संकलन में प्रेम के ऐसे अनगिनत चित्र हैं जिन्हें देखकर भावक के हृदय में रसोद्रेक की जैसे एक बेपनाह हरीतिमा उसे अपने सुवासित आगोश में समोने के लिए व्यग्र-विकल हो उठती है : पास तुम आए तो कीचड़ में कमल सा मन हुआ / लग रहा है आज सारा जग मेरा दर्पण हुआ। इक नदी बहने लगी गाती हुई भीतर मेरे, यह महीना जेठ का मेरे लिए सावन हुआ। लगभग एक पूरी सदी की यात्रा पर निकला हुआ यह महाकवि अपने बचपन में ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े हुए देश को आज़ादी की जद्दोजहद में जूझते हुए देखने का प्रत्यक्षदर्शी रहा है, उसके युवाकाल के अनुभव का आकाश स्वतन्त्रता के मनमोहक इंद्रधनुष की छटा-आभा से अटा पड़ा है, उसकी प्रौढ़ता में नेहरूवियन माडल के तिलिस्म के कमज़ोर होकर टूटने की कथा का करुण रुदन-गान है, प्रौढ़ोत्तर वार्धक्य में जीवन और समाज के श्रेष्ठ मूल्यों की गिरावट और छिन्न-भिन्न होते जाने का एक लोमहर्षक वृत्तान्त है, और अब इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के पिछले 5-7 बरस तो जैसे भारत में विचारों के चरम क्षरण और मनुष्यता के अवसान की उद्घोषणा के वर्ष सरीखे हैं। ऐसे कठिन-दुष्कर समय में रामदरश जी के भीतर के कवि का रागात्मक मन निराला की पंक्ति ‘आज मन पावन हुआ है, जेठ में सावन हुआ है’ के आस्वाद से अपने पाठक के रूमानी मन को सहभागी बनाता है। अपने प्रिय के न आने जैसे आने, और ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं’ जैसे उसके मानस को रौंदते-कुचलते वापस चले जाने प उसका यह उपालंभ है : ‘आप आए चल दिए यों आपको जाना न था / आप आए इस तरह गर, आपको आना न था। आप आएं या न आएं यह ख़ुशी है आपकी, किन्तु अपने साथ मेरा चैन ले जाना न था’ अथवा कवि का यह मनस्तोष उसे जीवन और मधुमयता का संबल देकर धीरज रखने की युक्ति सुझाता है। प्रेम में जुनूनी या दीवानेपन तक का संतरण कवि नहीं करता। वह विवेक का आश्रय कभी नहीं छोडता और प्रेम को एक वीतरागी चित्त के साथ अपने एकांत और एकात्म में संविलयित कर संतुष्ट-संतृप्त हो लेता है, और इसी के साथ जीवन की इस नियति कि क्रमशः सबको अकेले छूट जाने की दुस्सह पीड़ा अंगीकार करनी ही पड़ती है, जो कुछ भी, ज़रा सा जो कुछ भी बच गया है, उसी के साथ जीवन को जैसे-तैसे जिया-निभाया जाए, के मानस में वह चला जाता है : वह न आया किन्तु उसकी याद घर आई तो है / साथ कोई हो न हो अपनी ये तन्हाई तो है। रफ़्ता-रफ़्ता जा रहे सब छोडते संगत मेरी / फ़िक्र क्या दिन-रात साथी अपनी परछाईं तो है।
प्रकृति के कोमल स्पर्श रामदरश जी की मुक्त छंद की कविताओं के सदेह-सगेह स्थाई भाव रहे हैं। नई कविता में जब ज़माना टहनी, फुनगी, कोंपल, पर्ण, वृंत, खरगोश, गिलहरी, तितली, जुगनू का था, या जब मोहभंगजन्य तथा संत्रास के आख्यान के लिए नागफनी, कैक्टस, आलपिन, कांटे, रेत, मरी हुई मछली, विवर्ण धूप का था, तब ये सब बिम्ब, रूपक, प्रतीक रामदरश जी की कविताओं में बहुतायत से थे और अपने समय के विश्वसनीय मुहावरे के रूप में पाठक को चकित-हुलसित भी करते थे। परंतु समय बदला, मुहावरे बदले, जीवन और प्राकृतिक उपादानों को देखने-सुनने की प्रविधि बदली, रामदरश जी भी बदले : चाँद को आज रात भर देखा / तेरा क्या-क्या नहीं असर देखा। जैसे कोई दूध का हो फव्वारा / जैसे कोई गीत का पहर देखा।
रामदरश जी का कवि स्वाभिमान में सिर उठाए खड़ी घास को देख कर उमंग-उल्लास से भरा हुआ है। वह राम के चौदह बरस के वनवास के समाप्त होने पर अपने पाठक को आपादमस्तक सुखस्नात करने के इस सुख से वंचित करना नहीं चाहता और कवि की उदारचेता उदात्तता का उत्कर्ष तो तब देखते ही बनता है जब एक निर्बलतम मनुष्य को सुख का एक क्षण भी मिलता है तो हमारा कवि अविलंब उसके प्रति अपने सहकार और समर्थन में अपना विचारशील मन और आत्मा उसके हवाले कर देता है : आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा / सिर किए ऊंचा खड़ी है घास तो अच्छा लगा। आज फिर लौटा सलामत राम कोई अवध में / हो गया पूरा कड़ा वनवास तो अच्छा लगा। था पढ़ाया माँजकर बर्तन घरों में रात-दिन / हो गया बुधिया का बेटा पास तो अच्छा लगा।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, रामदरश जी मूलतः और अंततः कवि ही हैं। वह ग़ज़ल के विन्यास में भी जब शब्दों को उनकी अर्थछवियों और उनकी ध्वन्यात्मक अनुगूंजों को मनोयोग से बरतते हैं तो जैसे हृदय को भिगो देने वाली मधुर स्वर लहरी की तरह ऐसा कुछ नया, विचित्र और अननुमानित सा बजता सुनाई देता है जिससे उसके श्रोताओं का मुंह सुखद आश्चर्य से खुला का खुला रह जाता है और रामदरश जी के पाठक का मन बाग़-बाग़ हो उठता है : महकती बूंद सा छूटा है लम्हा-लम्हा / अभी गया है किसी झील से नहा कोई। धड़क रहा है पंखड़ी की तरह सन्नाटा / अभी-अभी कि जैसे आया था यहाँ कोई।
रामदरश जी का मन गंवई है। वह भीतर से बहुत सहज, सरल और सामान्य है। शहर की चकाचौंध और बनावटीपन उसे ज़रा भी रास नहीं आते। बिना किसी हिचक और हीनताबोध के वह अपने गाँव के होने को ‘गरबीली गरीबी’ की तर्ज़ पर बड़े ही स्वाभिमान से जीवन और अपनी कविता में कइयों बार, कइयों तरह से व्यक्त करता है। अपने दिल्ली के शहराती आँगन में अपने गाँव की कच्ची मिट्टी को बचाए रख पाने का सुख वह अपने पाठक से साझा करता है। वह बड़ी प्रगल्भता से अपने अस्तित्व को अपनी जड़ों तक उघाड़ कर दिखाता है और एक प्रकार की ज़िद्दी भावभूमि पर आकर जैसे बहुत मोटे हरफ़ों में लिखकर बताना चाहता है कि रोज़ी-रोटी के दबाव के नाते भले ही वह शहर दिल्ली में आ बसा हो परन्तु घर तो उसका गोरखपुर (उ०प्र० के पूर्वाञ्चल का एक ज़िला) ही है, वहाँ जहां वह पैदा हुआ था, और जिसकी मिट्टी की भभूत लगाए वह दुनिया-जहान की यायावरी में निकला हुआ है : बस गया हूँ दोस्तों दिल्ली शहर के बीच यों तो / घर मेरा अब भी वही, हाँ वही गोरखपुर ज़िला है।
कहते है, ‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू’। यह मनीषी, परिभू (नियामक) और स्वयंभू वाला मानस लगातार उसके कंधे पर बैठे रहने वाले बेताल की तरह उसके रचनात्मक व्यवहार को संचालित करने वाला तत्व है। जीवन के चौथेपन के आख़िरी पड़ाव की ओर बढ़ता तथा उपसंहार की कथा लिखने में व्यस्त यह महाकवि अपने पूरे जीवन का आकलन करता है तो पाता है कि ‘कुछ शब्द फूलों की तरह, कुछ शब्द शूलों की तरह / इसके सिवा तुझे क्या मिला, इस उम्र भर की तलाश में। रामदरश जी की एक अत्यंत लोकप्रिय ग़ज़ल है, जैसे किसी फ़िल्म के थीम साँग की वह सांगीतिक धुन जो अनिवार्यतः धीमी-धीमी आवाज़ में पूरी फ़िल्म में अनवरत गुंजरित होती रहती है, ठीक वैसे ही यह ग़ज़ल रामदरश जी के पूरे कविकर्म में एक लगातार बजती हुई मीठी सिंफनी सरीखी है जिसे उनकी समूची कविता का मर्म भी कह सकते हैं, सत्वांश भी —‘बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे, खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे। किसी को गिराया, न ख़ुद को उछाला, कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे। जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर, वहाँ मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे’। बिलकुल निर्वैयक्तिक रूप से कहा जाए तो रामदरश जी की यह ग़ज़ल इनके समूचे जीवन के इतिवृत्त का जैसे सार-संक्षेप (Gist) है, ठीक वैसे ही जैसे एकश्लोकी रामायण में कहा जाता है, ” आदौ राम तपोवननादि गमनं हत्वा मृगं कांचनं,… … … एतद्धि रामायणम”। ग़ौर से देखें तो रामदरश जी का समूचा जीवन एक वैष्णव की साधुता का निदर्शन है। बिना किसी चक्र-कुचक्र में पड़े, बिना किसी को कोई हानि पहुंचाए, सब पर अपने शुभ और मंगल की वर्षा करता हुआ अपने इकतारे पर एक अलौकिक सी धुन में गाता हुआ यह योगी यह बताता है की बिना षड्यंत्र का हिस्सा बने भी जीवन, सबको वह सब कुछ दे ही देता है जो उसका प्राप्तव्य होता है, बस फ़र्क़ केवल इतना है की यह सब कुछ ‘धीरे-धीरे’ होता है, आपाधापी और हिंस्र त्वरा के बिना। संस्कृत का एक श्लोक है : अकृत्वा परसंतापं अगत्वा खल मंदिरम। अनुल्लंघ्य सतां वर्त्म यद्स्वल्पमपि तद्बहु। रामदरश जी का सम्पूर्ण जीवन और उनका समूचा रचना वितान यही है, अनुल्लंघ्य सतां वर्त्म —सत्य और श्रेयस्कर का मार्ग छोड़े बिना उन्हें जो भी मिला, वह कुछ कम है क्या! अक्षौहिणी सेनाओं को हाँकते महाधनुर्धरों को ऐसा क्या मिल गया जो उन्हें अनुल्लंघ्य सतां वर्त्म के साथ नहीं मिला? केवल ‘धीरे-धीरे’ मिला, बस यही भर तो अंतर है।
रामदरश जी के इस संग्रह में कई सारी ऐसी ग़ज़लें है जो उनके प्रश्नाकुल संशय को रेखांकित करने की कोशिश करती हैं कि आख़िर इतनी मार-धाड़, हो-हल्ला, हँगामा, उठाना-गिराना क्यों है? जीवन को रचने और बाँचने में शांति और सौमनस्य का इतना आपराधिक तिरस्कार क्यों है? रामदरश जी के कवि को अपनी किंचित उपेक्षा और अवमान का बोझ दूसरे पर डाल कर उसे लज्जित करने में कोई रुचि नहीं है : कितनी अच्छी थी वो बेरुख़ी आपकी, आज सहमा गई है हंसी आपकी। कुछ न कहिए कि क्यों आप आए नहीं, मुझको मालूम है बेबसी आपकी। आप वैसे ही रहिए, रहम कीजिए, मार डालेगी शरमिंदगी आपकी। मैंने पहचान तो है लिया, फिर कभी, आप आयें न आयें ख़ुशी आपकी। इस स्वर और भंगिमा की अनेकों ग़ज़लें इस संग्रह में अपनी अर्थ और भावदीप्ति के साथ मौजूद हैं। कवि का स्वभाव किसी को आहत अपमानित करने का ज़रूर नहीं है, लेकिन वह इतना भोला और मासूम भी नहीं है कि उसे दुनिया में क्या कुछ और क्यों कुछ घटित हो रहा है, इसका इल्म न हो। उसका वीक्षण असाधारण है :अच्छा हुआ न आपसा चर्चा में मैं रहा, बेचैन सी शोहरत की हवा में नहीं रहा।
जैसा कि पहले भी संकेत किया गया है, रामदरश जी के भीतर एक वैरागी कथावाचक अपने गैरिकवसन अन्तःकरण के साथ हमेशा बना रहता है; निस्पृह, निर्लोभी परन्तु जीवन के शुभ के साथ सदैव संपृक्त : सुनेंगे आप जहां तक, कथा सुनाएंगे, नहीं तो जाके अकेले में गुनगुनाएंगे। हमारा काम है कहना, कोई सुने न सुने, पिया है दर्द उसे लेके कहाँ जाएंगे। रघुवीर सहाय की ‘सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हँसे’ के वर्ण-गंध में रची-बसी अनेकों ग़ज़लें इस संग्रह में इस बात की मुनादी करती हैं कि रामदरश जी का कवि मनुष्य के भीतर होते जा रहे मनुष्यता के अवसान से न तो अनभिज्ञ है, न ही निरपेक्ष। वह हर घटना को उसकी कारणता के साथ जानता-पहचानता है। कोई भी पत्ता क्यों और कैसे हिल रहा है, कुछ भी उसकी प्रत्यभिज्ञा से ओझल नहीं है : आप पीले पड़ गए सहसा, हम तो बस यों ही मुस्कराए हैं।
जैसा कि पहले भी संकेत किया गया है, रामदरश जी के भीतर एक वैरागी कथावाचक अपने गैरिकवसन अन्तःकरण के साथ हमेशा बना रहता है; निस्पृह, निर्लोभी परन्तु जीवन के शुभ के साथ सदैव संपृक्त : सुनेंगे आप जहां तक, कथा सुनाएंगे, नहीं तो जाके अकेले में गुनगुनाएंगे। हमारा काम है कहना, कोई सुने न सुने, पिया है दर्द उसे लेके कहाँ जाएंगे। रघुवीर सहाय की ‘सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हँसे’ के वर्ण-गंध में रची-बसी अनेकों ग़ज़लें इस संग्रह में इस बात की मुनादी करती हैं कि रामदरश जी का कवि मनुष्य के भीतर होते जा रहे मनुष्यता के अवसान से न तो अनभिज्ञ है, न ही निरपेक्ष। वह हर घटना को उसकी कारणता के साथ जानता-पहचानता है। कोई भी पत्ता क्यों और कैसे हिल रहा है, कुछ भी उसकी प्रत्यभिज्ञा से ओझल नहीं है : आप पीले पड़ गए सहसा, हम तो बस यों ही मुस्कराए हैं।
विज्ञानव्रत हिन्दी की छोटी बहरों की ग़ज़लों के माहिर कवि हैं, अभिव्यंजनात्मकता में बिलकुल गागर में सागर। उनका एक शेर है : बस अपना ही ग़म देखा है, तुमने कितना कम देखा है। इस शेर की बेधकता और मारकता किसी की भी स्मृति को विचलित किए रहने के लिए एक प्रतिमान की तरह है। रामदरश जी की एकाध ग़ज़लों में इस भावभूमि को छूने-पकड़ने की कोशिश की गई है : हम हैं तुम हो, तुम हो हम हैं, छोटे-छोटे सुख क्या कम हैं। अपना एक छोटा स घर है, अपने हैं, ख़ुशियां है, ग़म हैं।
बहुत ग़ौर से देखें तो बड़े से बड़े कवि के रचना संसार के निथरे हुए, फिल्टर्ड मीठे पानी को पीता हुआ पाठक वाह, वाह करता रहता है। यह उसकी विवशता है क्योंकि अच्छे रचनाकार के रचनात्मक वैभव में सामान्य रसग्राही भावक उसे मोहविष्ट सा अकबकाकर देखता ही रह जाता है परन्तु बहुत गहरे तक जाने वाले पाठक जान ही जाते हैं कि बड़े से बड़े सर्जक की तलछट पर मिट्टी मिले गंदले और अपेय जल का पाया जाना एक अवश्यंभावी परिघटना है और इस अश्लाघ्य जल को पीने या उससे हाथ-मुंह धोने की विवशता से उसका मन न चाहते हुए भी विषण्ण हो उठता है। रामदरश जी जैसे बड़े सर्जक भी इसके अपवाद नहीं बन पाए। अपनी रचना का मोह किसी बड़े से बड़े कवि की भी रचनात्मक काया को कई गोपनीय स्थानों से निर्वसन करके उसे सकुचा सकता है। क़ाफ़िये, रदीफ़ में भटका हुआ यह महाकवि एक ग़ज़ल में तो जैसे प्रहसन सा करने लगता है : नदी में मैंने भी गाए हैं गीत बार कई, कैमरा लेके मगर हाथ में चेला न हुआ। दूब-सा बिछ गया राहों में मैं फिसलन थामे, पड़ा छिलके की शक्ल में कोई केला न हुआ। यह अप्रीतिकर उदाहरण रामदरश जी जैसे बड़े और सिद्ध कवि की अवमानना या उनमें त्रुटि खोजने के उद्देश्य से नहीं दिया गया है। इससे अभिप्रेत केवल इतना ही है कि वह रचनाकार चाहे जितने बड़े हों, पर अन्तत: हैं वे भी मनुष्य ही। अपने सृजन के चाकचिक्य को देखकर जब प्रजापति ब्रह्मा अपनी सृष्टि से आत्ममुग्ध हुए बिना नहीं रहे तो फिर किसी मनुष्य की बिसात ही क्या?
रामदरश जी हमारे समय की विरलतम श्रेष्ठ सृजनात्मक उपस्थितियों में हैं। उनका होना हमारे समय, साहित्य और हिन्दी की मनीषा को अपने रचनात्मक वैभव से एक उल्लेखनीय गरिमा प्रदान करता है। वह वर्तमान के झंझावातों, संशयों, ऊहापोहों, मनुष्यता की दिन-प्रतिदिन गिरती हुई अकल्पनीय दुरवस्थाओं, मानवीय घात-प्रतिघातों के अवसन्न कर देने वाले कुचाली षडयंत्रों से दुखी ज़रूर हैं, लेकिन क्योंकि वह सर्जक हैं, सिरजना, लगातार नया से नया, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर सिरजना उनके रस रक्त मांस मेद अस्थि मज्जा, ग़रज़ यह कि उनके समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व की चरम परिणति है, लिहाज़ा वह निराश-हताश नहीं हैं। उनके कवि का यह भरोसा पक्का और अडिग है कि भले सारे रास्ते बंद हो गए से दिखते हों, लेकिन बाहर निकलने और रौशनी को आँख में भरकर इस अनिर्वाचनीय संसार को देखने का रास्ता अंतिम रूप से कभी बंद नहीं होता। अभी वह रास्ता दिखता भले ही न हो, ओझल सा लग रहा हो आँखों से चाहे, लेकिन वह सार्वकालिक रूप से बंद हो गया हो, ऐसा तो कदापि नहीं है, जैसा कि शिव ओम अम्बर अपने इस शेर में कहते हैं : ‘रौशनी के नाम ख़त लिखना नहीं छोड़ा, गो अंधेरे की सुरंगों में खड़े हैं हम” और इसी की ताईद रामदरश जी इन शब्दों में कर रहे हैं : “कभी से चल रहे हैं सोचते अंधेरे में, यहाँ नहीं तो कोई रास्ता वहाँ होगा”। कभी मत भूलिए कि यही आशावाद हर रचनाकार का पाथेय होता है और इसी पर दुनिया टिकी है।
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे (रामदरश मिश्रा की ग़ज़लें) : सम्पादन- ओम निश्चल, प्रथम संस्करण : 2019, प्रकाशक : यश पब्लिकेशन्स, पृष्ठ : 136, मूल्य : 350

डॉ.आनन्द वर्धन द्विवेदी पेशे से चिकित्सक हैं, लखनऊ में रहते हैं और अपनी रुचियों के चलते कवि, समीक्षक तथा साहित्य अनुशीलक की भूमिका में रहते हैं। इनसे इस ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है— ईमेल : avdwivedi1958@gmail.com