विमल कुमार
“अभी तक साहित्य जगत ने उनके (शिवरानी देवी) साथ न्याय नहीं किया क्योंकि मेरा व्यक्तित्व उनके व्यक्तित्व को ढक लेता है। शायद कुछ आदमी सोचते होकि उनकी रचनाओं का वास्तविक लेखकमैं ही हूं। मैं इनकार नहीं करता क्योंकि रचनाओं में साहित्यिक सजावट मेरी है लेकिन विचार और लेखन सर्वथा उन्हीं के होते हैं। उनकी प्रत्येक लाइन में ओजपूर्ण स्त्री का व्यक्तित्व प्रकट होता है। मेरे जैसे शांत स्वभाव का आदमी इस प्रकार की दबंग औरतों के प्लाट की कल्पना भी नहीं कर सकता।”—मुंशी प्रेमचंद का पत्र बनारसी दास चतुर्वेदी के नाम (तेरह फरवरी 1933)।
“मेरे जीवन में रोमांटिक भाव कुछ नहीं है। यह बिल्कुल साधारण किस्म का है। मेरी पहली पत्नी 1904 में गुजर गई। बेचारी दुर्भाग्यपूर्ण थी। जरा भी आकर्षक नहीं और हालांकि मैं उससे संतुष्ट नहीं था। मैं शिकायत न करके काम चलाता रहा जैसे पुराने पति करते हैं। जब वह गुजर गई तो मैंने एक बाल विधवा से शादी की और उसके साथ काफी खुश हूं। उसे भी सहित्यमें कुछ रुचिहो गई है और वह कभी कदा कहानियां लिखती हैं। वह एक निडर, हिम्मतवाली, निष्कपट महिला है। अत्यंत विनम्र और अत्यंत आवेशपूर्ण। वह असहयोग आंदोलन से जुड़ी हर जुड़ी हुई और जेल गई। मैं उससे ऐसा कुछ नहीं चाहता था जो वह दे नहीं सकती और खुश हूं।-मुंशी प्रेमचंद (इंद्रनाथ मदान के नाम पत्र 1935)
मुंशी प्रेमचंद के ये दोनों पत्र केवल शिवरानी देवी के बारे में ही नहीं बल्कि तत्कालीन हिंदी समाज के बारे में भी बहुत कुछ कहते हैं। इस पत्रों से शिवरानी देवी के व्यक्तित्व के बारे में पता चलता ही है। यह भी पता चलता है कि जब कोई स्त्री लिखती है तो पुरुष संदेह की निगाह से देखते हैं और जल्द मान्यता नहीं देते। शिवरानी देवी पृरुषों की इस मानसिकता की शिकार तब भी थी और आज भी हैँ यही कारण है कि आज हिंदी समाज जितना प्रेमचंद को जानता है, उतना वह शिवरानी देवी को नहीं जानता है। वह उन्हेंअधिक से अधिक प्रेमचंद की पत्नी या “प्रेमचन्द घर मे “की लेखिकाके रूप में ही जानता है लेकिन बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि वह अपने समय की महत्वपूर्ण कहानीकार भी थीं। “हंस” पत्रिका की सम्पादक भी थीं जिसे प्रेमचन्द निकालते थे और उनके निधन के बाद उसके सम्पादन का दायित्व संभाला। वह कांग्रेस की सक्रिय कार्यकर्ता तथा मंचों पर बोलने वाली प्रभावशाली वक्ता भी। वह केवल गृहणी नहीं थी।
वैसे, बहुत लोगों ने उनकी पुस्तक ‘प्रेमचंद घर’ में पढी होगी लेकिन वह केवल प्रेमचंद की जीवनीकार नहीं थी बल्कि वह एक बेबाक और साहसी लेखिका भी थीं जो स्त्री मुक्ति के मुद्दे पर प्रेमचन्द से आगे की सोचती थी और उन्होंने इस प्रसंग में सहित्य मेंअपने पति की तुलना में अधिक तीखे सवाल उठाए थे और समाज को बदलकर स्त्री पुरुष की समानता स्थापित करने का पुरजोर आह्वान किया था। दुर्भाग्य से हिंदी की दुनिया में उनकी कहानियों की चर्चा नहीं हुई जबकि उनके दो कहानी संग्रह आजादी से पहले ही छप चुके थे। हिंदी के कथा आलोचकों नामवर सिंह, विजयमोहन सिंह और मधुरेश ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया।
‘प्रेमचंद घर में’ तो उनकी कहानी-संग्रहों के बाद की रचना है। जब प्रेमचंद और अपने लेखन से राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो रहे थे तो उसी समय शिवरानी देवी ने भी लिखना शुरू किया था। वह कोई अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी और विवाह के पूर्व साहित्य में उनकी कोई दिलचस्पी भी नहीं थी लेकिन 1905 में विवाह के बाद प्रेमचंद की सोहबत में सहित्य में उनकी दिलचस्पी विकसित हुई। प्रेमचन्द ने उन्हें आगे बढ़ाया और 1924 में जब शिवरानी देवी की उम्र 35 वर्ष थी तो उनकी पहली कहानी ‘चांद’ में ‘साहस’ नाम से छपी थी। इस पहली कहानी से ही पता चलता है कि शिवरानी देवी बहुत ‘साहसी’ और ‘बेबाक’ भी थी। तब प्रेमचन्द का चर्चित उपन्यास ‘रंगभूमि’ भी नहीं आया था लेकिन सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि प्रेमचंद ने अगर‘सौत’ कहानी लिखी तो शिवरानी देवी ने भी ‘सौत’ नाम से एक कहानी लिखी थी। यद्यपि उसका रचना काल और विषय वस्तु अलग है। सब जानते हैं कि ‘सौत’ प्रेमचन्द की पहली हिंदी कहानी थी और वह 1915 में छपी थी। उससे पहले वह उर्दू कहानियां लिखा करते थे यानी प्रेमचन्द के हिंदी में कहानी लिखने के 9 साल बाद ही शिवरानी ने भी हिंदी में लिखना शुरू किया। प्रेमचंद ने ‘बूढ़ी काकी’ लिखी तो शिवरानी देवी भी ‘बूढ़ी काकी’ नाम से कहानी लिखी थी। यह दोनों कहानियां उनके पहले कहानी संग्रह ‘नारी हृदय’ (1933 ) में संकलित है। इस तरह शिवरानी देवी ने पांच ऐसी कहानियां लिखी जिसके शीर्षक प्रेमचंद की कहानियों से मिलते थे। इनमें ‘पछतावा’, ‘विमाता’ और ‘बलिदान’ जैसी कहानियां हैं। इनमें दो कहानियां ‘पछतावा’ और ‘विमाता’ ‘कौमुदी’ (1937) में संकलित हैं। बाकी एक बलिदान अभी तक असंकलित है जो 1937 में ‘चाँद’ में प्रकाशित हुई थी लेकिन हिंदी का दुर्भाग्य है इस शिवरानी देवी के कहानी संग्रह वर्षों तक अनुपलब्ध रहे। पिछले दिनों ‘नई किताब’ ने शिवरानी देवी के दूसरे कहानी संग्रह ‘कौमुदी’ को फिर से प्रकाशित किया है और इस तरह करीब 80 साल के बाद यह किताब हिंदी जगत के सामने आईहै लेकिन उस किताब पर भी अभी तक हिंदी वालों का विशेष ध्यान नहीं गया है। ‘नारी हृदय’ अभी तक उपलब्ध नहीं है। प्रेमचन्द ने इसकी भूमिका लिखने का अनुरोध बाबू शिवपूजन सहाय से किया था और इस बारे में उनको पत्र भी लिखे थे। इससे पता चलता है कि प्रेमचन्द चाहते थे कि उनकी पत्नी कहानी के क्षेत्र में आगे बढ़े। लेकिन शिवरानी देवी की किताबों के उपलब्ध न होने से उनकी कहानियों पर लोग चाहकर भी चर्चा या मूल्यांकन नहीं कर पाये क्योंकि उनके दोनों संग्रह बाजार में तब से उपलब्ध नहीं रहे लेकिन अब लोगों में शिवरानी देवी के कहानीकारों को जानने परखने में थोड़ी दिलचस्पी पैदा हुई है। इसका नतीजा यह हुआ कि इलाहाबाद में हिंदी के प्रोफेसर एवं आलोचक डॉक्टर क्षमा शंकर पांडे ने शिवरानी देवी पर160 पृष्ठों एक किताब ही लिखी है। इसमें भूमिका के अलावाआठ अध्याय हैं और प्रेमचन्द के शिवरानी के नाम कुछ पत्र हैं। यह किताब शिवरानी देवी के निधन के44 साल बाद आई है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हिंदी समाज और प्रकाशन जगत ने उनकी कितनी उपेक्षा की। सच पूछा जाए तो शिवरानी देवी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व को लेकर हिंदी में यह पहली किताब है जबकि पूरी दुनिया में प्रेमचंद की किताबों की भरमार है। क्या प्रेमचन्द की महानता के साये में शिवरानी दब गईं? क्या कारण है कि हिंदी समाज ने शिवरानी देवी को विस्मृतकर दिया गया और एक कहानीकार के रूप में उनकी चर्चा ही नहीं की गई। यह अलग बात है कि “प्रेमचंद घर में ‘नामक पुस्तक की हिंदी में बहुत चर्चा हुई और वह प्रेमचंद की जीवनी को लेकर पहली किताब थी क्योंकि तब तक मदन गोपाल, इंद्रनाथ मदान, रामविलास शर्मा या अमृतराय की भी कोई किताब नहीं आई थी।
हालांकि शिवरानी देवी ने उस किताब में अपने पति प्रेमचन्द को भी नहीं बख्शा है और उनको भी कटघरे में खड़ा किया है, चाहे पहली पत्नी के बारे में प्रेमचन्द का रवैया हो या उनके विवाहेत्तर प्रेम प्रसंग का मामला हो। उन्होंने प्रेमचन्द के चरित्र के बारे में भी सीधा सवाल किया था और प्रेमचंद चुप रहे थे। उन्होंने अपने पुत्र की तरह अपने पति का महिमामंडन नहीं किया। यह उनकी बेबाकी और साहस का सबूत है। शिवरानी ने प्रेमचन्द के व्यक्तित्व के कई अलक्षित पहलुओं के बारे में लिखा है जिसकी तरफ प्रगतिशील आलोचक ध्यान नहीं देते हैं या उनकी चर्चा नहीं करते हैं या उन्हें चर्चा योग्य ही नहीं मानते हैं।
डॉ. पाण्डेय का कहना है कि ‘प्रेमचंद घर में’ किताब न केवल प्रेमचन्द की जीवनी है बल्कि वह शिवरानी देवी की भी आत्मकथा है। “यह किताब हिंदी साहित्य में एक लेखिका द्वारा अपने लेखक पति की पहली जीवनी तो है ही, एक स्त्री के पारिवारिक जीवन का रोजनामचा भी है। उस दौर में ऐसा उदाहरण शायद ही अन्य भारतीय भाषाओं में मिलता हो जब किसी लेखिका ने अपने पति पर कोई किताब लिखी हो। जैसा कि आप जानते हैं शिवरानी देवी नेआजादी की लड़ाई में भी कांग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय भूमिका निभाई और 11 नवंबर 1931 को वह 2 महीने के लिए जेल भी गई। वह चाहती थी आजादी की लड़ाई में उनके घर से भी कोई व्यक्ति जेल जाए। वह अपने बच्चों को जेल नहीं भेजना चाहती थी क्योंकि उनके बच्चे तब बहुत छोटे थे। वह यह भी नहीं चाहती थीं कि उनके पति जेल जाएं क्योंकि तब प्रेमचन्द का स्वास्थ्य बहुत खराब रहता था। उन्होंने ‘प्रेमचंद घर में’ इस बात का जिक्र भी किया है। शिवरानी देवी ने लिखा है, “मैं उनको जेल नहीं जाने देना चाहती थी क्योंकि उनकी सेहत ठीक नहीं थी। मैं सोचती थी कि अगर यह जेल जाएंगे तो उनकी क्या हालत होगी। उनका ख्याल ही मुझको सहारा देता था। मगर उनके सामने उसका विरोध भी नहीं कर सकती थी क्योंकि इसमें कायरता थी। सभी के पुत्र और पति और भाई सबके प्यारे होते हैं जो सभी अपने अपने को छुपा कर रखना चाहे तब काम करने वाले कहां से आएंगे, इसकी चिंता मुझे थी। अब मैं स्वयं सोचती कि बच्चे जेल जाने के काबिल थे ही नहीं और उनको जेल जाने देना नहीं चाहती थी तो सवाल आता है कि आखिर जेल जाए तो कौन? उसमें आगे बढ़ना मेरा काम था। इससे पता चलता है शिवरानी देवी केवल घर के बारे में नहीं थी बल्कि वह देश को गुलामी से मुक्त कराने के बारे में भी बड़ी गंभीरता से सोचती विचारती थीं।यह उनका त्याग और आदर्श था जो बहुत दुर्लभ है।
सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी यही आदर्श दिखाया था अपने जीवन में। अगर शिवरानी देवी केदोनों संग्रहकी कहानियों को देखा जाए तो यह पता चलता है कि एक लेखिका के रूप में शिवरानी देवी की चिंताएं समाज को लेकर बहुत व्यापक थींऔर उस ज़माने की कुरीतियों पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया है। कई कहानियों में तो उनके पात्र तो प्रेमचंद के पात्रों से अधिक साहसी, बेबाक और बोल्ड हैं। प्रेमचंद ने खुद भी स्वीकार किया है शिवरानी देवी का व्यक्तित्व दबंग और साहसी रहा है।
डॉ. पांडे ने लिखा है “शिवरानी जी की कहानियों में ऐसी नायिकाओं की पर्याप्त संख्या है जो कुरीति और अन्याय के विरुद्ध न केवल तन कर खड़ी होती हैं बल्कि तमाम परंपराओं के नकार का भी साहस जुटाती हैं ‘कर्म का फल’ की कांति ‘साहस’ की रामप्यारी, ‘विमाता’ की राधा, ‘वर यात्रा’ की रामेश्वरी, ‘समझौता’ की ललिता और ‘वर्परीक्षा’ की निर्मला ऐसी स्त्रियां हैं। ‘बाल विधवा’ की कांति गांव के लंपट लड़के मोहन की नाक काट कर उसकी लम्पटता की शिक्षा देती हैं। ‘साहस’ की रामप्यारी भी एक ऐसी स्त्री है। अनमेल विवाह की शिकार होने जा रही रामप्यारी पहले तो 4 बच्चों के बाप 40 वर्षीय वर को पत्र में माध्यम से समझाने का प्रयास करती है और जब इसके बाद भी वे विवाह मंडल में आ जाते हैं तो उसने का वर्णन करते हुए शिवरानी जी लिखती हैं “रामप्यारी धीरे से अपने बगल में हाथ ले गई और फिर तन कर खड़ी होकर उसने घुंघट उलट दिया। ‘तड़ तड़’ की आवाज से मंडप गूंज उठा। उपस्थित सज्जनों ने चकित होकर देखा वर के सिर पर जूते पड़ रहे हैं किंतु सबसे आश्चर्य की बात तो यह है यह काम किसी और का नहीं था; स्वयं वधू ही यहकार्य कर रही थी। 10 -15 जूते जमा कर रामप्यारी ने अपने हाथ का पुराना जूता अपने पिता के सामने फेंक दिया और शीघ्रतासे बाहर चली गयी।”
ऐसा कोई प्रसंग प्रेमचन्द की रचनाओं में नहीं मिलता। उनकी चर्चित कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ की अब आलोचना भी होने लगी है कि प्रेमचन्द ने स्त्री को अन्याय के आगे झुकते हुए समझौतावादी क्यों दिखाया। गत दिनों ‘हंस’ के कथाकार सम्पादक संजय सहाय ने जब इस कहानी को खारिज किया तो हिंदी में काफी विवाद भी हुआ पर तब भी सहित्य में ‘साहस’ की चर्चा कहीं नहीं हुई। क्या इसलिए नहीं हुई कि हिंदी आलोचना में एक मर्दवादी दृष्टिकोण शुरू से दिखाई देता है और स्त्रियोचित संस्कार के नाम पर प्रेमचन्द ने भी अधिकतर भीरूऔर विनयशील स्त्री पात्रों की रचना की। अब हिंदी में स्त्री विमर्श शुरू होने पर ये प्रश्न उठने लगे हैं और आलोचना के मानक बदलने लगे हैं।
पुस्तक में शिवरानी देवी के एक अन्य तेज तर्रार स्त्री पात्र राधा का जिक्र किया गया है। राधा अपने दरोगा पति जालिम सिंहसे पूछती है “आप आदमियों को इतना पीटते क्यों है? क्यों उन पर इतनी सख्ती करते हैं? बच्चा बच्चा तो आजादी के लिए दीवाना हो रहा है और आप पेट के लिए खुद भी गुलाम बने हुए हैं और दूसरों को भी गुलाम बनाए रखना चाहते हैं।”
राधा आगे कहती है, “इसी सड़क पर से आज बीसियों लाशें गई। कोई पुलिस के डंडे से मरा है, तो कोई घोड़ों के पैरों से। घायलों की तो गिनती ही नहीं है। सब तुम्हारे नाम को रो रहे थे। तुमने आदमियों को मारने का ठेका लिया है तो जिलाने का भी ठेका लेना चाहिए था। क्या उस वक्त सो गए थे? तुम क्यों है नौकरी छोड़ नहीं देते, मैं भूखे मरना चाहती हूं पर ऐसे अन्याय की रोटियां नहीं खाना चाहती।”
डॉ. पांडे ने लिखा है, “जब इसी राधा का पुत्र आंदोलन में पुलिस की लाठियों से मारा जाता है और लाश घर आती है तो दरोगा जालिम से रोने लगता है तब अपने पति को दिखाते हुए वह कहती है, “चुप हो पापी अब क्यों रोता है? यह तेरी ही करनी का फल है। अब तुझे भी मालूम होगा कि बेटे के मरने का दुख कैसा होता है। तूने सैकड़ों घर उजाड़ दिए। फिर अपनी दांव रोता क्यों है? इसी तरह उनके दिलों पर भी चोट लगी होगी। भगवान कैसे न्याय करते हैं। तुमने बहुत अच्छा किया भगवान, तत्काल फल दे दिया।”
इस से आपको अनुमान लग सकता है शिवरानी देवी के भीतर कैसी आग थी और उनमें अन्याय को लेकर प्रतिकार और प्रतिशोध की भावना कैसी थी। वह किसी समझौते में यकीन नहीं करती है। उनके समकालीन अन्य पुरुष लेखकों ने शायद ही ऐसे पात्रों की रचना की हो। यह शिवरानी की जीवन दृष्टि का परिचायक है। हिंदी समाज में अक्सर प्रेमचंद की जीवन दृष्टि की बात होती है और कहा जाता है कि राष्ट्रीय आंदोलन के लेखकों में प्रेमचंद की जीवन दृष्टि बहुत व्यापक और गहरी थी। उनके जैसा दृष्टिवान कोई लेखक नहीं था। वह अपने समकालीनों से बहुत आगे थे। कुछ लेखक तो गांधी की जीवन दृष्टि के बरक्स प्रेमचन्द की जीवन दृष्टि को रखकर उसे परखते हैं। हमारे समाज मे मार्क्स गांधी नेहरू लोहिया के अलावा कबीर, तुलसी, टैगोर और ग़ालिब की जीवन दृष्टि की भी चर्चा होती रही है लेकिन हमने मीरा कस्तूरबा या महादेवी की जीवन दृष्टि पर कभी विचार नही किया। जाहिर है ऐसे में शिवरानी की जीवन दृष्टि का उल्लेख करना लोगों को अतिशयोक्ति भी लगे। क्या शिवरानी देवी के बारे में इस तरह विचार करना उपयुक्त नहीं होगा। यह कोई अतिरंजना तो नहीं होगी क्योंकि अब तक हिंदी समाज में शिवरानी देवी को प्रेमचन्द की पत्नी के रूप में देखा गया और अधिक से अधिक उन्हें प्रेमचन्द घर मे पुस्तक की लेखिका के रूप में लेकिन उन्हें एक स्वतंत्र लेखिका के रूप में नहीं देखा गया अगर शिवरानी देवी के पास यह जीवन दृष्टि नहीं होती तो वह इतनी धारदार कहानियां नहीं लिखतीं।
डॉ. पाण्डेय ने ‘शिवरानी की स्त्रियां’ शीर्षक अध्याय में विस्तार से इसकी चर्चा की है।
शिवरानी देवी साम्प्रदायिकता, राष्ट्र, स्वराज्य और आज़ादी के बारे में भी स्प्ष्ट दृष्टि रखती हैं। इस मायने में वह प्रेमचन्द से तनिक भी कम प्रगतिशील नहीं हैं।
‘हत्यारा’ कहानी में वह लिखती हैं, “स्वराज हत्या करने से नहीं मिलता, त्याग तप और आत्म शुद्धि से मिलता है। लाभ छोड़ते नहीं दुर्व्यसन छोड़ते नहीं अपनी बुराइयां देखते नहीं। उस पर दावा है स्वराज लेने का। यह समझ लो जो स्वराज हत्या से मिलेगा वह हत्या पर स्थिर रहेगा। सामूहिक उद्योग से जो स्वराज्य मिलेगा, वह राष्ट्र की वस्तु होगी। व्यक्तियों के उद्योग से जो स्वराज्य मिलेगा वह व्यक्तियों की वस्तु होगी और थोड़े से व्यक्तियों का एक दल तलवार के जोर पर फिर से शासन करेगा। हम साधारण जनता का स्वराज चाहते हैं हत्या बल रखने वाले व्यक्ति समूह का नहीं।”
शिवरानी देवी अपनी कहानी ‘समझौता’ में पात्र ललित के माध्यम से कहती है—”मैं यही अधिकार लूंगी कि स्त्री और पुरुष दोनों का हकहर एक बात में बराबर हो रत्ती भर का भी फर्क ना हो पिता की संपत्ति, पति की संपत्ति या ससुर की संपत्ति पर स्त्री का उतना ही हक को जितना पुरुष का होता है। सरकारी नौकरियों दोनों को बराबर मिले। काउंसिल में भी स्थान बराबर हो, राय देने का अधिकारी बराबर हो, संतान पर भी स्त्री का अधिकार पुरुष के बराबर हो और अपने धर्म और देहपर भी उसका अपना अधिकार हो, उसी तरह जैसा पुरुष का अधिकार अपनी देह द और धर्म पर होता है। स्त्रियां वह कभी स्वीकार नहीं करेंगे कि पुरुष का जो धर्म हो वही धर्म उन्हें भी मानना पड़े या माता-पिता जिसको चाहे उसे दान कर दे।”
तीस के दशक में शिवरानी देवी का स्त्री विमर्श महादेवी के स्त्री विमर्श से अधिक तीखा और साहसिक था। देह पर अधिकार का विमर्श तो राजेन्द्र यादव के जमाने में उठा सम्पति पर अधिकार के सवाल बाद में उठे। इस से आप शिवरानी की क्रांतिकारी चेतना का अंदाज़ा लगा सकते हैं प्रेमचन्द भी इतने तीखे सवाल नहीं उठा सके थे।
इस पुस्तक में शिवरानी देवी के समय की अनेक महिला रचनाकारों का भी काफी जिक्र किया है और बताया है इस दौर में किस तरह वे कथा के क्षेत्र में सक्रिय थीं। लेकिन हिंदी के इतिहासकारों और आलोचकों ने उनकी कोई विशेष चर्चा नहींकी। इसलिए वे इतिहास से ओझल हो गईं। आज उनका कोई नाम लेवा भी नहीं है। शिवरानी देवी इसी त्रासदी की शिकार रहीं। वह 76 तक जीवित रहीं पर हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में किसी ने ऊपर ध्यान नहीं दिया। यह हादसा केवल शिवरानी देवी के साथ नहीं हुआ बल्कि बंग महिला, हेमवती देवी यशोदा देवी उषा देवीमित्र, रामेश्वरी नेहरू के साथ भी हुआ और ताज़ा उदाहरण चन्द्रकिरण सोनरेक्सा हैं। दरअसल हिंदी साहित्य में पृरुषों का वर्चस्व इतना अधिक प्रबल है कि बेहद वे स्त्री लेखकों का समुचित मूल्यांकन नहीं करते और इस तरह ये लेखिकाएं इतिहास में उपेक्षित हो जाती हैं।
विस्मृत रचनाकार : शिवरानी देवी : डॉ क्षमाशंकर पांडेय, प्रकाशक : नई किताब, रुपये : 350, पृ.160
क्षमा शंकर पाण्डेय
28 मार्च 1955 को मीरजापुर के नियामतपुर कलाँ गाँव में जन्म। 1981 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद से हिन्दी विषय में प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान सहित स्नातकोत्तर उपाधि। 1985 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से डॉ. शिवप्रसाद सिंह के निर्देशन में ‘मुक्तिबोध की काव्य भाषा’ विषय पर पीएच.डी. उपाधि। उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ की ‘भोजपुरी कोश’ संपादन योजना में संपादन सहायक। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की शोध परियोजना ‘हिन्दी कथा साहित्य में प्रेरक शक्ति के रूप में राष्ट्रीय एकता’ के अन्तर्गत इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के हिन्दी विभाग में रिसर्च एसोसिएट। अ प्रदेश के विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में हिन्दी विषय का अध्यापन, शोध एवम् शोध-निर्देशन करते हुए एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्त। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक आलेख एवम् शोध-पत्र प्रकाशित। मुक्तिबोध की काव्य भाषा, शताब्दी बदल रही है, उग्र-विमर्श, तुलसीदास : एक अध्ययन एवम् नये सवाल मिले। धूमिल, पाँय न पाँख मौलिक पुस्तकें प्रकाशित। महिला सशक्तीकरण : उपलब्धियाँ और भविष्य, हिन्दी का बाजार, बाजार की हिन्दी, हमीरपुर एवम् महोबा जनपदों का फाग, 1857 स्मृति और यथार्थ तथा ‘कारागार’ पुस्तकें संपादित। संदर्भ अठारह सौ सत्तावन यंत्रस्थ। लेखक से निम्न ई-मेल पर संपर्क कर सकते हैं—drkspandey@rediffmail.com