स्वीकृति और अस्वीकृति के द्वंद्व की कथा

मित्र को भेजें

अनिल अविश्रांत

युद्ध में राजवंशों के जय-पराजय के रक्तिम वृतान्तों  के बीच इतिहास के ध्वांशेषों में कई बार बहुत सुन्दर प्रेम कथाओं की भी झलक मिलती है। इतिहास चाहे इन्हें महत्व न दे लेकिन जब एक साहित्यकार की दृष्टि इन पर पड़ती है तो ‘राजनटनी’ जैसी रचना जन्म लेती है।

गीताश्री ने बारहवीं सदी के उथल-पुथल भरे दौर में बंग राजा बल्लाल सेन के मिथिला पर आक्रमण की घटना की पृष्ठभूमि में धड़क रही एक प्रेम गाथा को अपना उपजीव्य बनाया है। राजा बल्लाल सेन और मिथिला की राजनटनी मीनाक्षी की यह गाथा केवल एक प्रेम कथा भर नहीं है, बल्कि इसमें विस्थापन के दर्द, कला की सामाजिक स्वीकृति और अस्वीकृति के द्वन्द्व, नये राज-समाजों में पहचान के संकट और निष्ठा की नित नई परीक्षाओं से गुजरने के दु:ख भी हैं। इतिहास में युद्धों के अनेक कारण मौजूद रहे हैं। सामान्य तौर पर मध्यकाल में वंशीय कुलीनता, भूमि/राज्य विस्तार और सुन्दर स्त्रियाँ इन कारणों के मूल में रही हैं। लेकिन बल्लाल का मिथिला पर आक्रमण ज्ञान के अपहरण का नायाब उदाहरण है।

मिथिला जिसकी पहचान वहाँ की समृद्ध ज्ञान परम्परा से है। यह माछ और मखान की ही धरती नहीं है बल्कि पोथियों,पांडुलिपियों और पुस्तकों की भूमि है। बल्लाल सेन चाहता है कि इन पोथियों-पुस्तकों को ऐन-केन प्रकारेण प्राप्त कर लिया जाये। इसके लिए हिंसा का सहारा भी लेना पड़े तो जायज है।

हालाँकि इतिहास में इसके कुछ और भी उदाहरण मिलते हैं जहाँ आक्रमणकारियों ने पराजितों से धन-सम्पदा ही नहीं लूटी बल्कि पोथियां भी लूट कर ले गये। हालाँकि यह भी सच है कि विजेताओं ने पोथियों को लूटा और जलाया ही अधिक है, उससे अपनी दृष्टि को उन्नत कम ही किया है।

मीना मिथिला की नटनी है, जिसके पूर्वज राजस्थान की मरुभूमि से आये थे। जल की चाह उसके पूर्वजों को मिथिला के जलाशयों के किनारे ठहरने को विवश कर देती है। गीताश्री ने मिथिला की प्राकृतिक सुषमा को तमाम सन्दर्भों में गूंथकर प्रस्तुत किया है। उपन्यास पढ़ते हुए नदी का उद्दाम वेग, जलाशयों की लहराती जलराशि, मछलियों की नाना किस्में और ताल से मखान छानते मैथिल किसानों की छवियां बार-बार दीप्त होती हैं। लेखिका ने मिथिला के लोक-गीतों की पंक्तियों को उद्धृत करके मिथिला के सांस्कृतिक परिवेश को समग्रता मे पेश किया है। पूरे उपन्यास में सीता की उपस्थिति द्रष्टव्य है। उसके दुख और विवशता के बरक्स मीना का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करता है। वह स्वतंत्रजीवी है। नटनी मीना कथित वर्णव्यवस्था से बाहर की स्त्री है। उल्लेखनीय है कि मिथिला का समाज उसे स्वीकार करता है। क्या यह मिथिला के समाज का परिमार्जन है? उसका प्रतिनिधि स्त्री पात्र अब सीता ही नहीं मीना भी है, जिसके अंदर गार्गी की परम्परा से जुड़ने की ललक है। नटनी होकर भी वह चाहती है कि संस्कृत साहित्य का अध्ययन करके वह मिथिला की ज्ञान-परम्परा से जुड़ती है लेकिन अपनी परम्परागत पहचान का विलोपन उसे स्वीकार नहीं है। वह नटनी है, कथित रूप से नीच समुदाय की एक स्त्री सौमित्रा मिसिर जैसों के लिए ही चुनौती नहीं है बल्कि खुद अपने प्रेमी बल्लाल सेन के लिए भी एक बड़ी चुनौती है, जो सिंहासनारूढ़ होते ही मनुवादी व्यवस्था को पूरी ताकत से स्थापित करने के लिए संकल्पबद्ध है। बौद्ध उसके पहले शिकार हैं। वह बड़ी क्रूरता से बौद्ध भिक्षुओं की न केवल हत्या करता है बल्कि उनके विहार और मठों को भी नष्ट कर डालता है। आश्चर्य है कि यहाँ उसका पोथी प्रेम नहीं दिखता। क्या वह सेलेक्टिव ज्ञान का हिमायती है? 

यहीं ठहर कर बल्लाल सेन और मीनाक्षी के बीच पनपे प्रेम पर भी बात कर लेनी चाहिए। किताब इसे ‘प्रेम-गाथा’ के रूप में पढ़े जाने की प्रस्तावना करती है। लेकिन मुझे इसे प्रेम कथा मानने में थोड़ी आपत्ति है। कथित नीच जाति की स्त्रियां राजाओं और सामन्तों की कामुकता का सहज शिकार होती रही हैं। इन पर भारत का आभिजात्य वर्ग अपना अधिकार मानता रहा है। इस अधिकार को चुनौती देने वाली स्त्रियाँ यौन हिंसा का शिकार हो जाती हैं। मध्यकालीन समाज व्यवस्था सुन्दर और रूपवान स्त्री को राजा की रक्षिता बन जाने के लिए अनुकूलित करती है। यह सब प्रेम के नाम पर होता है। जबकि इन्हें कभी बराबर अधिकार नहीं मिलते। वे प्रेम कथाओं की पात्र भले बन जायें लेकिन इतिहास में उनकी हिस्सेदारी शून्य ही रहती है। अच्छा है कि बल्लाल सेन के प्रति समर्पित होने के बावजूद मीना प्रेम पर सवाल उठाती है-‘यदि प्रेम करते तो सीधे क्यों नहीं आये। तुम्हारे लिए राज्य और पोथियां ज्यादा जरूरी हैं, मीनाक्षी नहीं। यह कैसा प्रेम है?’

मीना खुद को समाप्त करके न केवल राज्य की स्वतंत्रता की रक्षा करती है बल्कि पोथियों को बचाकर ज्ञानवान मिथिला की पहचान को अक्षुण्ण रखती है। लेखिका देश और राष्ट्र को लेकर थोड़ा भावुक हुईं हैं लेकिन यह कथित राष्ट्र कमजोर, वंचितों और स्त्री के बलिदान पर टिका है इसपर थोड़ा और रौशनी की दरकार है। मीना राष्ट्रवाद के पितृसत्तात्मक चरित्र के छल को समझ नहीं पाती। कथित तौर पर ‘अन्य’ की पीड़ा भी उसे बार-बार परीक्षा की वेदी पर ले जाती है। उसे मिथिलावासियों के बरक्स अपनी देशभक्ति प्रमाणित करनी पड़ती है और उसका मूल्य उसके जीवन का बलिदान है। वर्चस्ववादी संस्थाएं इन बलिदानों पर ही फल-फूल रही हैं।


राजनटनी (उपन्यास) : गीताश्री, मूल्य : 225 रुपये, राजपाल एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली।


अनिल अविश्रांत : ने ’20वीं शताब्दी के हिन्दी उपन्यासों में किसान संघर्ष’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है. एक काव्य संग्रह ‘चुप्पी के खिलाफ़’ प्रकाशित। शिक्षा, साहित्य और सिनेमा विषय में उनकी गहरी अभिरुचि है. उनके कई लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं. आधार पाठक मंच की ओर से वर्ष 2017 का श्रेष्ठ पाठक सम्मान और वर्ष 2019 में साहित्य लोक कौमी एकता सम्मान प्राप्त हो चुका है।


मित्र को भेजें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *