ज्योति चावला
यह कहानी एक मुसीबत से शुरू होती है या फिर कहिए एक जिम्मेदारी से। अभी ढूंढने निकली हूं एक लडकी को जो गायब है पिछले कुछ दिनों से। जिसे किसी ने नहीं देखा है इन बीते कुछ दिनों में और घरवालों का दावा यह कि कल तक तो वह यहीं थी। कल रात का खाना उसी ने बनाया। न जाने कहां खोई रहती है कि चूल्हे पर बैठी रहेगी और तरकारी जल जाएगी। कल भी वही हुआ। बडे शौक से सहजन तोडकर लाई थी चाची। मेरी चाची यानी उसकी सास। एकदम कच्ची कि चाव से खाता है छुटका पोता मन्नू और देखो उस नसपिटी को! फिर झौंक दी तरकारी। इसी बात पर डांटा था कि अब सुबह से गायब है।
एक लडकी जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा है।
पर पडोस की कामेसरी चाची तो कुछ और ही कह रही थी। उनका कहना है कि जितिया के बाद किसी ने नहीं देखा उसे। लगभग तीन महीने बीत चले जितिया को और खबर आज उड़ी कि लछिया गायब है।
मेरा लछिया से पुराना परिचय है। जब से उसकी शादी हुई तबसे। यानी जबसे वह इस गांव में ब्याह कर आई थी तबसे। मैंने लछिया को कभी नहीं देखा है फिर भी मेरा उससे परिचय है।
लछिया जब उस गांव में ब्याह कर आई थी तब उसकी उम्र कुल तेरह साल थी। तेरह साल की उम्र थी जब उसकी मां ने उसके हाथ से स्कूल का बस्ता छीनकर उसे कोह्वर में बैठा दिया था। तेरह साल की लछिया सुबकती-रोती लाल चुनरी में लिपटी कोह्वर में बैठी थी और उसके साथ बैठा था पंद्रह-सोलह बरस का उसका वर। दोनों ही शादी-ब्याह की जिम्मेदारियों से अनजान थे। लेकिन प्रभात जहां खुश था और चहक रहा था, वहीं लछिया डरी-सहमी चुपचाप बैठी थी।
प्रभात ने पिछले कुछ दिनों में ही अपने भीतर कुछ परिवर्तन महसूस किया था। सोए-सोए उसके मन में कुछ ख्वाब पलते, कुछ बेचैनी होती। और प्रभात की मानें तो उसका मन करता कि वह अपनी बांहों में किसी को दबोच ले और उसे मसल कर रख दे। वह कई बार नींद से जगता और पसीना पसीना हो जाता। यह क्या है, पूछा था उसने अपने दोस्तों से। उसकी इस जिज्ञासा को शांत किया उसकी टोली ने जिसने उसके मनोभावों को पढ़कर यह खबर कानों-कानों में एक-दूसरे के बीच आम कर दी कि प्रभात अब जवान हो गया है। जिस दिन से उसके जवान होने की घोषणा हुई ठीक उसी दिन से प्रभात अपने चेहरे पर मूंछ और दाढ़ी को खोजने लगा। उसे लगा कि अब वह जवान हो गया है तो मूंछ और दाढ़ी आना तो अनिवार्य है। उसकी टोली उसे उसके जवान होने का एहसास करवाने कभी पेड़ के पीछे ले जाती तो कभी खेत-खलिहान में उसे उसकी असली ताकत का एहसास करवाने का उपक्रम होता। उससे बडी उम्र के लडके उससे अपनी उम्र के अनुभव सांझा करते और वह इस गर्व से भर जाता कि वह भी अब मर्द बन गया है। अब वह तनकर चलने लगा था और गांव की जवान हो रही लड़कियों का पूरा हिसाब-किताब रखता था।
उधर लछिया अपनी तेरह बरस की उम्र में केवल लुका-छिपी के खेल, अचार के अलग-अलग स्वाद और देर तक सोने और देर हो जाने पर मां की डांट और पिता की डरावनी आंखों से परिचित थी। अपने शरीर का गणित न वह समझती थी और न उसकी सहेलियां। उन्हें तो बस बात-बात पर मुंह दबाकर हंसना आता था। हां, अभी कुछ दिन पहले ही उसने मां को बताया था कि न जाने कैसे उसकी सफेद कुर्ती पर दाग पड गया था और यह कि यह दाग देखकर सीतला चाची ने उसे जोर से घुडका था, जा भाग अपनी माय के पास, निर्लज्ज! वह समझ नहीं पाई थी कि सीतला चाची ने क्यूं डांटा उसे। मां ने बैठाकर समझाया था कि उसकी कुर्ती पर दाग पड गया इसलिए चाची ने डांटा। पर उसमें हमारा क्या दोस! हमने क्या किया!
लछिया यह तो नहीं समझ पाई कि चाची ने उसे क्यों डांटा पर हां उस दिन जो हुआ उसने थोडी बेचैनी जरूर पैदा कर दी उसमें कि उसके कपड़े उस दिन गंदे क्यों हो गए। बडी हिम्मत करके उसने अपनी सहेली जो उससे दो साल बडी थी उससे पूछा तो पता चला कि बारह बरस की उमर के बाद सब लडकियों को ऐसा होता है। अब तो यह सवाल उसे और हैरान करने वाला था कि अगर सबके साथ ऐसा होता है तो चाची ने उसे क्यों डांटा।

बिहार के सीवान जिले में नरेन्द्रपुर स्थित ‘परिवर्तन’ संस्थान द्वारा आयोजित ‘कथा-शिविर’ में शामिल रचनाकार।
खैर, एक-दो दिन में चाची की डांट तो वह भूल गई लेकिन एक बात जो उसे रह-रहकर चिंता में डाल रही थी। वही जो उसकी सहेली बीना ने उसे बताई थी, अब तो यह हर बार होगा। हर बार मतलब\ अरी, हर बार मतलब हर महीने इसी तारीख को। यूं ही…। यह तारीख कहीं लिखकर रख ले लछिया। कहते हुए उसके चेहरे पर भी मायूसी आ गई थीं। तबसे ही लछिया परेशाान रहने लगी थी। परेशान सिर्फ इसलिए ही नहीं कि अब हर महीने ऐसा होगा। इसलिए भी कि मां अब उसे अचार छूने से रोकने लगी थी, अचार की बर्नी से दूर रह री लछिया। छुआय देई त समूच्चे अचार कूड़ा होइ जाइ।
उन दिनों न उसे अचार छूने की इजाजत थी और न खाने की। मां का मानना था कि अचार खाने से लडकी जल्दी जवान हो जाती है। जवान होने का मतलब तो समझ रहे हैं न आप। हालांकि लछिया ने न अचार छूने की आदत छोडी और न खाने की। हां, अचार कुतरते हुए एक अपराधबोध हमेशा भरा रहने लगा था उसमें।
आज लछिया और प्रभात कोह्वर पर बैठे हैं। दीवार पर कोह्वर सजाया गया है। रंगो से भरा। दोनों का नाम लिखा है उस पर- प्रभात संग लछिया। साथ ही लिखा है बांध लो मन को इस बंधन में, रस्म नहीं दस्तूर है यह। कौन मिटा सकता है इसको, रंग नहीं सिंदूर है यह। दोनों का ब्याह हुआ है, घर में आने-जाने वालों का मेला लगा हुआ है। सबने चुमांउन दिया, लछिया की झोली में और सरकारी नियम को अनदेखा कर आते बरस तक उसे गोद भरने की नसीहत देकर चली गईं। सरकार का कामे है नियम बनाना। उ का जाने जनाना की देह। ब्याह के तुरंत बाद बुतरू नांय हुआ तो उसकी देह पुरान पड जाती है और एक बार जो देह पुरान पडी कि मरद हाथ से छूट जाता है। यूं भी बेटी-बहू बालक-बुतरू के साथ ही सुहाती हैं, ऐसा कहना था बड़-पुरानी औरतों का। इसलिए सबने लछिया को आते साल बालक खिलाने का आशीर्वाद दिया और लछिया इतनी सीधी और भोली कि सबकी बात को हुक्म मान आते साल तक गोद में बाल खेलानी लगी। अभी पिछले साल तक आंगन में तित्ती खेलने वाली और खाट पर सूख रहे आमठ को नाखून से खरोंचकर और चुराकर भाग जाने वाली लछिया अब बालक खेला रही थी।
2
लछिया की रंगत सांवली थी। कद लगभग पांच फुट। देखने में नन्हीं सी बच्ची लगती थी लछिया जब ब्याह कर लालपुर आई वह। लाल चूनर में गठरी सी सिमटी लछिया को देखकर उसकी सखियां कह ही नहीं सकतीं कि फिरकी सी नाचने वाली लछिया ऐसे सिमटकर भी बैठ सकती है। लेकिन यह लछिया ही थी जिसकी लाल चूनर में से भी उसकी मांग में उड़ेला सिंदूर देखा जा सकता था। लछिया शायद सिंदूर के इसी भार से दबकर सिमट गई थी। जब प्रभात के साथ कमरे में चौकी पर बैठी थी वह तो कांप रही थी उसकी देह। उससे फुलिया ने कह दिया था कि पति बहुत जालिम होता है। देह पर चढ़कर देह ही तोड देता है। वह जो करे उसे कर लेने दे। इनकार किया तो…..। यही डर था शायद जब वह प्रभात के सामने बैठी थी। प्रभात के सामने आज एक स्त्री देह थी जिस पर उसे साबित करना था कि वह मर्द हो गया है। उसने मासूम लछिया को मेमने की तरह दबोचा और अनुभव के अभाव में उस पर हाथ आजमाने लगा। सुबह होते-होते उसे सफलता मिल ही गई जिसका प्रमाण उसकी मुस्कान में देखा जा सकता था। उधर लछिया उस रात के बाद ऐसा सोई कि अगले दिन तक उसे होश नहीं था। किसी ने उसे जगाया नहीं। अगली रात प्रभात के जगाने पर ही वह जगी। भला इतना प्रभात कि उसके लिए उस रात दोना भरकर दूध-जलेबी लाया जिसे पिछले चौबीस घंटों से भूखी लछिया ने मन भर खाया और फिर बेमन से वह प्रभात के सामने हाजिर हो गई।
इस तरह शुरू हुआ प्रभात और लछिया का दाम्पत्य जीवन जिसमें लछिया ने बचपन का चोला बहुत जल्दी ही उतार फेंक दिया। वह अपनी सास के साथ रसोई संभालने लगी, गेंहू फटकने लगी, जानवरों को दाना-पानी देने लगी, आंगन लीपने लगी और रात होते-होते धोती का पल्ला कमर में खोंसकर चुपके से प्रभात के कमरे में जाने लगी। प्रभात रोज रात नए-नए गुर सीखकर आता और लछिया पर आजमाता और लछिया चुपचाप मासूम मेमने सी पड़ी सब बर्दाश्त करती जाती।
प्रभात के हुनर का ही परिणाम था कि लछिया ब्याह के तीसरे माह ही पेट से हो गई। नन्हीं सी लछिया, नन्हीं सी मासूम अंाखें ,उसकी नन्ही-नन्हीं छातियां, और उन नन्हीं छातियों के नीचे धीरे-धीरे बढता जाता पेट। इस थोडे से ही समय में कितने नए अनुभव झेल लिए थे लछिया की देह ने कि अब उसे कोई उत्सुकता नहीं होती थी। पानी की बाल्टी चापाकल से भरती तो सास जोर से झिड़क देती, ‘तनिक आराम से लछिया, नाय तो औरे मुसीबत हो जाई’ और यह कह वह अपनी सुपारी कुतरने लगती। अब लछिया की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी। घर का काम, सास की सेवा, पति की इच्छा पूर्ति के साथ अब उसे अपनी देह पर बढ़ते जा रहे पेट का भी ध्यान रखना था।
3
गाँव ऐसा कोई नहीं होगा जो प्रभात के पिता को जानता न हो। बड़ा नाम था उनका। और यह नाम कोई धन-संपत्ति इकट्ठा करके नहीं कमाया था उन्होंने बल्कि अपने चालाक दिमाग से कमाया था। पूरे गांव में भोला भगत के नाम से जाने जाते थे। यू ंतो उनका असली नाम रामावतार था लेकिन भोलेबाबा की भक्ति के चलते गांववाले उन्हें भोला भगत ही पुकारते थे। उनका एक ही धंधा था- पूरे साल जुगाड़ कर-करके भगवान भोलेनाथ के नाम से भजन-कीर्तन करवाते रहना या फिर बहाने-बहाने से देवघर की यात्रा करना। भोले के नाम का भंडारा करवाना, शिवरात्रि पर झांकी निकालना, कीर्तन करवाना और इसी तरह के न जाने कितने उपक्रम। वे भोलेनाथ के इतने बडे भक्त थे कि दिन रात भोलाबाबा का नाम जपते रहते। यूं तो कहने को उनकी बाजार में एक दुकान भी थी- मोटरपार्ट्स की लेकिन उसमें न तो अब मोटर दिखती थी न उसके पाटर््स। अब तो वे दिन-रात भोलाबाबा का भजन करते, गंाव भर में पैदल चक्कर काटते और अगली यात्रा की योजना बनाते। उन्हीं की संतान प्रभात जिसकी पढ़ने में बचपन से कोई रुचि नहीं थी, मां के डंाटने पर घर से झोला लेकर निकलता और यारों-दोस्तों के साथ कहीं पोखर-तालाब के किनारे बैठा रहता। कक्षा तीन के बाद न तो वह स्कूल गया और न ही भोला भगत यानी रामावतार यानी प्रभात के पिता ने उसे स्कूल भेजा।
अपनी चौकी पर बैठे हथेली पर खैनी रगड़ते भोला भगत थोडी आंखें मिचकाते हुए कहते अरे भाई नहीं है उसका मन तो काहे जोर जबर्दस्ती करते हैं। बडे-बुजुर्ग कहे हैं कि मनुष्य को अपने मन की सुननी चाहिए। प्रभात नहीं पढ़ना चाहता है तो काहे बच्चा के गोड-हाथ तोडें। जा मुन्ना। कहकर वे उसे शेखी देते रहते। ऐसा बोलते हुए उनके होंठों के दोनों तरफ थूक जमा हो जाता जिसे वे खैनी मुंह में रखने से ऐन पहले सुर्र की आवाज़ के साथ घोंट जाते।
प्रभात की मां के पूछने पर कि और बडा होकर क्या करेगा, उनका जवाब होता, वही जो उसके बाबा ने किया, उसके बाप ने किया।
जिस गंदगी में खुद सारी जिंदगी मुंह मारते रहे वही नसीब में लिख दई हो हमारे बेटा के भी। काफी इज्जत-प्रतिष्ठा जो थी तोरे बाप की पूरे गांव में। शराब की थैली पैक करता करता वही थैली पीकर मर गया बुड्ढा।
और उसके बाद भोला भगत के लात-घूंसोें की आवाज आती और प्रभात की मां की गे माई गे बचाओ रे । यह प्रभात के घर की रोज की कहानी थी। यह सब करने के बाद भोला भगत यानी रामावतार बडे ही शांत मन से बाहर की चौकी पर बैठ हथेली पर खैनी रगड़ते हुए भोला बाबा के भजन गुनगुनाने लगते और देवघर की अगली यात्रा की योजना बनने लगती।
आए दिन दरवाजे पर बैठक होती जिसमें अगली यात्रा की तैयारी होती। कितनी बसें जाएंगी, कहां भोजन होगा, कहां से सामान आएगा इत्यादि इत्यादि। दरअसल यही सब उनकी कमाई का धंधा था। इसी में चंदा इकट्ठा करते जिसमें आंख बचाकर उनका घर खर्च भी निकल जाता। और ज्यों ही पैसा कम पड़ने लगता अगली यात्रा या किसी धार्मिक अनुष्ठान की तैयारी होने लगती।
(4)
लछिया पांच बहनें थीं और कमाने वाले केवल एक पिता। कमाने के नाम पर भी क्या था। बस दो-चार कट्ठा खेत थे जिनके सहारे किसी तरह पेट चल रहा था। पांच बेटियों के बोझ तले दबे लछिया के पिता एक-एक कर बेटियों को ब्याहते चले गए और एक-एक कर भूलते भी। इस क्रम में लछिया पहले नम्बर पर थी। इसीलिए सबसे पहले भुला भी दी गई। लेकिन लछिया ने अपने पिता द्वारा भुलाए जाने वाले इस समय को व्यर्थ नहीं जाने दिया। इस बीच वह दो बेटों की मां बन गई। और उन्नीस-बीस की होते-होते अंगुली थामे उन्हें स्कूल ले जाने लगी। लछिया भी इन सालों में भूल सी गई थी कि वह कहीं और से आई है, कि इससे पहले भी उसका कोई जीवन था। कि उसे अचार खाने या आमठ चुराने का शौक हुआ करता था। अब तो वह अचार बनाना जानने लगी थी, धूप में आमठ सुखाती थी, सुखाकर समेटती थी और इस पूरी प्रक्रिया में शायद ही उसे कभी याद आता था कि इन्हें केवल मन के लिए मुंह में रखा भी जा सकता है। अब वह अचार खाती तो थी पर उसमें कोई उत्साह नहीं था।
इतने बरसों में उसके लम्बे बाल झडकर पूंछ से हो गए थे। ए री लछिया चोटी गूंथ ले। न त बाल झड़ जाए तो कोई ब्याह भी न करेगा तुझसे। मां का बाल संवारने के लिए चिल्लाना भी उसे याद न था अब। अब बाल बचाने भी किसके लिए थे। ब्याह तो हो ही गया था।
लछिया के जीवन में वे दिन तो आए ही नहीं जब लड़कियां अपने रूप को घंटों आइने में निहारती हैं, सजती हैं और खुद पर इतराती हैं।
उधर इन बरसों में प्रभात भी बाइस-तेईस बरस का जवान हो गया था। उसकी मूंछें निकल आईं थीं। सीना थोड़ा चौड़ा हो गया था। और वह दो बेटों का बाप हो गया था। लेकिन लछिया से ठीक उलट उसे इस बात का एहसास तक नहीं था कि वह दो बच्चों का बाप है। घरवालों से लड़-झगड़कर मोटरसाइकिल खरीद ली थी उसने जिसके पेट्रोल के खर्चे की चिंता उसे दिन रात सताती थी। सत्तर के दशक के मिथुन चक्रवर्ती की तरह सीने पर कसी शर्ट, जिसके ऊपर के दो बटन हमेशा खुले ही रहते थे और कसी हुई जींस पहने वह गांव भर में घूमता रहता था। कभी-कभी पिता के कहने पर वह उनके साथ देवघर की यात्रा पर भी चला जाता। पर इस धंधे में उसका मन रम नहीं रहा था। उसका साफ मानना था कि हर पुश्त के साथ काम-धंधा बदलते रहना चाहिए। लेकिन यह बात वह पिता के सामने नहीं कह सकता था।
भोला भगत उससे अक्सर कहते, ‘ए रे बउआ। अब रोजगार संभाल ले। हम बुढ़ारी में कब तक इ सब खेला करते रहेंगे। तहुं कुछ सीख जा। बाबा की शरण में सबै कुछ है रे।’ वे सर्र से होंठों पर जमा थूक को गटकते और मुंह को प्रभात के कान के पास लाकर धीरे से कहते, धंधा बुरा नहीं है। बाबा का ध्यान भी हो जाता है और तनी जेब भी ठीक रहता है।
भोला भगत जब अपना मुंह उसके कान के पास लाते तो प्रभात को बड़ी बास आती उनसे। वह कोशिश करता कि पिता को उसके कान के पास आने का मौका कम से कम मिले। इसलिए वह घर से दिन भर गायब रहता। हां जब मां गेंहू पिसाने के लिए चक्की जाने को बुलाती तो वह आता और मोटरसाइकिल की सीट से बोरा बांधकर फुर्र से गायब हो जाता।
प्रभात को लछिया की देह से खुशबू आती थी। वह दिन भर लछिया से मिलने की कोशिश करता रहता। कई बार तो वह दिन में ही कमरे में लेटा रहता और दोनांे बच्चों को दुत्कार कर बाहर निकाल देता और लछिया को पुकारता। प्रभात की मां उसकी आवाज सुनते ही लछिया के हाथ से बाल्टी ले लेती और उसे कमरे में जाने का इशारा करती। प्रभात की मां की आंखों में उस समय लछिया के लिए दुलार होता।
प्रभात लछिया से अक्सर कहता, तुझे तो मैं जहाज में बैठाकर आसमान के पार ले जाउंगा। वह लछिया को चूमता रहता। वह चूम-चूम कर लछिया की छातियों को गीला कर देता, उसका प्रेम अपने पूरे उफान पर होता, उसके सीने के नीचे दबी लछिया छटपटाती मछली सी तडपती रहती। प्रभात अपने प्रेम के उफान के बाद जब गिरता तो ऐसे पीठ फेर लेता लछिया से जैसे कुछ पल पहले वाला प्रभात ही न हो। लछिया का प्रभात के इस प्रेम से अब तो बरसों पुराना नाता हो गया था। वह भी प्रभात के पीठ फेरते ही अपनी साड़ी लपेटती उठ जाती और उदासीन सी कमरे से बाहर आ जाती ऐसे जैसे रोटी बनाने के बाद चौका समेट कर बाहर आ रही हो।
आमठ और अचार चुराना भूल जाने वाली लछिया इन बरसों में खुद को भी भूल चुकी थी। न उसे आम का बगीचा याद था, न वे सहेलियां जिनके साथ वह घंटों बैठ गुड्डा-गुड़िया का खेल खेला करती थी। उसे तो वह सहेली भी याद नहीं जो खेल-खेल में लछिया का पति बना करती थी और खेल खेल में उसे खूब प्यार करती थी। दरअसल, प्यार शब्द कभी उसकी जिदंगी में आया ही नहीं था। जो आया था वह उतना ही जितनी देर प्रभात उसे अपनी छाती के नीचे दबाए रहता और उसके कान में प्यार शब्द फूंकता रहता। जिस समय प्रभात उसके कानों में प्यार फूंक रहा होता, लछिया को लगता रहता जैसे उसका कान एक पीकदान हो जिसमें प्रभात न जाने कब से थूक रहा है और उसे प्रभात से घिन्न आती रहती। वह दम साधे उन पलों के गुज़र जाने का इंतज़ार करती रहती। प्रभात भी इस पीकदान का इस्तेमाल बहुत देर तक न करता। बस कुछेक मिनट और उसके बाद लछिया पीकदान साथ लिए वहां से चली जाती और पीछे रह जाता प्रभात, बिस्तर पर बेसुध।
यूं ही जिंदगी के कई बरस बीत गए। इस बनी-बनाई दिनचर्या से न प्रभात ऊबा और न ही शायद लछिया। हां, प्रभात के पिता यानी भोला भगत जरूर कुछ आजिज़ आ गए थे प्रभात को समझा-समझा कर, लेकिन प्रभात उनकी बात को अनसुना कर कमरे से बाहर निकल जाता और फिर बाइक की घूं घूं की आवाज़ के साथ कमरे में कुछ मिनट तक सन्नाटा छा जाता। मां, प्रभात और प्रभात के पिता को मन ही मन कोसती-कोसती फिर से सुपारी कुतरने लगती और भोला भगत गमछे से होंठों के किनारे जमा हुए थूक को पोंछते -पोंछते….गुनगुनाते बाहर बैठक में चौकी पर आ बैठते।
घर के दरवाजे पर बनी बैठक घर का सबसे सुकूनदायक हिस्सा था। बडी सी बैठक जिसके ठीक बीचोंबीच बिछी चौकी। दरअसल, दो चौकी को जोड़कर एक बड़ा सा बिस्तर बनाया गया था जिस पर तोशक बिछा रहता था और चार मसनद लगाए भोला भगत बैठक में दिन भर बैठे सुबह से शाम कर दिया करते थे। बडा सा हवादार कमरा, चारों ओर बिना पल्ले की खिड़कियां। मतलब यह कि पल्ले तो थे लेकिन जिन्हें बंद नहीं किया जाता था। पछिया हवा यहां दिन भर कानों में बजती रहती थी। यहीं सारा दिन वे नए-नए मंसूबे बनाया करते, यहीं से देवघर की अगली यात्रा का कार्यक्रम तय होता। यहीं बैठकर उनके जैसे निठल्ले उन्हें दिनभर सलाहें दिया करते। और यहीं बैठकर भोलाभगत लछिया की सास को आवाज़ लगाया करते… ए हौ प्रभात की माय, जरा दुलहिन से कहो चार कप चाय बनावे त। और फिर तय होता कि तीरथ का अगला पड़ाव कौन-सा होगा, कितने लोग जाएंगे। यात्रा पैदल होगी, या बस ठीक की जाएगी उसके लिए। कितना रुपए प्रति यात्री किराया होगा। उसमें भोजन शामिल होगा या नहीं इत्यादि इत्यादि। घर के इस सबसे हवादार कोने में बैठने का हक न लछिया की सास को था और लछिया के लिए तो यह कल्पना से परे ही था।
दिन भर सिर पर पल्लू कसे लछिया चाय, भोजन आदि बनाती रहती और आंखों के सामने-सामने हीे रसोईघर के दरवाजे से शुरू होने वाला जलावन चूल्हे में सिमट जाता। चूल्हे पर बैठी लछिया को दूर से देखो तो लगेगा कि पेट तो है ही नहीं। केवल दो टांगें हैं जो छाती में धंस गई हैं और कपड़ों की एक गठरी है जो सुबह से शाम तक चूल्हे में जलावन ठूंसती रहती है। दो-दो बेटे हैं लछिया के लेकिन मजाल कि जो सारा दिन मां के आस-पास भी फटक जाएं। दादी के पल्लू से बंधे वे दिन भर बदमाशी किया करते। अब तो छोटा वाला खूब बोलने लगा है। जब तक लछिया की छाती से दूध आता रहा, बच्चे उससे चिपके रहे। ज्यों ही बंद हुआ, लछिया पूरी तरह रसोई में सिमट गई। यही रसोई ही उसका घर-संसार था जहां दिनभर बैठी-बैठी वह सिलबट्टे और चूल्हे से बतियाती रहती। इस एकरसता को तोड़ने की जिम्मेदारी सिर्फ प्रभात पर थी जो बीच-बीच में इशारे से लछिया को कमरे में बुलाता रहता।
लछिया को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी। और सच पूछा जाए, तो उससे किसी ने पूछा कब कि शिकायत है या नहीं। उसने तो इसे ही अपने जीवन का सच मान लिया था और सब कुछ भूलकर यहीं रम गई थी लछिया। प्रभात और दोनों बच्चों से बेसुध लछिया दिनभर घर के काम में लगी रहती और देर रात बिस्तर पर आकर पड़ जाती। बच्चे तो रात को भी दादी के पास ही सोते तो रात को भी उसे बच्चों का सुख न मिलता। कारखाने में कामगार मजदूर की तरह वह दो वक्त की रोटी खाती और सो रहती थी। यही उसकी कुल जिंदगी थी।
ऐसी ही एक रात प्रभात कमरे में आया और सोई हुई लछिया को दमभर चूमने लगा। वह उसे चूमता जा रहा था और उसे जगाने की कोशिश कर रहा था। लछिया दिन भर की थकी थी और अब प्रभात की इच्छा पूरी करने की भी हिम्मत बाकी नहीं थी उसमें। वह सोने का नाटक करती रही। और प्रभात के छूने-छाने पर भी नहीं उठी। ए री लछिया, ए हमारी ऐसबर्या राय, उठ त, ए उठ ना! उठ ना! ए लछिया।’ आज प्रभात और दिनों से अलग लग रहा था। आज वह उसे प्यार कर रहा था, उसे जगा रहा था। मनुहार कर रहा था। लछिया को प्रभात का यूं मनुहार करना अच्छा लग रहा था। वह धीरे-से कुनमुनाई, सोने दीजिए ना! हम दिनभर खटकर थक जाते हैं। सो रहे हैं त भी बर्दास्ते नहीं है आपको। जाइए यहां से।’ लछिया दुलार बन रही थी। प्रभात आज उसे दुलार रहा था। लछिया को जगना ही था पर थोड़ी देर और मनुहार करे प्रभात। उसे अच्छा लग रहा था।
ए री लच्छो, उठ ना! अरी देख हम का लाए हैं! ए लच्छो रानी! प्रभात के हाथ में जलेबी का दोना था। लछिया ने देखा तो बहुत प्यार आया प्रभात पर। इतने दिन बाद, कहो कि सालों ही गुजर गए। यह जलेबी की सुध कहां से आई इन्हें। वह उठ बैठी। ले री मेरी रानी। ले खा जलेबी। ले ना! प्रभात जलेबी लछिया के मुंह की ओर बढ़ाए हुए था।
का है! काहे सता रहे हैं! देख नहीं रहे सो गए थे हम!
ए रानी, चल ज्यादा भाव न खा। प्रभात आज बहुत खुश लग रहा था। वह लछिया को कुछ बताना चाह रहा था। वह बात उसके पेट में खरगोश की तरह उछल रही थी। ए लच्छो रानी, तुझसे कहे थे ना हम! तुझे हवाईजहाज में बैठाकर ले जाएंगे सात समंदर पार।
लछिया को यकीन नहीं हो रहा था। यह क्या कह रहे हैं प्रभात! कहां जाने की बात कर रहे हैं। कहीं पगला तो नहीं गए।
लछिया री। हम तो चले परदेस। सात समंदर पार। बहुत दूर। प्रभात की ज़बान से ज़्यादा उसकी आंखें बोल रही थीं।
दरअसल प्रभात अफ्रीका के किसी देश की किसी बड़ी कंपनी में मजदूर होकर जा रहा था। यूं तो इसका जुगाड़ वह बरसों से कर रहा था और बरसों से इसमें असफल भी हो रहा था। लेकिन बरसों बाद आज उसकी सुनवाई हो गई और उसे मजदूरों के उस झुंड में जगह मिल गई जो उड़ीसा, झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ से बड़ी संख्या में उस पराए देश जा रहे थे। अब वह नौकरी करेगा, और वह भी गांव में नहीं, न ही दिल्ली, बंबई या कलकत्ता में। वह तो बिदेस जाएगा बिदेस। यह बात उसके पेट से कूदकर उसकी आंखों से बाहर झांक रही थी। वह अपनी लछिया को भी ले जाएगा। पर अभी नहीं। अभी तो केवल मजदूर लोग जाएंगे। वहां जाकर रहने का ठौर ठिकाना तय करके ही तो ले जाया जाएगा पत्नी को। पराए देस में ले जाकर कहां बैठा दें। खुद तो वह कहीं भी रहकर, सो-खाकर गुज़ारा कर लेगा, पर लछिया! वह कहां रहेगी, कहां सोएगी! इसलिए बेहतर तो यही है कि वह पहले खुद जाकर ठौर-ठिकाना तय कर ले तब आगे की सुधि ले।
प्रभात मां-बाऊ जी को यह बात बताकर ही लछिया के कमरे तक आया था लेकिन जोश इन सबसे गुजरते हुए भी कहीं कम नहीं हुआ था। वह लछिया को अपनी बांहों में कसकर दबोचे हुए था और झूम रहा था।
दरअसल गुजरात के एक पटेल की एक कंपनी थी विदेश में। बड़ी कंपनी, बड़े व्यवसाय, बड़े लोग लेकिन मजदूर छोटे-छोटे। यानी देसी। यानी देसी दरें। और विदेश जाने का लालच! बस और क्या चाहिए था! मजदूरों की लंबी सूची तैयार होती, तैयार करने वाला एक ठेकेदार होता। ठेके में हर मजदूर से उसका हिस्सा होता। और फिर जहाज में उड़कर फुर्र…..। प्रभात भी अपने दोस्तों के माध्यम से उस सूची में जगह बनाने की कोशिश कई सालों से कर रहा था। भोला भगत के काम करने के लिए घुड़कने पर वह अक्सर विदेश जाने की धौंस देता और कहता, ए बाऊ जी हमसे नहीं संभव ई सब गोरखधंधा। ई हमारे स्टेंडर्ड से मेल नहीं खाता। हम ता बिदेस जाएंगे, हां….। और अपनी मोटरसाइकिल लेकर वह उड़ जाता। न तो उसकी इस बात को भोला भगत ने कभी गंभीरता से लिया और न ही उसकी माई ने। सबको पता था कि प्रभात एक नम्बर का निठल्ला है। इसी जुगाड़बाजी में वह जीवन निकाल देगा। लेकिन एक दिन जब सच में आकर प्रभात ने भोला भगत को बताया और गुजरात जाने-आने, ठेकेदार को रुपया एक लाख देने और सब काम ठीक करने के लिए भोला भगत से डेढ़ लाख रुपए मांगे तो एक बार तो भोला भगत सोटा लेकर प्रभात के पीछे दौड़े लेकिन भोला बाबा की सौगंध खाकर जब उसने ठेकेदार से मिली चिट्ठी दिखाई तो भोला भगत को विश्वास हो गया। सच ही कह रहा था प्रभात! सही में नौकरी ठीक हो गया है उसका! उन्होंने जोर से पुकारकर प्रभात की मां को बुलाया और फिर तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था।
उधर इस सारी खबर और खुशखबर से बेखबर लछिया अपने कमरे में चौकी पर बेसुध पड़ी थी। दिन भर की थकान के बाद चौकी मिलते ही जैसे एक-दूसरे को प्रेम से पुकारने लगती हैं। थककर बेदम लछिया को चौकी की पुकार बहुत ज़ोर से सुनाई देती है, ऐसे जैसे वह कह रही हो, आ जा री लछिया, कितना काम करेगी! थक गई होगी तेरी देह भी। आ तो दबा दूं हल्का, हल्का। तेल लगा दूं तेरे माथे में। और लछिया बेसुध सी उसकी बांहों में गिर गइै। और फिर कब उसे नींद लग गई, पता ही नहीं चला। सारे काम निपटा लेने के बाद अब किसे सुध है उसकी। उसके पेट जाये तक तो उसे खोजते नहीं, और कौन पूछेगा! तो जिस समय मां-बाबा के कमरे में जश्न मनाया जा रहा था प्रभात की नौकरी का, और जिस समय लछिया के दोनों बच्चे दादी के बिस्तर पर औंधे मुंह सोए हुए थे और जिस समय प्रभात झूम रहा था, उस समय लछिया अपनी चौकी पर बेसुध सोई हुई थी। उसकी नींद तो तब खुली जब प्रभात ने आकर उसे जगाया। वह लछिया को चूमे जा रहा था और जगाने की कोशिश कर रहा था। लछिया के जगने पर उसने ठेकेदार की वह चिट्ठी लछिया को भी दिखाई और ज्यों ही लछिया उसे हाथ में लेकर अलटने-पलटने लगी, प्रभात ने उसे बिस्तर पर धकेल दिया, ए री मेरी लच्छो, चिट्ठी में क्या बांचती है री! हम जो कह रहे हैं, वो सुन री!
(5)
पूरे पच्चीस दिन हो गए प्रभात को गए हुए। जाते वक्त थोड़ा उदास था वह। कमरे में दरवाजे के पीछे लछिया को बांहों में दबोचते हुए कहा था उसने, तेरी बहुत याद आएगी री लछिया। और उसकी छाती को छू लिया था। लछिया को आज प्रभात का उसे यूं बांहों में दबोचना और छातियों को छूना अच्छा लग रहा था। क्या हुआ जो प्रभात उसके मन का साझेदार न हो पाया, देह का साझेदार तो था ही। वह भी जा रहा है आज। न जाने कितने दिन के लिए। न जाने फिर कब लौटना होगा। कहा तो था प्रभात ने कि वह पंहुचते ही लछिया को वहां बुलाने का बंदोबस्त करेगा। पर कितने दिन लगेंगे, कुछ भी अभी तय नहीं था।
पूरे पच्चीस दिन हो गए आज। पंहुचने के बाद शुरू में एक-दो बार फोन आया था। कितना खुश था वह पहली बार जहाज में बैठकर। अम्मा को बताया था उसने। लछिया से भी बात की थी। जहाज जब पहली बार ऊपर गया तो उसकी तो जान ही निकल गई थी। पेट में गुड़ गुड़ होने लगी थी। कलेजा तो जैसे बाहर ही निकला जा रहा था। पर एक बार जब जहाज आसमान में उड़ गया तो सब अच्छा लगने लगा। बताया था प्रभात ने कि ऊपर से दुनिया बहुत छोटी दिखती है। हर चलती-फिरती चीज खिलौने से लगती है। इतने सारे खिलौने। छोटे-बड़े खिलौने। लछिया नहीं दिखी उसे, न ही गांव दिखा और न ही घर। ऐसा लग रहा था कि सब कुछ नीचे छूटता जा रहा है और वह ऊपर उठता चला जा रहा है। फिर दूसरी बार फोन आया था पंहुचने के पांच दिन बाद। कुछ इंतजाम नहीं हुआ था तब तक। किसी तरह सब लोग फैक्ट्री के ही एक कमरे में रह रहे हैं। बच्चे बहुत याद आ रहे हैं, बताया था उसने।
प्रभात की अनुपस्थिति में प्रभात की कमी महसूस हो रही थी लछिया को। उसे प्रभात की याद आती तो वह और जोर से बर्तन घिसने लगती। इतनी तेज कि उसकी सास को टोकना पड़ता – का हो री लछिया! टोकना-छिपली मा छेद ही कर देगी का। तनी आराम से काम कर!
बच्चे तो पहले भी उसे नहीं पूछते थे, अब प्रभात भी नहीं था जो उसके दिन भर की नीरसता को तोड़ देता। यूं भी दरवाजे पर कुत्ता भी पड़ा रहे कई दिन तक तो उससे भी लगाव हो ही जाता है। माय-बाबू जी यानी सास और भोला भगत तो निश्चिंत हो ही गए थे। बेटा बिदेस में काम करता है। हवाई जहाज से गया है। वहां से पैसा भेजेगा तो गाड़ी-घोड़ा खरीदा जाएगा। गांव में तनिक धाक जमेगी। धाक जमनी तो शुरू हो भी गई थी। रास्ते में भेंट-दुआ करते लोग रुककर पूछ लेते प्रभात के बारे में भोला भगत से और वे भी छाती चौड़ी कर बता देते कि बिदेस में सब ठीक ही है। सब ठीक कर लिया है प्रभात ने।
(6)
पूरे छः महीने बीत गए देखते-देखते। प्रभात का फोन अक्सर आता और माय-बाबू जी से बात करके वह तनिक देर लछिया से भी बतियाता। वह लछिया को कहना नहीं भूलता कि उसे उसकी बेइंतहां याद आती है। लछिया फोन कान से लगाए ही महसूस करती रहती जैसे प्रभात उससे सटकर ही खड़ा है और उसकी छाती को छू रहा है। वह फोन से ही उसे चूमता रहता। लेकिन लछिया को अब अपना कान पीकदान नहीं लगता था। बल्कि वह तो चाहती थी कि फोन से ही सही प्रभात प्यार शब्द को दुहराता रहे बार-बार। वह फोन लेकर एक कोने में हो जाने की कोशिश करती ताकि मां-बाबा उसके चेहरे पर उमड़ते भावों के समंदर को देख न सकें और वह अपनी खामोशी से ही प्रभात की कही हर बात का जवाब दे सके।
लेकिन भोला भगत की सारी इंद्रियां उस समय और ज़्यादा चौकन्नी हो जातीं जब प्रभात लछिया से बात कर रहा होता। ज्यों ही लछिया बतियाना शुरू करती भोला भगत को कुछ न कुछ चाहिए होता। ए दुलहिन तनी पानी त लाबो। कंठ सूख रहा है। लछिया पानी का गिलास पकड़ाती तो उन्हें तंबाकू की डिबिया की तलब होने लगती। और तंबाकू मिल जाए तो फिर चाय की इच्छा। लछिया फोन रखती और ससुर की सेवा में जुट जाती। धीरे-धीरे यही तलब फैलकर सास तक जा पंहुची और लछिया के फोन पकड़ते ही कभी उनकी सांस उखड़ने लगती तो कभी सिर दुखने लगता। पिछले कुछेक दिनों से ऐसा ही चल रहा था।
दरअसल मां को तो अच्छा ही लगता जब प्रभात अपनी पत्नी से बात कर रहा होता। दूर बिदेस में बैठे बेटे के सुख की चिंता उन्हें यहीं सताती रहती। अपनी बहू से बात करके तनिक अच्छा ही लगता होगा बउआ को। वह अक्सर भोला भगत से कहती।
लेकिन भोला भगत को अपनी सत्ता छूटने का डर सताने लगता जब प्रभात लछिया से बतिया रहा होता। एक रात उसने प्रभात की मां को बाहर चौकी पर बुलाया और धीरे से उसे समझाया – बेटा क खोना चाहती है की प्रभात की माय! भोला भगत के मुंह से यह सुनकर प्रभात की मां तो हाय-हाय कर कानों को छूने लगी – इ का कह रहे हैं जी! ऐसा काहे कहते हैं!
और नहीं त का। ऐतना ऐतना देर बहू से बतियाएगा त काम खाक करेगा तोरा दुलरवा। काम म जी भटक नहीं जाएगा। तनिक नजर रखा करो। दुलहिन कोना म दुबककर न जाने का का बतियाती है मुन्ना से। बहुत आग है का देह मा\ बुझा दें का\ यह कहकर उसने एक भद्दा सा इशारा किया। यह देखकर एक बार तो प्रभात की मां घबरा गई। राम राम! तनिक सरम करो हो!
एक लपाट देंगे कान के नीचे। हम सरम करें या उ रांड सरम करेगी। ऐतना बखत बीत गया अब जाकर प्रभात ठिकाने से लगा है और ई काली नागिन लगी उस पर वश करने। इहे सब चलता रहा त बेटा हाथ से छूटा समझो। और जब प्रभात की मां कान लगाकर बड़े ध्यान से भोला भगत की बात सुनने लगी तो होंठों किनारे जमा थूक को ज़ोर से खींचते हुए वे बोले – ई हाल रहा त अव्वल त तोरा सपूत उहां टिकेगा नहीं और अगर टिक गया त इकरा भी ले जाएगा बिदेस और मेम बनाके घुमाएगा। रह गए इ दो बच्चा त जहां माय-बाप उहहीं बच्चा बुतरू। त समझ ले पोता भी गया। बुढ़ारी में बचेंगे हम दोंनो। त चूल्हा पर तूं सेकना अपन देह और हम खाएंगे का – घंटा! यह कहकर उन्होंने फिर एक भद्दा इशारा किया और होंठों के किनारे जमा हुए थूक को सर्र करके घोंट लिया।
भोला भगत की कही बात अब पूरी तरह प्रभात की मां के दिमाग में घुस चुकी थी। वह समझ गई थी कि उनके बेटे और सुख के बीच कहीं कोई अड़चन है तो वह इ लछिया ही है।
उधर लछिया को पहली बार सुख का एहसास हुआ था ब्याह के इतने सालों में। अब जाकर प्रभात उसे अच्छा लगने लगा था। अब उसके पास होने के एहसास से उसके भीतर कुछ खनकता सा था। लछिया को प्रभात की याद आने लगी थी। देह से दूर होकर मन के कितना पास हो गया था प्रभात। वह प्रभात को छूना चाहती थी। उसे महसूस करना चाहती थी। दरअसल प्रभात के दूर जाने से प्रभात की अनुपस्थिति ने उसकी काल्पनिक उपस्थिति की एक बेहद सुंदर मरीचिका बनाई थी लछिया के इर्द-गिर्द। वह प्रभात से घंटों फोन पर बतियाना चाहती थी। ख्यालों में भी वह अब प्रभात से बात करने लगी थी। उसे अपनी बनाई यह मरीचिका बहुत खूबसूरत लगती थी। वह जब चाहे अपनी इच्छा से प्रभात को उसमें बुला सकती थी। उससे रूठ सकती थी, उसे मना सकती थी। उसके साथ हंस-बोल सकती थी। प्रभात की उपस्थिति ने नहीं उसकी अनुपस्थिति ने उसे प्रभात के करीब ला दिया था।
(7)
भोला भगत की कही बात और प्रभात की मां की समझ का परिणाम अब दिखने लगा था। फिर तो प्रभात का फोन आया और चापाकल का पानी सूखने लगा। प्रभात का फोन आया तो भोला भगत के पेट मेे तेज दर्द का मरोड़ उठ आया। प्रभात का फोन आया और सास का सिर जोरों से फटने लगा। चापाकल का पानी सूखने लगे, भोला भगत के पेट में मरोड़ उठे या फिर सास का सिर दर्द से फटा जा रहा हो, लछिया का होना जरूरी है। वह कई-कई दिन प्रभात के फोन का इंतज़ार करती और जब कभी फोन आता तो दुनिया भर की आफतें घर पर टूट पड़तीं। लछिया अपनी बात तक पूरी न कर पाती, दिल का हाल तक न बयां कर पाती कि ……..
वह कहना चाहती थी प्रभात से कि उसके लिए एक फोन भेज दे। वह कहना चाहती थी कि उसका जी चाहता है कमरे में चौकी पर लेटकर उससे बतियाने का। कि वह उससे एकांत में बतियाना चाहती है। लेकिन कुछ कहने से पहले लाज उसके होंठ सिल देती। और किसी तरह खुद को समझाती तो फिर यह सोचकर रुक जाती कि अभी तो गया है, अभी तो ठीक से सब व्यवस्था भी नहीं हुई होगी। लछिया अपने दिन बदलने का इंतज़ार करने लगी थी। इतने सालों में पहली बार उसने सपने पालना सीखा था। उसकी आंखें दिन में भी ख्वाब देखने लगी थीं।
लेकिन…
प्रभात की मां ने अचानक ही लछिया को कोसना शुरू कर दिया था। बेटे के छूटने के डर ने उसे भीतर से कंपा दिया था। भोला भगत की समझाई बात जैसे कहीं गहरे धंस गई थी उसके भीतर। वह बात-बात पर लछिया को डांटने लगी। उसके काम में खोट निकालने लगी। वह माथे में तेल लगाती तो कहती, हे रे लछिया। तेल लगाकर कहां चली \ खुसबूदार तेल लगाकर किसे रिझाएगी री! और अगर उसके बाल सूखे होते, वह खुद से बेपरवाह होती तो कहती, अपना नायं तो हमार मुन्ना का ही सरम कर। ई का उजाड़ सी डोल रही है। सुहागन का त कोई लक्षणे नहीं है ई मा… मन ही मन बुदबुदाती रहती वह।
दाल मा नमक डालना भूले गई का। और ई आलू का चोखा है कि गोबर चोथ दिया है री कुलछिनी! कहकर थाली को पैर से धकेल दिया भोला भगत ने।
न जाने अचानक क्या हुआ इन दोनों को, लछिया सोच रही थी। यूंू तो इतन बरसों में कोई लगाव नहीं ही था दोनों का लछिया से। उसके होने के मायने सिर्फ एक काम वाली दाय से अधिक तो कभी थे भी नहीं। लेकिन उसके किए में खोट बहुत कम ही निकालते थे दोनों। लछिया भी घड़ी की सुइयों की तरह बिना कहीं भटके इस गृहस्थी के चक्कर काटती रहती थी – बिना किसी अपेक्षा के। और सच ही था किसी ने कभी कुछ कहा भी नहीं। सब खाते और थाली में हाथ धोकर चल देते। सबके खाने के बाद खाकर और चौका समेटती लछिया रात के अन्हियारे में हिलती-डुलती गठरी सी लगती जिसमें दो हाथ उग आए हैं और बेहद तटस्थ भाव से काम किए जा रहे हैं। आज पहली बार था जब भोला भगत ने इस तरह का व्यवहार किया था। लछिया के भीतर कुछ टूट सा गया।
प्रभात की मां भी अब बात-बात पर लछिया पर चिल्लाने लगी थी। एक दोपहर लछिया आंगन में बैठी चावल बीन रही थी। खाने का समय हो गया था और भात चढ़ाना अभी बाकी था। चावल बीनकर उसे वहीं जमीन पर रख वह रसोई में दाल को छौंक लगाने चली गई। छौंक लगाकर लौटी तो देखा कि सूप पर रखे चावलों में कई कंकड़ दिखाई दे रहे हैं। वह फिर से चावल बीनने लगी। प्रभात की मां ने आव देखा न ताव, बच्चों का हवाला देकर जोर जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया – जै दिन से प्रभात गया है इ कुलछिनी त बच्चा सब को भुखले मार दी है। सांझ होने क आई और अभी भात बनना बाकिये है। बच्चे भी जो अभी तक खेल कूद रहे थे, आकर मां की धोती पकड़कर उससे सट गए। गुस्से से लाल प्रभात की मां ने दोनों की बांह पकड़ी और टॉफी का लालच देकर खींचकर अपने साथ ले गई। लछिया रुआंसी सी हो आई। अभी तो उसने चावल बीने थे। अचानक कंकड़ कहां से आ गए। वह मां जी को कुछ समझा भी नहीं पाई।
इतने साल इस नाउम्मीद से घर में जिंदा लाश की तरह रहने वाली लछिया अब उम्मीदें पालने लगी थी। सास के ऐसे व्यवहार से उसे ठेस पंहुची थी। चुपचाप सी एक निरीह ठेस। आखिर क्या था जो उसके भीतर रखी बर्फ की सिल्ली को धीरे-धीरे पानी कर रहा था। उम्मीद का सेक। एक ऐसी उम्मीद जो बिल्कुल अभी-अभी जन्मी थी। ऐसी उम्मीद जिसने लछिया के रोंओं में हल्की सी जुंबिश पैदा कर दी थी। एक ऐसी उम्मीद जो ये सब होकर भी उससे सात समंदर दूर थी। एक अनजान देस में। यह उम्मीद ही थी जिसके सहारे वह अब जीने लगी थी।

उसे प्रभात के फोन का इंतज़ार रहता लेकिन ज्यों ही फोन आता किसी न किसी बहाने से उससे छीन लिया जाता। कई बार तो उसे पता भी न चलता और बात करके फोन रख दिया जाता। लछिया के कान फोन की घंटी सुनने के लिए तरसने लगे थे। उसका मन करता कि वह प्रभात की बांहों में जाकर फफक-फफक कर रो पड़े। उससे सारी शिकायतें कहे। उससे मनुहार करे कि वह उसे ले जाए। उसे लगता था कि फोन के बीच से ही कोई ऐसा रास्ता निकलेगा जहां से वह फुर्र हो जाएगी। प्रभात उसे अपनी पतंग की डोर लगने लगा था…
लछिया तुम माई को काहे परेसान कर रही हो रे! प्रभात की आवाज़ के इस बेगानेपन ने लछिया के कलेजे को चीर कर रख दिया।
कहां मुंह मारती फिरती हो दिन भर! दू दिन से तुम्हें फोन पर ढूंढ रहे हैं। जब पूछो त एकही बात। लछिया त घर में हैये नहीं है। बच्चा-बुतरू क छोड़कर यह सब क्या नया सुरू कर दिए हो। बोलो! जवाब दो। अब का मुंह में पान ठूंसी हो का। बोलती काहे नहीं हो। लछिया सच में सुन्न पड़ गई थी। जब से ब्याह कर आई है वो इस घर में, कभी अकेले बाहर नहीं निकली। इजाज़त ही नहीं थी इसकी। और यों भी उसके तो सारे अरमान पहले ही दम तोड़ चुके थे। अपने मन की तो सुनी कब उसने! और आज सात समंदर पार बैठा प्रभात यह कह रहा है कि मैं कहां घूमती रहती हूं। प्रभात की मां सामने ही बैठी थी। कैसे बोलती लछिया कि माय झूठ बोल रही है। उसने तो आंगन से बाहर कदम तक नहीं निकाला कभी। वह फोन पर हकलाती रही। सारे शब्द जैसे गड्डमड्ड से हो गए थे।
लछिया को लगा जरूर माय ने ही उसके दिमाग में यह सारा ज़हर भरा है। वह समझ नहीं पा रही थी कि प्रभात की मां ने ऐसा क्यों किया। इन दिनों माय खिंची खिंची भी रहती हैं लछिया से। हुआ क्या। प्रभात की बातों से लछिया को धक्का पंहुचा था। लेकिन मन अभी भी नाराज़ नहीं था उससे। प्रभात से उम्मीदों की इसी पराकाष्ठा के चलते उसमें न जाने कहां से हिम्मत आ गई और उसने सोचा क्यों न प्रभात से फोन पर बतिया लूं। अपने मन की सारी बात कह दूं। बेचारा कितना तो थक जाता होगा काम करके। कितनी उम्मीद से फोन करता होगा हमसे बतियाने के लिए और अम्मा ने कह दिया लछिया घर में नहीं है। कितनी तकलीफ हुई होगी उसे। आज वह प्रभात से बात करेगी, उसे लछिया की याद आई इसके लिए उससे मनुहार करेगी और सब ठीक रहा तो माय-बाबू की सारी शिकायत वह भी कर देगी। कहेगी कि आप जानते नहीं हैं हमें का। इतने बरस में केतना बार देहरी लांघे हैं हम! केतना बार किसी भी काम में कोताही किए हैं। कब अइसन हुआ है कि कोई काम ठीक से न किए हों हम! अपने मन अपनी देह की त कभी सुध ही नहीं लिए हम और अब माय ने कहा कि लछिया त घर में रहतिये नहीं है त मान लिया आपने! हम कुछ नहीं लगते आपके! सब्बे कुछ माय-बाबू जी ही हैं। त बतिया लिया कीजिए उनसे ही, हमें काहे खोजते हैं फिर! और यह कहकर वह प्रभात से रूठ जाएगी। और फिर प्रभात उसे मनाएगा। फोन से ही सही, पर उसे चूमेगा।
एक दोपहरी जब प्रभात की मां मंदिर में कीर्तन मंडली के साथ बैठी भजन गुनगुना रही थी और बीच-बीच में प्रभात की बिदेश की नौकरी के किस्से सबको सुना रही थी और दोनों बच्चे पुजारी जी की बगल में रखी प्रसाद की डलिया पर आंख टिकाए बैठे थे, और भोला भगत बाहर बैठकी में जर्दा मुंह में दबाए शिव भजन गुनगुना रहे थे, लछिया ने मौका देखते ही अम्मा के तकिये के नीचे से फोन सरका लिया और उसे लेकर चौके में घुसकर प्रभात को फोन लगाने की कोशिश करने लगी। लछिया को यह पता भी नहीं था कि उस फोन से प्रभात को फोन मिलाया कैसे जाता है। लेकिन फोन के हाथ में आते ही उसे लगा मानो उसके पंख निकल आए हों। आज वह प्रभात से अपने मन की सारी बात कहना चाहती थी। आज वह प्रभात से माय-बाबू जी की मन भर शिकायत करेगी और फिर प्रभात फोन पर ही प्यार से उसे चूमेगा और वह उसके प्यार में भीग जाएगी। प्रभात उससे माफी मांगेगा और उसे चूमता ही रहेगा। वह जल्द ही उसे अपने संग ले जाने का वायदा करेगा।
लछिया अभी फोन हाथ में लिए यह सब सोच ही रही थी कि एक हाथ उसकी कमर के खुले हिस्से से खेलने लगा। यह क्या प्रभात के होने का एहसास था जो उसमें सिहरन भर रहा था। पीढ़े पर बैठी लछिया कुछ असहज सी हुई। इससे पहले कि वह पलटकर देखती या प्रभात के ख्याल से बाहर आती, कमर पर सरकते दो हाथों ने पीछे से ही उसकी दोनों छातियां दबोच लीं। लछिया की चीख निकल गई। दों हाथ बड़ी बेरहमी से उसकी छातियों को मसल रहे थे। एक हाथ से उसका मुंह दाबकर और दूसरे से उसे नीचे पटककर भोला भगत उस पर चढ़कर बैठ गया। विस्मय से लछिया की दोनों आंखें बाहर को निकली जा रही थंीं और मुंह से सिर्फ बेचारगी की चुप चीखें सुनाई दे रहीं थी। भोला भगत उसे मरियल बकरी की तरह दबोचे हुए था। मुंह में जर्दा भरा था और हाथों की गति के समान ही उसका मुंह भी चल रहा था। लछिया दोनों हाथ जोड़ रही थी। उसके दोनों हाथों को उसने अपने पायजामे में घुसाने की कोशिश की। लछिया की छटपटाहट उसे अपने काम को अंजाम देने से रोक रही थी। भोला भगत ने हाथ भरकर एक जोरदार तमाचा लछिया के कान पर जड़ दिया। सन्न सी लछिया यह सब देख रही थी। भोला भगत मुंह से कुछ बोल पाने में असमर्थ था। मुंह में ज़र्दा था और लछिया है कि कुछ समझती ही नहीं। अपने गमछे को कंधे से हटा उन्होंने पहले मुंह के किनारे से टपक आई पीक को पोंछा और फिर गमछा लछिया के मुंह में ठूंस दिया। अपने दोनों हाथों से उसके दोनों हाथों को दबा कर अपनी पूरी देह लेकर लछिया पर वह सवार हो गया। लछिया की खुली देह उसकी आंखों के सामने थी और लछिया विरक्त सी मंुह घुमाए दूर छिटके फोन को देख रही थी। लछिया की देह को भेदकर और उसके भीतर अपने सारे ज्वार को उतारकर भोला भगत खड़ा हुआ और मुंह की पीक लछिया की जांघों के बीच थूक दी – साली रांड! गरमी सांत हुई देह की या अभी बाकिये है। फोने पर सारी जवानी उछाल मारती है तेरी। दुबारा उछाल मारे त फेर ठंडाय देंगे। मुन्नवां क तंग करे की जरुरत नांय है। तोर सब इलाज हियंें हो जायेगा।’ कहा और फोन उठाकर चल दिया। जाते वक्त उसने एक नजर लछिया को सिर से पांव तक देखा और हंसता हुआ चला गया।
बैठक की देहरी पर ही प्रभात की मां खड़ी थी। उसने भोला भगत के मुंह से निकला आखिरी वाक्य सुन लिया था। प्रसाद का दोना वहीं चौकी पर पटक वह भीतर घुसी और लछिया को देखकर सन्न रह गई। रसोई की दीवार के सहारे धिसटती वह वहीं ज़मीन पर धम्म से बैठ गई। चूल्हे की लौ से दीवारों पर जमी कालिख अब प्रभात की मां की साड़ी पर नज़र आ रही थी। मंुह को अपनी धोती के छोर से ढांपे वह जैसे वहीं पत्थर हो गई। भोला भगत स्थिति की नज़ाकत को भांप गए थे। लेकिन उनके चेहरे पर कोई भय नहीं था। भोला भगत को एक मिनट लगा अपनी पत्नी को भांपने में लेकिन अगले ही पल उन्होंने अपने ऊपर नियंत्रण कर लिया। पत्नी कुछ कह पाती इससे पहले ही भोला भगत चढ़ बैठे।
तुमको कह रहे थे ना कि समझा लो इस रंडी को। नांय समझाए तो भुगतो। अपने चेहरे को क्रूर बनाकर एकदम बेफिक्र सा दिया गया जवाब था यह।
पत्नी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी तो अब भोला भगत के फैलने का पूरा मौका था।
‘देह का सारा आगि ठंडा कर देंगे। कोई कसर बाकी रह गई होय त बता दियो। हम हिये हैं। हमरा मुन्ना अ हमार बीच आने की कोसिस नांय करो। महादेव के कृपा से पहलवानी वाला सरीर है यह। अभी सरीर में कस बाकी है।’ भोला भगत द्वारा कहे गए ये वाक्य लछिया और पत्नी में से ठीक ठीक किसी को संबोधित नहीं थे परन्तु वे कह दोनों के लिए रहे थे।
अपनी लुंगी से जांघ को बाहर निकालते हुए जब वे वहां से गए तो लछिया आंगन में जमीन ताकती उकडू बैठी हुई थी और उसकी सास दीवार से सटकर सन्न बैठी हुई थी। लछिया ने अपनी साड़ी से अपनी टांगों को तो बेतरतीब से ही सही लेकिन ढंक लिया था लेकिन आंचल पूरा जमीन पर छितराया हुआ था। अपने सर से कभी आंचल नहीं उतारने वाली लछिया को उस समय देह की सुध तक न थी। भोला भगत के जाने के बाद लछिया के मन में किसी भीतरी कोने में ही सही एक बार जरूर आया होगा कि औरत होने के नाते ही उसकी सास उसके पास जरूर आयेगी। परन्तु ऐसा हुआ नहीं। सास कुछ देर तक सन्न सी उसको देखती रही और फिर उठकर वहां से चली गयी।
(8)
लछिया अब बिल्कुल चुप रहने लगी थी। पहले से भी ज़्यादा चुप। पहले से भी ज़्यादा खामोश। प्रभात के प्यार की मृगमरीचिका से उसके जीवन में जो उमंग आई थी, वह बेहद क्षणिक थी। यह प्यार, यह उत्साह दो तरफा था भी या नहीं, यह सब जानने से पहले सब कुछ खत्म हो गया। लछिया फिर चुप हो गई। प्यार का आवेग जो उसने बुना था, खत्म हो गया। लेकिन अब वह पहले की तरह निर्द्वंद्व नहीं रह गई थी। खो गई थी कहीं। यंत्रवत सी काम करने वाली लछिया में पिछले दिनों जो बदलाव आया था, वह अपने साथ बहुत कुछ ले गया। लछिया अब भी मशीन की तरह काम तो करती लेकिन एक गहरी उदासी उस पर तारी हो गई थी अब। वह बैठे-बैठे खो जाती। उस भयानक दिन के बाद उसने प्रभात से बात नहीं की। प्रभात ने भी शायद उसे नहीं खोजा। प्रभात का फोन आता, भोला भगत, माय सहित दोनों बच्चों की बात होती प्रभात से फोन पर, लेकिन कोई उसे नहीं खोजता। उसके अपने जन्मे तक उसके पास नहीं फटकते थे। लछिया की उपस्थिति घर में सिर्फ काम करने के लिए थी। किस्म किस्म के काम। घर बुहारना, खाना बनाना, सफाई करना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना, सास के माथे में तेल धंसना, और बात-बात पर सबके ताने सहना।
उस घटना के बाद प्रभात की मां के बारे में यह सोचा जा सकता था कि वह लछिया के पक्ष में आयेगी। कुछ न सही तो भावात्मक ही सही। थोड़ा ही बदलाव सही। परन्तु ऐसा हुआ नहीं। एकाध दिन तक तो प्रभात की मां अनमनी सी रही लेकिन भोला भगत ने न जाने क्या पट्टी पढ़ाई या धमकाया कि एकाध दिन बीतते-बीतते उसका रुख ही बदल गया। लछिया अकेली थी और अकेली ही रह गई। जो बदला वह यह कि वह भोला भगत की परछाई से भी डरने लगी। खाने की थाली सामने रख वह नज़र चुराती चौके में घुस जाती। प्याज-नमक या हरी मिर्च के बहाने भोला भगत लछिया को पुकारता और लछिया के सामने आते ही उसे सिर से पैर तक घूर कर देखता और सर्र से थूक गटक लेता। लछिया मजबूर बछिया की तरह उसके सामने थी। प्रभात की माय भी यह सब दूर से देखती रहती और ज़ोर से लछिया को डपटते हुए कहती, जा री कुलच्छन। न जाने कौन घड़ी में हमारी किस्मत से बंध गई तूं। घर का सारा धरम ही बिगाड़ दिया।’
प्रभात अब विदेश से पैसा भेजने लगा था। पैसा आते ही दोनों की बांछें खिल जातीं। दोनों बच्चों का दाखिला पास के प्राइवेट स्कूल में करवाया और भोला भगत ने अपने लिए बुलेट मोटरसाइकिल खरीदी। गांव वालों को दिखाने और जलाने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता था। भोला भगत अपने लिए एक चश्मा भी खरीद लिए थे। धूप में पहनने वाला चश्मा। सन ग्लासेज। उसे पहनकर और बाइक लेकर वे सड़क पर निकलते और सबको रुक-रुक कर बताना न भूलते कि बिदेसी कमाई आने लगी है।
लछिया इस सबसे विरक्त अपने काम में सिर गड़ाए रहती थी। हां, एक दिन घर में जलेबी आई तो एक दोना लछिया को भी दिया गया। रात को चौका-बर्तन करके अपने कमरे में चौकी पर बैठकर दूध-जलेबी खाते हुए उसे प्रभात की बेतरह याद आई। मुंह में जलेबी रखती जा रही थी और रोती जा रही थी लछिया। प्रभात उसके लिए दूध-जलेबी लाता था। एक प्रभात ही तो था जो अपने स्वार्थ के लिए ही सही उसे ढूंढता था, उसे चूमता था। उसे प्यार करता था। उसके जाने के बाद तो वह जैसे इस शब्द तक के लिए तरस गई है। जलेबी का दोना चौकी के नीचे सरकाकर लछिया औंधे मुंह चौकी पर गिर गई। नींद ने उसे अपने आगोश में ले लिया था। रात दो या ढाई का समय होगा जब उसकी देह पर गिरगिट से रेंगते दो हाथ नीचे की ओर सरक रहे थे। हड़बड़ाई सी उठी लछिया ने देखा भोला भगत उसकी देह पर झुका है। ज्यों ही लछिया झटके से उठी, उसने बांह के नीचे लछिया की छाती को दबोच दिया। कुचल कर रह गई वह। भोला भगत पूरे इंतजाम के साथ था। बगल में केरोसिन की बोतल रखी थी। लछिया को लाइटर दिखाते हुए गुर्राया – तनियो चूं चपड़ किये त यहीं फूकिये देंगे। बेटियाचोद आयग लगा रखी है पूरे सरीर में। इ सोना जैसन देह है तभिये त बेटवा लेके पूरा दिन पड़ल रहता था घरवा के भीतर।
लछिया बोझ से दब रही थी लेकिन उसके गले से गों गों की भी आवाज नहीं निकल रही थी। और आवाज निकालती भी किसके लिए। उसे मालूम था बगल के कमरे में सोई उसकी सास को इस घटना से कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं था।
पिछली बार तो सिरफ फन कुचलने के लिए सवारी किए थे। इसलिए पूरा देह खोल कहां पाए। अबकी सोना जैसन इ पूरा सरीर दे दे। भोला भगत पूरी मदहोशी में यह फुसफुसाते हुए लछिया के भीतर घुसता चला जा रहा था।
लछिया उसके सामने मरियल बछिया की तरह पड़ी थी। वह कुछ देर अपने भर छटपटाती रही थी परन्तु बाद में उसने वह भी छोड़ दिया। वह शांत लेटी रही और भोला भगत उसके शरीर को नोचता रहा। बगल में रखी केरोसिन की बोतल लछिया के मन के भीतर डर पैदा कर रही थी या उसके दोनों बेेटे उसके भीतर डर पैदा कर रहे थे, पता नहीं। बस उस समय वह जानती थी कि उसकी सास बगल के कमरे में सोई है और सोई क्या जगी है और उसके साथ उसके दोनों बेटे निश्चिंत सोए थे।
(9)

लछिया अब इस सब की आदी हो गई थी। अब कोई प्रतिरोध नहीं था। किससे करती प्रतिरोध\ कौन था वहां जो उसकी सुनता! लछिया सास के सामने आती तो सास बुरा सा मुंह बनाकर कहती तू डायन है डायन हमर बेटवा भी हमसे दूर हुआ और अब सांइयो क ले गई। उसके अपने मां-बाबा तो जैसे दरवाजे से बछिया खोल देने के बाद भूल जाते हैं कि कौन ले गया उसे, कौन गांव गई वह, इस तरह भूल गए थे उसे। कहां फरियाद लेकर जाती वह! उसने सब कुछ ऐसे ही स्वीकार लिया था। प्रभात ने तो उसे खोजना कब का छोड़ दिया था। वह तो एक हवा का झोंका था जो कुछ दिन के लिए उसकी ज़िंदगी में आया और कुछ रंगीन ख्वाब देकर कहीं खो गया। अब तो लछिया की आंखों ने ख्वाब देखना भी छोड़ दिया था। वह बस जी रही थी। कब तक, किसके लिए, कुछ नहीं जानती थी वह। पहले की ही तरह दरवाजे पर लोग आकर बैठते, देवघर की यात्रा के मंसूबे बनते, पूरी योजनाएं तय होतीं, उसी तरह वहां से चाय के लिए आवाज़ पड़ती, और उसी तरह प्रभात की मां लछिया को रसोईघर में आवाज़ लगाती और लछिया चाय-पानी आदि पंहुचाती रहती।
कुछ नहीं बदला। सब कुछ पहले जैसा। बस लछिया पहले से और गुमसुम हो गई थी, उसकी आंखें और सूख गई थीं, उसकी साड़ी का रंग उसी अनुपात में और फीका पड़ता जा रहा था जिस अनुपात में भोला भगत की आंखों की चमक में बढ़ोत्तरी हो रही थी। लछिया अब अपने ऊपर बिल्कुल ध्यान नहीं देती। बाल बिखरे रहते। कई दिनों तक नहाती नहीं। शीशा देखे हुए कितने दिन हो जाते। उसके मन में होता कि भोला भगत के मन में उसको लेकर वितृष्णा पैदा हो जाए। लेकिन भोला भगत के लिए इन सभी का कोई मतलब नहीं था।
कुछ नहीं बदला था, सब कुछ वैसा ही था। चाय के साथ अब बिस्किट भी जाने लगे थे बैठक में और अब बोलबम की यात्रा में घर की दो गाड़ियां शामिल हो गई थीं। भोला भगत ने दो स्कॉर्पियो खरीद ली थीं। दरअसल प्रभात जो भी पैसा भेजता उसे यहां इस नए बिजनेस में लगा दिया जाता। पूरा समय ये गाड़ियां किराए पर दिए जाने के काम आतीं और जब भी बोलबम का कार्यक्रम बनता तो ये गाड़ियां यात्रियों की सेवा के लिए लगा दी जातीं जिसके बदले में भोला भगत लोगों से किराया वसूलते थे और उसके साथ-साथ एहसान भी जताते थे – इ गाड़ी सब काम-धंधे के लिए है। फिर भी हम भोला बाबा की सेवा में लगा देते हैं। क्या है कि भोला बाबा हैं तो काम है, अ नहीं है त काहे का काम! बोलो, बम भोले!
गाँव में भोला भगत का जलवा हो गया है। थोड़े से समय में ही मोटर साइकिल, दो दो स्कॉर्पियो और नोटों की बारिश। आए दिन दरवाजे पर बैठक लगी रहती। भोला भगत के दिमाग पर भी गर्मी चढ़ गई है। ठेंगे पर रखते हैं सबको। मुंह में भोला बाबा के भजन और दिल में पाप और घमंड!
कामेसरी चाची का तो कहना है कि प्रभात की मां भी बहुत मनबढ़ू हो गई है। घमंड हो गया है रुपए का। गले में सोने की नई चेन पहने हुई है आजकल। पैरों में मोटे-मोटे घुंघरू वाली पायल। कहती है प्रभात अगली बार रुपया भेजेगा तो सोने के दो कंगन भी बनवाएगी। डिजाइन भी देखकर रखा है उसने। ई उमर में जब घर में जवान बहू हो तो का सोभा देता है इ सब! फिर कान धीरे से पास लाते हुए हाजीपुर वाली के कान में बोली – कनियन का हाल त देखा नहीं जाता है। बेचारी सूख के कांटा होय गई है। बच्चा-बुतरू को भी साथ में चिपकाए रखती है प्रभात की माय। कनियन के तो पास भी नहीं फटकने देती है दोनों बउवा को… नासपिटे वो दुन्नो भी दादीये में चिपकल रहता है।
कामेसरी चाची का घर उसी आंगन में है जिसमें भोला भगत का घर है। दोनों के घर की सांझी दीवार है तो बहुत सारे राज़ जानती है कामेसरी चाची लेकिन भोला भगत के प्रकोप से डरती है। नहीं तो पास बैठो तो कई किस्से हैं उनके पास। अभी उस दिन तो वे बता रही थीं रोसरा वाली को – प्रभात की बहू तो पेट से थी पिछले महीने।
सुनकर रोसरा वाली ने तो कान पर हाथ रख लिए – का कहती हो चाची! प्रभात को पता चल गया तो एकर जाने ले लेगा।’
अरे वो तो जब आएगा तब न जान ले लेगा! ई त दोनों कसाई मिल के जान लिए हुए हैं इसकी। कौनो सबूत थोड़े न छोड़ा है। अभी पिछले शुक्कर क त बच्चा गिरवा कर आया है। अब केतना बात बताएं… छोड! कहकर कामेसरी चाची ने मुंह बिचका दिया।
अभी पिछले दिनों ही प्रभात की मां पेट साफ करवाकर लाई थी लछिया का। स्कॉर्पियो में बैठाकर ले गए थे उसको। लछिया ने भी सवारी कर ली गाड़ी की लेकिन घर लाने के बाद जो पीटा प्रभात की मां ने कि दम निकल गया बेचारी का। दिन भर जोते रहते हैं उसे घर में। उसकी हिम्मत कहां जो घर से बाहर निकल भी जाए। सब को शक है कि हो न हो यह सब करम भोला भगत यानी प्रभात के बाप का ही है। लेकिन कहे कौन! सबने अपने कान-आंख बंद कर लिए है। और कान-आंख बंद तो मुंह तो अपने आप ही बंद। सच तो यह है कि इतने बरसों में लछिया को लोगों ने उतना ही देखा है जितना वह उस घर में काम करती दिख सकती थी। एक नाउम्मीद, चलती-फिरती लाश सी लछिया।
(10)
लगभग दो साल बीतने को आए प्रभात को गए। और लगभग डेढ़ साल लछिया की प्रभात से बात हुए। इस बीच बहुत कुछ बदला। लछिया की उम्र चौबीस के आस-पास हो गई। लछिया के बालक दो-दो साल बड़े हो गए। दरवाजे पर दो-दो स्कॉर्पियो और एक बुलेट आ गई। चाची यानी प्रभात की मां के पहनने-ओढ़ने-बोलने-बतियाने का ढंग बदल गया, लछिया का चेहरा और फीका और फीका पड़ता चला गया। बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ने लगे। तीन बार लछिया के पेट की सफाई करवाई गई। और अब एक खबर और आ रही है। प्रभात ने विदेश में शादी कर ली है और अगले बरस वह अपनी नई बहू के साथ गांव आ रहा है।
यह खबर लछिया ने सुनी थी भोला भगत के मुंह से। भोला भगत फोन पर बतिया रहे थे प्रभात से। अरे तू खुस त हम खुस। यहां की कौनो चिंता की जरूरत नांय है। रहेगा वहां त ब्याह वंहिये न करेगा। जवानी की गर्मी त ठंढा करना ही पड़ता है बाबू। खूब जियो और खूब कमाओ। आने की का कौनो जल्दी नांय है। रुपिया से बड़ा कोय नांय होता है। प्रभात की मां भी सारी बात कान लगाकर सुन रही थी। उनके चेहरे पर मिलेजुले भाव थे। बेटा ब्याह कर लेगा तो हाथ से तो छिन ही जाएगा। तो ई एतना खुस काहे हो रहे हैं।
भोला भगत अभी भी फोन पर ही थे। प्रभात शायद कोई गंभीर बात कर रहा था। और फोन पर इस तरफ से सिर्फ हम्म हम्म का जवाब दिया जा रहा था। प्रभात के ब्याह की खबर सुनकर लछिया ठगी सी रह गई थी। चापाकल से पानी निकालते उसके हाथ थम गए थे और वह वहीं नीचे बैठ गई थी। पानी की धार गिरती-गिरती अपने आप थम गई।
बात यहीं तक खत्म नहीं हुई। भोला भगत ने काफी लंबी बातचीत के बाद अंत में कहा था, हो जाएगा सब हो जाएगा। बस तूं काम पर ध्यान दे। तेरा बाप अभी जिंदा है। उ तुमरा नांय हमरा टेंसन है। सब ठिकान लगा देंगे। कहकर सर्र से होंठों के किनारे जमा हो गए थूक को गटक लिया। आर तनी पइसा वइसा भेजते रहे कर। बिजनेस एक्सपेंड कर रहे हैं यहां। एगो और गाड़ी लेना है। और थोड़ा बहुत पैसा इ निपटान में भी लगेगा ही। कौनों बात नांय है सब देख लेंगे।
क्या कहा था अभी-अभी भोला भगत ने, क्या हो जाएगा। कौन सा टेंसन। लछिया समझने की कोशिश कर रही थी। वह अभी उलझी हुई थी इस सब में ही कि प्रभात की मां ने आवाज लगाई। हां रे लछिया तीन कप चाय बना जल्दी!
कामेसरी चाची कहती है कि जितिया के दिन लछिया ने भी व्रत रखा था। मांग में उस दिन भरकर सिंदूर लगाए हुए थी लछिया। दोनों बच्चा के लिए सहती रही उ बिचारी पर ई दुन्नो कभी सटे ही नहीं उसकी देह से। कहकर दोनों को गाली बकी थी कामेसरी चाची ने। फिर खुद ही बोली, बच्चा-बुतरू का भी का कुसूर! प्रभात की माय कभी सटल ही नाय दीं दुन्नो क। अपने में ही घुसाए रखे रही। चाची ने एक भद्दा इशारा किया था प्रभात की मां के लिए।
दरअसल जितिया के दिन लछिया अपनी सास के साथ आंगन में आई थी। सूखकर देह कांटा बन गई थी। पर उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। न दुख का, न खुशी का। न जीने का, न मरने का। वह तो बस एक यंत्र की तरह चल रही थी। चूल्हे में लकड़ी ठूंसती, चापाकल चलाती, कपड़े धोती, बर्तन घिसती एक मशीन। जितिया वाले दिन चाची ने ही पुकारा थ उसे, का दुल्हिन। न परनाम, न पाती। न हंसना, न बोलना। की बात! सबे ठीक त है ना! और लछिया का बेहद छोटा-सा जवाब, हां चाची। सब ठीक। जवाब देते हुए तक उसकी आंखों में कोई भाव नहीं आए थे। पूरा दिन निर्जला लछिया दौड़-दौड़कर सब काम कर रही थी। कभी सास की पुकार पर दौड़ती, कभी ससुर के बुलावे पर भागती लछिया मशीन सी ही लग रही थी।
बस उस दिन के बाद लछिया को किसी ने नहीं देखा। कामेसरी चाची ने भी नहीं। और आज पूरे तीन महीने बाद यह अफवाह उड़ी है कि लछिया कल रात से गायब है।
(11)
पूरे गांव में चाची यानी प्रभात की मां ने शोर मचा दिया है कि लछिया कल रात से गायब है। कल रात को तरकारी जला दी और इसी बात पर चाची ने डांटा तो मुंह फुला लिया और अब गायब है। जाने कहां गई जवान बहू। खबर उसके मायके में भी पंहुचा दी गई है। उसी मायके में जहां से इतने सालों उसकी कोई खबर लेने तक न आया। जहां यह तक पता नहीं था कि उनकी कोई बेटी भी थी – लछिया।
लछिया की तलाश जारी है। या फिर कामेसरी चाची के शब्दों में कहें तो लछिया की तलाश का स्वांग जारी है।
होगी तब न मिलेगी। उ त पता नांय पिछला जनम का कौन सा पाप लेके आई थी कुलच्छिनी। इ दोनों राक्षस ने निगलिये लिया है उ फूल सी बच्ची क। कामेसरी चाची सबसे कह रही है पर कोई उनकी बात का यकीन नहीं कर रहा था। या फिर करना नहीं चाह रहा था।
जितिया की रात ही लछिया अपने कमरे में सो रही थी जब भोला भगत और प्रभात की मां उसके कमरे में घुसे। उन्हें अपने कमरे में देखकर लछिया चौकी से झटके से उठ बैठी। प्रभात की मां के हाथ में एक गिलास था। वह लछिया को उसे पीने के लिए दबाव डाल रही थी। निर्जला व्रती लछिया सास के इस हठ को स्नेह समझती इससे पहले ही उसका झोंटा पकड़कर गिलास उसके गले में उड़ेल दिया गया। दिन भर की निढाल लछिया को बेहोश होने में एक पल भी न लगा। उसके बाद लछिया की देह को बोरे में भरकर दो आदमियों के सहारे से गाड़ी में लाद दिया गया। कामेसरी चाची बोरे को घसीटकर देहरी तक ले जाने के पूरे दृश्य की चश्मदीद गवाह है। उसके बाद गाड़ी स्टार्ट होने की आवाज़ आई और उसके बाद से फिर लछिया दिखाई ही नहीं दी।
कामेसरी चाची ने वह दृश्य अपनी आंखों से देखा था लेकिन बाहर आकर रोकने की हिम्मत वह जुटा ही नहीं पाई। उस रात अगर उन्होंने हिम्मत कर ली होती तो शायद कहानी कुछ और होती। मैं लछिया को यूं ढूंढ न रही होती, लछिया पहले की ही तरह चुपचाप सब सह रही होती, प्रभात एक साल बाद अपनी नई बहू के साथ घर आता… लेकिन उसके बाद… उसके बाद तो कहानी का अंत शायद फिर बदल जाता। …यानी लछिया का यह अंत होना तय था।
लेकिन अभी तो कोई कामेसरी चाची की बात पर विश्वास नहीं कर रहा है। आंगन के अन्य लोग और गांव के लोग भोला भगत की हरकतों से वाकिफ और इस सच से इत्तेफाक रखते हुए भी मुंह सिले हुए खड़े हैं। पुलिस अपना काम कर रही है। रिपोर्ट लिखी जा चुकी है—
लछिया देवी, पत्नी श्री प्रभात कुमार, पुत्र श्री रामावतार, रंगत सावंली, कद पांच फुट, गुलाबी साड़ी जिसपर हरा फूल का छाप है, माथे पर सिंदूर लगा रखा है, कल रात लगभग दस बजे के आसपास से गायब है।
साथ में पहचान के लिए उसकी शादी की तस्वीर लगा दी गई है जिसमें वह प्रभात के साथ कोह्वर में बैठी है। उस तस्वीर में साफ साफ लिखा दिख रहा है बांध लो मन को इस बंधन में, रस्म नहीं दस्तूर है यह। कौन मिटा सकता है इसको, रंग नहीं सिंदूर है यह।
ज्योति चावला : युवा लेखिका। कविता और कहानी में समान रूप से लेखन। एक कविता संग्रह ‘माँ का जवान चेहरा’ और एक कहानी संग्रह ‘अँधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ प्रकाशित। कविता की यह दूसरी किताब। कविताएँ और कहानियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित। कहानी महत्त्वपूर्ण कहानी संकलनों में संकलित। कविता के लिए शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान। सृजनात्मक साहित्य के अलावा अनुवाद के उत्तर-आधुनिक विमर्श में ख़ास रुचि। इन दिनों कविताओं, कहानियों के अतिरिक्त इस विषय पर सक्रियता से लेखन। इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली में अध्यापन। ज्योति जी से इस नंबर पर संपर्क किया जा सकता है—मो. 9871819666 ईमेल : jtchawla@gmail.com