कश्यप महाराज

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अनुराधापुर / सन् 480- 481 ईसवी

वरिष्ठ कथाकार-ग़ज़लकार प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ जी की शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘सीगिरिया पुराण’ का एक महत्वपूर्ण अंश

स्थविर तुषार जो रजत मंजूषा दे गए थे वह चाँदी की साधारण पेटी नहीं बल्कि किसी सिद्धहस्त कारीगर की कला का अद्भुत नमूना थी।।उसके ढक्कन पर अनुराधापुर का राज-चिह्न खुदा हुआ था और बाकी पेटी पर छोटी-छोटी नुकीली बर्छियाँ उकेरी हुई थीं; पेंदे के कोनों पर सिंह के पंजों जैसे गोड़े थे, और बंद करने के लिए नाज़ुक-सी कुंडी लगी थी।

उस पेटी में से जो पत्र निकला उसे पढ़कर ऐसा लगा जैसे उन सब बर्छियों की नोकें एक ही साथ मेरे हृदय में उतर गईं – सत्य कटु तो होता ही है, पर वह सत्य उस पत्र में इतनी प्रखरता से मुखर हुआ था कि मुझे पश्चाताप और आशंकाओं के आजीवन कारावास का दंड दे गया।  इस आघात से सौंदर्या भी मुझे नहीं बचा सकी– वह तो स्वयं ही अपने आँसू नहीं रोक पा रही थी। …दो-चार पंक्तियाँ ही पढी थीं कि मेरी आँखों से अश्रु-धार बह निकले; सौंदर्या मेरे कंधे पर दोनों हथेलियाँ रखे मेरे साथ-साथ पढ़ रही थी :

 त्रि-सिंहल नरेश कश्यप महाराज

यह मेरा परम दुर्भाग्य है कि जिन दो लोगों से मैंने जीवन में सबसे अधिक प्रेम किया वे दोनों ऐसे निकले कि शताब्दियों तक उनकी क्रूरता का उदाहरण दिया जाता रहेगा – एक आपके पिता धातुसेना महाराज, जिन्होंने अपनी बहन को जीवित जला डाला, और दूसरे आप कि अपने पिता को जीवित दीवार में चुनवा दिया।

आप राजपुरुष-गण भी कितने सरलमति होते हैं; समझते हैं किसी पुराने दागब का पुनरुद्धार करवा दिया, कुछ-एक नए बौद्ध-विहारों का निर्माण करवा दिया, कुछ दान-दक्षिणा दे दी, फिर उसके बाद गौतम के मूल मंत्र एवं सिद्धांतों के उल्लंघन की छूट मिल गई; सारे कलंक और असत्य उनसे छिप जाएँगे, लोग आपके अपराध, आपकी क्रूरता भूल जाएँगे।  नहीं महाराज, एक क्षण को भी इस भ्रम में न रहिएगा कि अनुराधापुर में किसी एक प्राणी को भी मिगार की उस उद्घोषणा पर विश्वास है जिसमें उसने धातुसेना महाराज के स्वेच्छा से वन में अज्ञातवास के लिए जाने का उल्लेख किया है।  उनकी हत्या  आपकी उपस्थिति में, आपकी अनुमति से कितने भयावह ढंग से हुई उसका विवरण इस पत्र के साथ संलग्न दीपांकर के शपथपत्र में दर्ज है जो अब आम लोगों तक भी पहुँच चुका है। उस बालक के बयान पर जिन लोगों के हस्ताक्षर हैं उनमें से दो संघ की सेवा में जा चुके, और तीसरा आपको मिगार की काली छाया से मुक्त रखने के लिए अभी हाल तक युद्धरत था।

 महानाम मुझे बता चुके हैं कि मिगार ने कितने छल-छद्मों से आपके कान में धातुसेना महाराज के विरुद्ध विष भरा। महानाम जैसे स्वामिभक्त अनुचर सौभाग्य से ही मिलते हैं; वे अपने स्वामी के प्राण तो नहीं बचा सके किंतु मैं जीवित हूँ तो उन्हीं के कारण।

 आपको मैंने बचपन से पाला है। अपनी कोख जनमे पुत्र मोगल्लान से भी अधिक लाड़-प्यार दिया। विमाता होकर भी यही चाहती थी कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते महाराज आप ही को उत्तराधिकारी घोषित करें, यद्यपि मिगार जैसे दुष्ट की संगत में अपनी छवि को धूमिल करने में आपने कोई कसर नहीं छोड़ी। मैंने यथासंभव प्रयास किया कि धातुसेना महाराज अपनी बहन को इतना कठोर दंड देकर मिगार जैसे सर्प को चोटिल न करें। किंतु मैं न आपको युवराज घोषित करवा पाई न वारुणी को उस हृदय-विदारक दंड से बचा पाई। प्रारब्ध का कोई क्या उपचार करे !

 किंतु आपके भविष्य के लिए कुछ बातें आपकी जानकारी में होनी चाहिएँ।

आपको बताना चाहती हूँ कि जिस सुन्दर पेटी में यह पत्र भेज रही हूँ उसमें हम क्या रखा करती थीं कभी –  हम अर्थात् मैं और आपकी अपनी माँ अधरअमृता। वह मुझे बड़ी बहन मानती थी और मैं उसे सगी छोटी बहन समान। बहुत प्रेम था हमदोनों में, और अपने विवाह के कंगन और आभूषण इस मंजूषा में हम इकट्ठे रखती थीं। जी महाराज, आप चकित न हों – आपकी माता दासी नहीं थी। समझ लें कि वह कोई वन-देवी थी जिसे मैं स्वयंसिद्धा के आश्रम से स्वयं लेकर आई थी; फिर धातुसेना महाराज से उसका गंधर्व विवाह मैंने करवाया था। धातुसेना महाराज और अधरअमृता का पारस्परिक प्रेम ऐसा था कि यदि वह चाहती तो मुझसे महिषी का पद छीन सकती थी, विशेषकर प्रथम बालक उत्तराधिकारी को जन्म देने के बाद, किंतु उस देवी समान स्त्री ने कभी मुझसे वरीयता लेने का प्रयास नहीं किया। इस मंजूषा से अपनी छोटी बहन के आभूषण तो आपको पहले ही दे दिए थे। जो मेरे थे उन्हें आपने मेरा सुहाग उजाड़ कर निरर्थक कर दिया। मंजूषा बेकार पड़ी थी, सोचा, यह अंतिम संवाद भेजने के काम में ले लूँ।

 आपकी माँ की असमय मृत्यु के बाद मैंने ही आप को पाल-पोस कर बड़ा किया है, इसलिए आपके आंतरिक स्वभाव को भली-भाँति जानती हूँ – मिगार के विषाक्त प्रभाव में ही सही, किन्तु आपने जो किया वह महापाप है। यह बात कोई और जाने न जाने आप स्वयं अवश्य अनुभव करते होंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। और इस बात का भी कि आप महानाम, तुषार, शिलाकाल जैसे व्यक्तियों को किसी अपराध का दोषी ठहरा कर उनके पीछे नहीं पड़ जाएँगे – उन्होंने तो मोगल्लान के प्राण बचाने के लिए उसे जंबूद्वीप भेजने के बाद आपकी सहायता ही की है, और आगे भी करते रहेंगे।

 आप उदयाचल के सूर्य हैं – आपके समक्ष आपको कोई पितृहंता नहीं कहेगा, पीठ पीछे सब वही कहेंगे और वह सत्य भी है। आप का प्रायश्चित यही है त्रि-सिंहल को अपने सुशासन से शान्ति व समृद्धि दें; असत्य, अन्याय और षड्यंत्र का वर्चस्व न होने दें और अनावश्यक क्रूरता से दूर रहें।

मैं तो यह भी चाहती हूँ कि मोगल्लान जब वापस लौटे तो वह भी कोई क्रूरता या हिंसा न करे। वह लौटेगा अवश्य, क्योंकि प्रतिशोध की प्रतिज्ञा करके गया है। तब क्या होगा, यह आप दोनों के मध्य का विषय है; अब मैं इसमें कुछ नहीं कर सकती। मैं तो अब मात्र तथागत की प्रार्थना में लीन रहना चाहती हूँ।

एक अंतिम बात और – मुझे ढूँढने का प्रयास न कीजिएगा;  मैं अनुराधापुर से दूर जा रही हूँ, संघा के बालक और नीलमणि के साथ। दुर्भाग्यवश प्रसव में संघा का देहांत हो गया। उस बालक के लालन-पालन का दायित्व मुझ पर ही है। यदि मुझे खोज निकालने का कोई प्रयास हुआ तो यही समझूँगी कि अपने पिता की भाँति आप मेरी भी हत्या करना चाहते हैं। क्योंकि अब हमारे आमने-सामने मिलने का कोई कारण नहीं। जब माता-पिता के संबंधों के विभ्रम में पड़े थे अथवा गड़ा हुआ ख़ज़ाना ढूँढ रहे थे तब तो मुझसे कुछ पूछने आए नहीं, तो अब मिलकर क्या होगा ! यदि आप क्षमा भी माँगें तो वह मैं किस मुँह से दे पाऊँगी? 

जो बातें मैंने कही हैं उनकी तनिक सी भी छान-बीन करा लेंगे तो आपको स्वयं स्पष्ट हो जाएगा कि मिगार ने कैसे झूठे साक्ष्यों से आपको दिग्भ्रमित कर दिया। आश्चर्य तो यह कि आप कितनी आसानी से उसकी बातों में आ गए !  तथापि शुभमस्तु।

इति

मुद्रा –  राजमाता सुमनवल्लरी

रानी माँ के उस पत्र से मेरा हृदय छलनी हो गया। मेरा पूरा अस्तित्व ही मानो दो भागों में विखंडित हो गया – उनमें से एक दिनभर राजकाज में लगा जी-तोड़ परिश्रम करता कि सुशासन के योग्य समझा जाऊँ, और दूसरा, संध्या होते ही पश्चाताप की ज्वाला से ग्रस्त स्वयं को मदिरा में डुबाने लग जाता। अंततः मत्त होकर सौंदर्या के अंक में पड़ रहता, निद्रा में भी दु:स्वप्नों से घिरा।

बहुधा सभासदों की बैठक में भी अकस्मात् ध्यान भटक जाता, शून्य को ताकता हुआ बुदबुदाने लगता – लगा दो… वह भी लगा दो …सदा के लिए खड़े देखते रहेंगे सूर्योदय… फिर तंद्रा टूटते ही लगता कि कर क्या रहा हूँ यह ! कई बार दर्शनी मंडप पर हाथ उठाता हूँ तो मुख पर उल्लास का भाव ही नहीं आता …सायास मुस्कुराता हूँ। जय-घोष होता है …कश्यप महाराज की जय हो …जय हो किंतु लगता है जैसे वह भी मेरी  मुस्कान की भाँति बनावटी है।

पितृ-राजन की हत्या के पश्चाताप से कुछ देर को यदि छूट भी जाता हूँ तो मोगल्लान या मिगार, अथवा उन दोनों के वापस लौटने की आशंकाओं से मन विचलित हो उठता है। कहाँ है मोगल्लान, क्या कर रहा होगा, कब कितनी सेना लेकर आएगा मुझे ढूँढता हुआ? क्या ऐसा भयंकर आक्रमण होगा कि अनुराधापुर की प्राचीर मिट्टी की दीवार की भाँति भहरा कर गिर पड़ेगी, प्रासाद परिसर रौंद दिया जाएगा? अचानक अरलिया परिसर की गुप्त कारा में असहाय धातुसेना महाराज का चित्र खिंचा चला आता है आँखों में ….बहुत प्यास लगी है …थोड़ा पानी मिलेगा…

मिगार के जाने के बाद तीन-चार सप्ताहों तक गुप्तचर यही समाचार लाते रहे कि वह शत्रुओं पर भारी पड़ रहा है। पहरों बिस्तर पर पड़ा सोचता रहता  – यदि वह लौटने का प्रयास करेगा, तब मैं क्या करूँगा? क्या शिविर के सैनिक मेरा कहा मान कर उसका विरोध करेंगे? आठवें सप्ताह का गुप्तचर वैसा ही कुछ समाचार लाया था – मिगार चारों ओर से घिर गया है, बहुत संभव अनुराधापुर लौटने का प्रयास करे। मंत्रणा हुई; महामात्य और प्रतिरक्षण अमात्य एकमत थे, उसे रोकना होगा, महाराज की आज्ञा हो तो कुछ सेना कुमार शिलाकाल की सहायता को दक्षिण भेजी जाए। …मैं कई पहरों तक ऊहापोह में पड़ा रहा। संध्याकाल सौंदर्या दृढ़तापूर्वक फुसफुसाई – इतना क्या सोचना महाराज? सेना भेजिए तत्काल। मोगल्लान तो जब आएगा तब आएगा, अभी तात्कालिक संकट तो मिगार के वापस लौट आने का है।… तब कहीं वह अतिरिक्त सैन्य बल भेजा मैंने।

तीन माह बाद सूचना आई कि मिगार खदेड़ा जा चुका। प्राण बचाकर संभवतः जंबूद्वीप भाग गया। …फिर मुझे यह भय सताने लगा कि विजयी शिलाकाल ही न कहीं अनुराधापुर पर चढ़ आए, और कहीं वह दक्षिण से और उसी समय मोगल्लान उत्तर से एक साथ आ गए, तब क्या होगा?

किंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं – दक्षिण को भेजी गई सेना वापस लौट आई और शिलाकाल रुहुन में ही कहीं छिप गया। ….कई दिनों तक सोचता भी रहा – क्या शिलाकाल को ढूँढ कर समाप्त कर देना चाहिए। मोगल्लान का समर्थक है। किंतु रानी माँ के पत्र का स्मरण आ गया – आपका प्रायश्चित यही है कि अनुराधापुर को सुशासन दें।

इस बीच महाविहार में संघस्थविर से भेंट कर उनके चरण स्पर्श कर आया हूँ। समय माँगने पर उप-संघस्थविर कौस्तुभ स्वयं आकर कह गए – प्रातःकाल का सामूहिक प्रार्थना-सत्र सूर्योदय के दो पहरों के बाद और सायंकाल का मध्याह्न के तीन पहर बाद होता है, मुनि संघस्थविर की निजी उपस्थिति में। आप अपनी सुविधा अनुसार किसी भी दिन आ सकते हैं। मैं कहता हूँ – कल सायंकाल आऊँगा।

दूसरे दिन महाविहार के द्वार पर किसी प्रकार के औपचारिक स्वागत अथवा सजावट के कोई चिह्न नहीं दिखाई देते – केवल उप-संघस्थविर प्रतीक्षा में खड़े हैं। मुझे आने में कुछ विलम्ब हो गया; सामूहिक प्रार्थना समय पर प्रारंभ हो चुकी है; किन्तु कौस्तुभ कहते हैं, ‘आपका स्वागत है, राजन्।’

मुख्य प्रार्थना कक्ष विशाल है – द्वार के दोनों ओर गेरुआ वस्त्र में लगभग एक  हज़ार भिक्षुगण क़ालीन पर पालथी मारकर बैठे हुए हैं – गेरुआ रंग के समुद्र में सैकड़ों छिले हुए सिर, पंक्तिबद्ध; बीच में चलने को रास्ता है जिसके दूसरे छोर पर संघस्थविर हाथ जोड़े पाठ कर रहे हैं। मुझे देखते ही एक हाथ से पहली पंक्ति की ओर इंगित करते हैं। समवेत पाठ से प्रार्थना कक्ष गुंजायमान है। मैं प्रणाम करता हुआ मंच के नीचे बैठ जाता हूँ।

…मन ही मन कुछ खिन्न हो उठा हूँ। समय पर पहुँचता तो क्या जाने संघस्थविर स्वयं द्वार पर लेने आए होते; संभवत: आकर लौट गए हों …मुझे ही आने में देर हो गई क्योंकि महाविहार के लिए रवाना हो ही रहा था कि लगा अब लेश-मात्र विलम्ब भी असह्य है, तत्काल प्रासाद प्रबंधक को बुलवाकर अरलिया सभागार के बारे में निर्देश देने लगा। और वह था, कि मेरी बात सुनकर अवाक् मुझे देखे ही जा रहा था। फिर मैंने कठोरता से कहा – समझ में नहीं आया कि मैंने क्या कहा ! अब मेरा मुँह क्या देख रहे हो तत्काल कार्रवाई आरंभ करो। … उस सब में और विलंब हो गया।

… प्रार्थना समाप्त होने वाली है। संघस्थविर खड़े हो गए हैं; एक हाथ में काँसे के पात्र से जल अंजलि में ले-लेकर अभिषेक सिंचन कर रहे हैं। पवित्र जल की एक फुहार-सी मेरे मुकुट पर से होती हुई मस्तक पर टघर आती है। वे मुड़कर चलें उससे पहले बढ़कर उनके चरण स्पर्श करता हूँ – ‘सुखी दिग्घायाकु भव’।

आशीर्वाद देकर वे चल पड़ते हैं। मैं कौस्तुभ की ओर तात्कालिकता से फुसफुसाता हूँ – ‘मुझे मुनि संघस्थविर से एकांत में बात करनी है।’

‘उसके लिए अलग से अनुमति लेनी होगी, महाराज …मैं पूछ कर सूचित करवा दूँगा।’ संघस्थविर पिछले द्वार से बाहर जा चुके हैं।

मैं कुछ क्षुब्ध-सा मुड़कर चल पड़ता हूँ; उप-संघस्थविर द्वार तक विदा करने साथ आ रहे हैं। मुझे लगता है जैसे मेरी पीठ में एक सहस्त्र जोड़ी आँखें चुभ रही हैं – मैं मुड़कर देखना तो चाहता हूँ कि भिक्षुगण मुझे जाते हुए देख रहे हैं अथवा नहीं, पर नहीं देखता। चलते हुए अनुभव होता है जैसे पैरों में भारी पत्थर बँधे हों।

प्रासाद परिसर में प्रवेश करते ही देखता हूँ उद्यान के पार अरलिया परिसर पर श्रमिक काम शुरू कर चुके हैं।

एक तो उस राजखंड में रहने ही से मुझे वितृष्णा होने लगी थी। अग्र-कक्ष में प्रवेश करते हुए अक्सर सुदाथ का कटा हुआ सिर आँखों में कौंध जाता है , जैसे अभी तक वहीं पड़ा हो; फिर वह द्वार जिसे मिगार ने ठोकर मार कर खोला था – शयन कक्ष में प्रवेश करने पर पितृ-राजन के विस्तारित नेत्र स्मृति पटल पर उभर आते हैं …क्या बात है मिगार? क्या कोई आक्रमण हुआ है?

जिस बैठक में संध्याकाल मैं और सौंदर्या बैठते हैं, वहाँ के झरोखे से पश्चिमी उद्यान में अरलिया परिसर दिखाई देता है; कुंज के पीछे से झाँकता सभागार भवन, कमल पुष्पों से भरा हुआ कमल कुंड। वह पूरा परिसर उन तीन दिनों की भयावह स्मृतियों से मेरे मस्तिष्क को मथने लगता था। …आज सहसा मुझे और घड़ी-भर का विलंब भी सहन न हुआ। …मैंने उसे पूरी तरह ध्वस्त कर कमल कुंड को भर देने के निर्देश दे दिए हैं; कार्य प्रारंभ हो गया है आज देर रात तक पूरा हो जाएगा।


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