बालमुकुन्द
आज के इस दौर में, जब एक नाट्य विधा के रूप में नुक्कड़ नाटकों की धार कमजोर हुई है, नुक्कड़ नाटकों के मसीहा सफ़दर हाश्मी को याद करना महज अपनी स्मृति को खंगालना या अपने नायकों के यशोगान की रस्मअदायगी भर नहीं है। यह प्रतिरोध की संस्कृति और उसकी ताकत को फिर से रेखांकित करने का एक जरूरी प्रयत्न है। इस दृष्टि से सफ़दर हाश्मी के अत्यंत करीबी रहे रंगकर्मी सुधन्वा देशपांडे की किताब ‘हल्ला बोलः सफ़दर हाश्मी की मौत और ज़िंदगी’ बेहद महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। किताब मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई है, जिसका हिंदी अनुवाद वाम प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
किताब की शुरुआत में प्रख्यात चिंतक एज़ाज अहमद के इस वक्तव्य पर नज़र ठहरती है, ‘आपस में कस कर गुंथे गए कई नैरेटिव्ज़ को लेकर हल्ला बोल तेजी से आगे बढ़ती है। ये सफ़दर हाश्मी का एक चमकदार शब्दचित्र है। यह किताब सांस्कृतिक व्यवहार और मजदूर वर्गीय राजनीति के अंतर्संबंधों के बारे में है, और उस अंतर्संबंधों, उन चौराहों पर जी गई जिंदगियों का रोज़नामचा है। अलग-अलग नाटकों के बनने-बदलने के विवरणों, नुक्कड़ों,चौराहों, पार्कों में उनके मंचन के ब्यौरों से सजी इस किताब का कोमल, बहते पानी जैसा गद्य भी एक सुघड़ नाटक जैसा लगता है। एक दिलकश किताब!’ यह वक्तव्य इस किताब के बारे में बहुत कुछ कह देता है।
दरअसल आज जिन नुक्कड़ नाटकों को आप सरकारी विज्ञापन या एनजीओ आदि के प्रचार प्रसार का विकल्प और स्वच्छता, पर्यावरण आदि के प्रति जागरूक करने के माध्यम के रूप में देखते हैं, वह कभी जनसाधारण की तकलीफों, हौसलों, उम्मीदों और संघर्षों का जीता-जागता दस्तावेज हुआ करता था। और यह बस इतना भर ही नहीं था, इसने लोगों को जागरूक किया, उनके अधिकार याद दिलाए, आवाज बुलंद करना सिखाया या यूं कहें कि असल मायने में सीना तानकर जीना सिखलाया। इन नाटकों को न सिर्फ हज़ारों की संख्या में दर्शक मिला करते थे, अपितु हज़ारों की संख्या में इनके शो भी हुआ करते थे, जो आज भी मुख्यधारा के नाटकों के लिए महज कल्पना भर है। सफ़दर इसके प्रतीक पुरुष हैं। उन्होंने इसे नई ऊंचाई दी, नई उड़ान दी, नई आवाज दी, नई धार दी।
सफ़दर हाश्मी मानते थे कि रंगकर्म मूलतः एक राजनातिक काम है। उनके जीवन का मकसद मजदूरों को चेतनासंपन्न बनाना था ताकि वे अपने हक और नए समाज के निर्माण के लिए लड़ सकें। यह तभी संभव था जब मजदूरों की सांस्कृतिक अभिरुचियों का उन्नयन हो। इसके लिए सफ़दर ने नुक्कड़ नाटकों को माध्यम के रूप में चुना था।
इसे चुनने के पीछे उनकी मान्यता यह थी कि यह एक सस्ती और सरल विधा है जो मजदूरों के बीच आसानी से पहुंचाई जा सकती है। सफदर ने ‘जन नाट्य मंच’ के जरिए नुक्कड़ नाटकों को वैकल्पिक रंगमंच का रूप दिया और इसे आम जनता की आशाओं-आकांक्षाओं से जोड़ दिया।उन्होंने नुक्कड़ नाटक को रंग-संसार में एक नए, मजबूत और अधिक प्रभावी माध्यम के रूप में खड़ा कर दिया। वे इसी के लिए जिए और एक दिन इसी के लिए अपनी जान दे दी। उनका मानना था कि नुक्कड़ नाटकों को अनिवार्यतः शोषित-पीड़ित जनता के सुख-दुख को व्यक्त करना चाहिए और मुश्किलों से उबरने का रास्ता भी सुझाना चाहिए।सफ़दर नुक्कड़ नाटकों को एक उत्कर्ष तक इसलिए ले जा सके कि उन्होंने विभिन्न कलाओं को बारीकी से समझा और उन्हें नुक्कड़ शैली में पिरोया। उन्होंने अभिनय किया,निर्देशन किया, नाटक लिखे, गीत लिखे, दूरदर्शन के लिए धारावाहिक लिखे, बच्चों के लिए साहित्य रचा। मार्क्सवाद ने उन्हें वैचारिक ताकत दी थी और वह दृष्टि भी, जिससे वह समाज के कमजोर वर्ग के जीवन की गहराइयों में झांक सके।
सफ़दर मजदूरों से लगातार संवाद बनाए रखते थे, उनके रोजमर्रा जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश करते थे और उसके आधार पर ही नाटक तैयार करते थे। इससे धीरे-धीरे नुक्कड़ नाटक श्रमिकों के संघर्ष का एक अभिन्न हिस्सा बन गए और उद्योगों के मालिकों को खटकने लगे।मजदूरों की ताकत को कुचलने और उनमें खौफ पैदा करने की गरज से ही साहिबाबाद में गुंडों ने एक जनवरी 1989 को नाटक ‘हल्ला बोल’ के प्रदर्शन के दौरान जन नाट्य मंच के कलाकारों पर हमला किया जिसमें सफ़दर की मौत हो गई। लेकिन उनकी शहादत ने देश भर में नुक्कड़ नाटकों की एक लहर पैदा कर दी जो कमोबेश अगले एक दशक तक कायम रही।
यह किताब फ़्लैशबैक पद्धति में लिखी गई है। यह अतीत से शुरू होती है, जिसमें 1 जनवरी 1989 को नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला-बोल’ के प्रदर्शन के दौरान साहिबाबाद में भारी संख्या में गुंडों द्वारा हुए हमले में सफ़दर की जान चली जाती है। फिर बाद में यह किताब सफ़दर के अतीत से लेकर उनका जीवन, जनम से उनका जुड़ाव और फिर जनम की अनवरत यात्रा, नुक्कड़ नाटक का कंसेप्ट और इतिहास को बताते हुए आगे बढ़ती है। कहना न होगा कि यह किताब सफ़दर की जीवनी नहीं है, बावजूद इसके उनके जीवन और व्यक्तित्व के कई महत्वपूर्ण प्रसंग इस पुस्तक में आए हैं, जिससे सफ़दर के जीवन और उनके विचार के बारे में काफी हद तक जाना-समझा जा सकता है। सुधन्वा सफ़दर की नाट्य यात्रा और संघर्ष के साथी रहे हैंऔर प्रतिरोध की इस नाट्ययात्रा की कहानी उन्होंने जिस अंदाज में कही है, वहप्रभावित करती है। यह किताब उन्होंने अंग्रेजी में लिखी है, जिसे योगेंद्र दत्त ने हिंदी में अनूदित किया है, और यह काम उन्होंने इतना सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा में किया है जिसे पढ़ते हुए यह कतई नहीं लगता कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं। यह किताब पढ़ते हुए कई चीजें स्मृति में दर्ज़ हो जाती हैं इसके साथ ही ये हमारे भीतर साहस और उम्मीद की लौ भी जलाती है।
इस किताब में जन नाट्य मंच का चर्चित नाटक हल्ला बोल भी संकलित किया गया है, जिसके प्रदर्शन के दौरान जन नाट्य मंच की टीम पर हमला हुआ और उसमें सफ़दर की जान चली गई। इस तरह यह किताब अपनी विरासत से परिचित कराने के साथ भविष्य के लिए रोशनी भी देती है।
हल्ला बोलः सफ़दर हाश्मी की मौत और जिंदगी : सुधन्वा देशपांडे, अनुवादः योगेंद्र दत्त। प्रकाशक : वाम प्रकाशन, दिल्ली। मूल्य : 325 रुपये, पृष्ठ संख्या : 273
बालमुकुन्द : मूलतः कवि। हिंदी और मैथिली दोनों में समान रुचि और गति से नियमित लेखन। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित-प्रशंसित। मैथिली में लघुकथाओं का एक साझा संकलन प्रकाशित। इसके अतिरिक्त कई पत्रिकाओं का सम्पादन। समस्तीपुर, बिहार में निवास।
ई-मेल : mukund787@gmail.com