संजीव कुमार
बात इससे शुरू करें कि जब एक लेखक किसी कालजयी कहानी के पात्रों और परिस्थितियों को उठाकर एक और कहानी लिखने की कोशिश करता है तो उसके सामने किस तरह की चुनौतियाँ होती हैं। कम-से-कम तीन तो बहुत साफ़ हैं। एक, अपने पाठक को यह ‘परतीत’ करा पाना कि हर तरह से मुकम्मल लगती उस कहानी को भी एक नया विस्तार देना ग़ैर-जरूरी नहीं था। दो, बतौर लेखक अपने फ़र्क़ और अपनी पहचान—जो कथाभाषा और विषयवस्तु को बरतने की सलाहियत से तय होती है—का विसर्जन न करना। और तीन, पाठक के मन में मूल कहानी के साथ स्वाभाविक रूप से चलती तुलना में कमतर साबित होने से भरसक अपना बचाव करना।
पहली चुनौती से निपटने की एक सूरत तो यह हो सकती है कि कहानी का समय-संदर्भ एकदम बदल दिया जाए, जैसा कि पंकज मित्र ने ‘कफ़न’ पर ‘कफ़न रीमिक्स’ लिखते हुए किया था। बदले हुए दौर में वही पात्र और परिस्थितियाँ क्या शक्ल अख्तियार करेंगी, इसे देखने की दिलचस्पी पाठक को नए प्रयोग के प्रति आश्वस्त करती है। दूसरी सूरत यह हो सकती है कि मूल कहानी के किसी ऐसे पहलू को अपने रचनात्मक विस्तार का आधार बनाया जाए जिसके उपेक्षित होने की ओर अगर पाठक का ध्यान पहले न भी गया हो तो कम-से-कम नयी कहानी को पढ़ते हुए उसे लगे कि इस पहलू की ओर ध्यान देने का अपना महत्त्व था। ज़रूरी नहीं कि इससे मूल कहानी की कोई कमी साबित हो। ज़रूरी तौर पर तो इससे इतना ही साबित होता है कि मूल कहानी में कतिपय संभावनाओं के बीज दबे पड़े थे।
कविता की ‘तीसरी क़सम उर्फ़ महुआ घटवारिन को डूबना होगा’ ऐसे ही बीजों के अंकुरण से बनी कहानी है। ‘तीसरी क़सम’ को हीराबाई के पक्ष से विस्तार देते हुए कहानीकार ने पहली चुनौती का सफलतापूर्वक सामना किया है। प्रस्तुत टिप्पणी मुख्यतः इसी पर केंद्रित है।
रेणु की ‘तीसरी क़सम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ हीराबाई के प्रति हिरामन के दुर्निवार आकर्षण की कहानी है। अगर आप उसे प्रेम कहानी कहें भी तो कहानी में उपलब्ध सूचनाओं के दायरे में वह प्रेम एकतरफ़ा ही है और यह बात कहानी की वाचकीय अवस्थिति से तय होती है। बरसों पहले अपने दो लेखों में मैं इस बात को पर्याप्त विस्तार से रख चुका हूँ। उसका लब्बोलुआब यह था—आगे मैं अपनी ही बातों को लगभग ज्यों-का-त्यों दुहरा रहा हूँ—कि हिरामन ‘तीसरी क़सम’ कहानी का मुख्य फ़ोकलाइज़र है, यानी ऐसा पात्र जिसकी चेतना के झरोखे से हम कहानी का दो तिहाई से ज़्यादा बड़ा हिस्सा देखते हैं। तृतीय पुरुष वाचन के बावजूद कहानी एक ‘रेस्ट्रिक्टिड वैन्टेज पॉइंट’ से लिखी गई है। दूसरे शब्दों में, कहानी में जो कुछ घटित हो रहा है, उसे देखने वाली निगाह ज़्यादा बड़े हिस्से में कहानी के बाहर नहीं, उसके भीतर ही है, और वह निगाह हिरामन की है। वही अकेला पात्र है जिसकी आंतरिकता से हमारा भरपूर परिचय होता है—उसकी क़समें, उसका अबोधपन, उसके माया-मोह, उसका सुख-दुख, उसके सपने, उसकी आशाएँ, दुराशाएँ, उसके लगाव और दुराव—न सिर्फ़ हमें इन सबका अंतरंग परिचय मिलता है बल्कि इन्हीं से छनकर अधिकांश कथा-स्थितियाँ हम तक पहुँचती हैं। वाचक ने हिरामन की जानकारी की सीमाओं को अपनी सीमा बना लिया है और जहाँ वह इस सीमा का अतिक्रमण करता भी है, वहाँ न तो किसी और पात्र की आंतरिकता मानीखेज़ तरीक़े से उभर पाती है, न ही कुछ ऐसा होता है जिससे कथा के मुख्य फ़ोकलाइज़र के ओहदे में कोई फ़र्क़ पड़े।
ज़ाहिर है, यह फ़ोकलाइज़ेशन यह सुनिश्चित करता है कि हम कहानी में हीराबाई के व्यक्तित्व की सिर्फ़ सतह देख सकें। हम वाचक से बँधे हैं और वाचक हिरामन से। हीराबाई के माया-मोह, उसका सुख-दुख, उसके सपने, उसकी आशाएँ, दुराशाएँ, उसके लगाव और दुराव—इन सबसे हमारा कोई परिचय नहीं होता। हिरामन उसके व्यक्तित्व में गहरे उतरकर ये चीजें देख नहीं सकता, इसलिए वाचक भी नहीं, इसलिए पाठक भी नहीं। वाचक जहाँ-जहाँ इस स्वारोपित बंधन से अपने को आज़ाद कर लेता है, वहाँ भी वह इस आज़ादी का इस्तेमाल हीराबाई की आंतरिकता को उभारने में नहीं करता। पूरी कहानी के दौरान हम यह नहीं जान पाते हैं कि हिरामन की जानकारी और निगाहों की परास से परे हीराबाई क्या है, उसका इस दुनिया में अपना कोई है या नहीं, मथुरामोहन कंपनी छोड़कर रौता कंपनी में वह क्यों आई और वापस मथुरामोहन कंपनी में लौटने की बाध्यता क्यों उपस्थित हुई है। इस तरह के मोटे-मोटे तथ्यों से लेकर ऐसे भावनात्मक पहलुओं तक की हमें जानकारी नहीं मिल पाती है कि वह अपने पेशे के बारे में क्या सोचती है, उसके अनुभव कितने कड़वे या मीठे हैं, प्रेम और विवाह के बारे में उसके क्या खयालात हैं, हिरामन को वह, धुंधले तौर पर ही सही, प्रेमी या पति की जगह पर रखकर देख पाती है या नहीं। ग़रज़ कि फ़ोकलाइज़ेशन के बदलाव से हीराबाई किसी गहरे अर्थ में लाभान्वित होती हो, ऐसा कहानी में दिखलाई नहीं पड़ता। कहानी के सभी मार्मिक प्रसंग हिरामन के संदर्भ में ही अपना अर्थ खोलते हैं, या यों कहें कि उनकी मार्मिकता हिरामन के पक्ष में ही घटित होती हैं। महुआ घटवारिन की कथा, ‘लाली लाली डोलिया’ गीत का प्रसंग और कहानी की आखिर में आनेवाला जुदाई-प्रसंग—इन सभी पर ग़ौर करें तो बात साफ़ हो जाती है। इन सभी प्रसंगों का अंकन हिरामन के आत्मनिष्ठ/विषयीनिष्ठ नज़रिए से किया गया है और उसी की पीड़ा इन प्रसंगों की अंतर्वस्तु बनकर उभरती है। सिर्फ़ जुदाई-प्रसंग में आनेवाला हीराबाई का एक संवाद उसके मर्म तक पहुँचने का आधा-अधूरा रास्ता दिखाता है:
उसने हिरामन के चेहरे को ग़ौर से देखा। फिर बोली, “तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है, क्यों मीता?… महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है, गुरुजी!”
गला भर आया हीराबाई का।
ये दो-तीन वाक्य हीराबाई के मर्म तक पहुँचने का राजमार्ग नहीं हैं, जैसा कि कहानी के पाठक-आलोचक अक्सर मान लेते हैं। ऐसा मानना, निस्संदेह, ‘तीसरी क़सम’ फिल्म के असर में होता है। उस फिल्म के असर से थोड़ा निकलकर देखने की कोशिश करें कि इन पंक्तियों का अधिकतम कितना दोहन किया जा सकता है। हीराबाई के कहे हुए पहले वाक्य से पता चलता है कि वह हिरामन के चेहरे पर छाये दुख की नोटिस ले रही है। उसका अपना गला भर आने से यह पता चलता है कि वह खुद भी दुखी है। यह बात पीछे की पूरी कहानी से स्पष्ट है कि हिरामन के साथ उसका एक लगाव तो है ही, अन्यथा नौटंकी कंपनी के सभी लोग हिरामन को इस रूप में क्यों जानते कि वह ‘हीराबाई का आदमी है’। किसी प्रियजन से बिछुड़ने पर जैसा दुख होता है, वह हीराबाई को भी हो रहा है। प्रियजन को रतिभाव का आलंबन मन लेना और इस विदाई को प्रेम का करुण अंत मान लेना वैसे ही होगा जैसे पुरुषों द्वारा किसी भी स्त्री की मित्रता को ‘लिफ्ट दे रही है’ वाले भाव से ग्रहण करना। आप अधिक-से-अधिक यहाँ उस याकिवाद की शरण ले सकते हैं जिसकी प्रस्तावना प्रेम के महाकाव्य ‘कसप’ में मनोहर श्याम जोशी ने की है। यानी आप पीछे की व्याख्या से पूरी तरह सहमत न भी हों तो आपको इस लाजवाब याकिवादी सवाल पर जाकर ठहर जाना होगा कि हीराबाई का दुख प्रियजन से बिछुड़ने का दुख है या कि प्रेम के करुण अंत की आसन्नता का दुख?
अब रही बात इसकी कि ‘महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है।’ क्या हीरा यह कहना चाहती है कि तुमसे मेरा मिलन न हो पाना वैसा ही है जैसे सौदागर के नौकर से महुआ का मिलन न होना? अगर हीराबाई इस बात को नहीं समझ रही कि हिरामन महुआ घटवारिन की कथा में सौदागर के नौकर के साथ तादात्म्य महसूस करता है, तो उसकी बात का यह मतलब हो ही नहीं सकता। अगर वह हिरामन के इस तादात्म्य को समझ रही है, तब भी उसकी बात का यह मतलब नहीं हो सकता क्योंकि बिछुड़ने के कारण के रूप में वह सौदागर की खरीद का ज़िक्र कर रही है, उसके नौकर के प्रति महुआ की आशंका का नहीं, जो कि महुआ से उस नौकर का मिलन न हो पाने का वास्तविक कारण है। महुआ की कथा के इस हिस्से को देखें:
महुआ छपाक से कूद पड़ी पानी में… सौदागर का नौकर महुआ को देखते ही मोहित हो गया था। महुआ की पीठ पर वह भी कूदा। उलटी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भादों की भरी नदी में। महुआ असल घटवारिन की बेटी थी। मछली भी भला थकती है पानी में! सफ़री मछली जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है, और उसके पीछे सौदागर का नौकर पुकार-पुकारकर कहता है—‘महुआ, जरा थमो, तुमको पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारा साथी हूँ। ज़िंदगी भर साथ रहेंगे हम लोग।’ लेकिन…
… उसको लगता है, वह खुद सौदागर का नौकर है। महुआ कोई बात नहीं सुनती। परतीत करती नहीं। उलटकर देखती भी नहीं। और वह थक गया है तैरते-तैरते…
हीराबाई के वाक्य पर रूपक इस रूप में घटित नहीं होता। यानी जिस तरह से भी देखें, हीराबाई प्रेम के करुण अंत का कारण इंगित नहीं कर रही है, उसकी बात से बस इतना पता चलता है कि वह प्रियजन से बिछुड़ने की वजह बता रही है। उसका कथ्य शायद इतना भर है कि मैं धंधे के हाथों बिकी हुई हूँ और बिके हुए लोग अपने प्रियजनों के आसपास कब तक रह सकते हैं! एक बार फिर कहूँ कि प्रियजन का मतलब प्रेमीजन समझ लेने की सामान्य मर्दाना ग़लती हमें नहीं करनी चाहिए।
इस तरह ‘तीसरी क़सम’ की हीराबाई के अंदर प्रेम की कोई पीर तलाश लेने और उसके आधार पर उसके आंतरिक व्यक्तित्व का नक्शा खींच लेने के पर्याप्त कारण कहानी के भीतर नहीं हैं।
कविता इसे ही अपनी कहानी का आधार बनाती हैं और हीरा के पक्ष के प्रति हमारी नावाक़िफ़ियत और याकिवाद का अपने तरीक़े से निराकरण करती हैं। इसे आप मूल कहानी की एक रिक्ति को भरने का उपक्रम भी कह सकते हैं जिससे एक दबी पड़ी संभावना का पूर्ण प्रस्फुटन संभव हुआ है। अब वही घटनाक्रम, जिसे आपने हिरामन की चेतना के वातायन से देखा था, हीराबाई की चेतना की वातायन से आपके सामने आता है, और देखने की जगह का यह बदलाव सिर्फ़ एक आत्मनिष्ठ प्रत्यक्षीकरण की जगह दूसरे आत्मनिष्ठ प्रत्यक्षीकरण को रख भर देना नहीं है, बल्कि इस बदलाव से हीराबाई अपनी पूरी पृष्ठभूमि और मनोभावों के साथ हमारे सामने साकार हो उठती है। ‘तीसरी क़सम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ की हीराबाई को आप उतना ही जानते थे जितना हिरामन जानता था, पर ‘तीसरी क़सम उर्फ़ महुआ घटवारिन को डूबना होगा’ की हीराबाई को आप हिरामन से कई-कई गुना ज़्यादा जानते हैं। रेणु के लिए जिस पात्र में परकाया-प्रवेश करना सहज था, उन्होंने किया। जो परकाया-प्रवेश उनसे छूट गया, या जिसमें वे सहज न थे, या जो उनकी कार्यसूची में न था, या जिसके लिए उनके अंदर कोई स्वाभाविक रुझान न था, उसे कविता ने संभव किया। ग़रज़ कि 1972 में लोठार लुत्से को दिए एक साक्षात्कार में रेणु ने ‘तीसरी क़सम’ को लेकर जो कसक साझा की थी, उसे इस कहानी ने दूर किया है। रेणु ने कहा था, “तीसरी क़सम के बारे में जब मैं सोचता हूँ कि यह कैसे—क्योंकि तीसरी क़सम लिख करके भी, कहानी लिख करके भी, मैं पूरा संतुष्ट नहीं हुआ। और फिर दूसरी बातें तो खैर जाने दीजिए, लेकिन जब उस कहानी को लिख करके भी मेरे मन में यह बात बनी रही कि नहीं, हीरा को और भी कुछ कहना चाहिए, तो हीरा का रूप और भी सामने आना चाहिए था, हिरामन को और भी कुछ होना चाहिए था… या फिर उस तरह की स्टोरी ही नहीं होनी चाहिए थी, जैसी है, कुछ और बननी चाहिए थी।”
कविता की कहानी रेणु की कहानी के आखिरी प्रसंग से शुरू होती है जहाँ हीराबाई प्लेटफ़ॉर्म पर हिरामन का इंतज़ार कर रही है। उसने रौता कंपनी छोड़कर वापस अपने देस की मथुरा मोहन कंपनी जाने का फ़ैसला कर लिया है और अब हिरामन का इंतज़ार है कि उसने जो पैसे संभालने दिए थे, जाने से पहले उसे सौंप दे। हिरामन आता है, उसे उसकी कमाई सौंपकर हीराबाई रेलगाड़ी में बैठती है और कानपुर का सफ़र शुरू हो जाता है। प्लेटफ़ॉर्म से लेकर पूरे सफ़र के दौरान उसकी अपनी कहानी पूर्वदीप्ति में चलती है जिसमें हीराबाई की अब तक की दो क़समों का भी ज़िक्र आता है और अंत मूल कहानी की तरह ही एक संभावित तीसरी क़सम से होता है। इस पूर्वदीप्ति से आपको पता चलता है कि हीराबाई भी प्रेम में है और उसका प्रेम किसी क़दर कम गहरा नहीं है। बावजूद इसके अगर वह एक दिन बिना कुछ कहे दूर हो जाने का फ़ैसला लेती है तो वह वेश्या-जीवन के उन अनुभवों की सीख का नतीजा है जिनमें सिर्फ़ उसके अपने नहीं, अपनी माँ और उनकी बुआ के अनुभव भी शामिल हैं।
वेश्या या बाई जी का पेशा मर्दाना दुनिया में ज़बरदस्त चुनौतियों से घिरा पेशा है। वेश्या एक आत्मनिर्भर स्त्री होती है, पर उसे इस आत्मनिर्भरता की क़ीमत प्रेम, दाम्पत्य और शिष्ट समाज के सम्मान की अपात्रता के रूप में चुकानी होती है। इस द्वन्द्व को कविता बड़ी बारीकी में जाकर पकड़ती हैं। ‘तीसरी क़सम’ में इस द्वन्द्व की संभावना बीज रूप में मौजूद थी जिसे कुछ हद तक उस पर बनी फिल्म ने भी पकड़ा और विकसित किया था। ‘तीसरी क़सम उर्फ़ महुआ घटवारिन को डूबना होगा’ इस बीज को उसके पूर्ण विकास तक ले जाती है। यहाँ हीराबाई की माँ रूपा देवी और उनकी बुआ चाँदबाई से जुड़ी एक सुदीर्घ अतीत-यात्रा है जिसमें हीराबाई के व्यक्तित्व-विकास के सारे संकेत छुपे हैं। उन संकेतों में हम प्रेम संबंधी उस आत्म-संयम किंवा आत्म-प्रतिबंध/सेल्फ-सेंसरशिप के कारणों को पढ़ सकते हैं जो हीराबाई के व्यक्तित्व में है, और जिसने गाड़ीवान की ओर उच्छल वेग से भागते उसके मन को नियंत्रित कर बेलीक जाने से रोका है। प्रेम और दाम्पत्य उसके लिए, बेशक, अपनी लीक छोड़कर ऐसी बेलीक राह पकड़ना है जो कहीं नहीं जाती। कविता ने उसके मानसिक द्वंद्वों का सूक्ष्म अंकन करते हुए इस वास्तविकता को बखूबी उभारा है।
लड़कियों का काम हिरामन के हिसाब से सिर्फ घर-बार चलाना, शादी और बच्चे पैदा करना है… और कुछ नहीं… फिर उसका काम?
अब थमकर सोच रही हीरा, हिरामन ने कभी उसका सही परिचय नहीं दिया राह भर किसी को, जैसे उसके सही परिचय से कहीं उसे भी कोई परेशानी हो… नहीं पसंद हो मन से उसे उसका काम, स्वीकार नहीं हो जैसे उसे यह सब …
हालांकि उसने यह बात कभी उससे खुलकर नहीं कही…पर उससे क्या होता है?
कही तो उसने कई और बात भी नहीं…पर जानती तो है न वो…
हिरामन नौटंकी देखने भी नहीं आना चाहता था, डरता था कि भाभी को पता न चल जाये… आने भी लगा तो यह तसदीक करने के बाद कि भाभी तक और उसके घर तक यह खबर कोई नहीं पहुंचाएगा, वह जानती है इस डर में डर से कहीं ज्यादा इज्जत शामिल है उनके लिए …उनके कहे के लिए… फिर वो उन भाभी से कह सकेगा कभी कि वह एक नौटंकी वाली को…
भाभी मान लेगी उसकी बात?
वह भाभी जो शारदा-कानून की परवाह किए बगैर उसकी शादी किसी सात साल की बच्ची से करवाने का हठ लिए बैठी हैं… जिसे अपने चालीस साला विधुर देवर के लिए एक कुंवारी कन्या चाहिए…
वह किसी नौटंकी वाली को कैसे स्वीकार सकती है… ? वह भी तब जब आम गाँव वाले नौटंकी वालियों को वेश्या से तनिक भी कमतर नहीं समझते… उनकी नजर में जब जरा भी फर्क नहीं, देह व्यापार में लगी औरतों और नौटंकी में काम करने वाली स्त्रियों के बीच?
उनकी बात अगर छोड़ भी दे, तो खुद हीरा क्या अब वैसी ज़िंदगी बीता सकती है जैसी कोई गंवई औरत? किसी अंजान अंचीन्हे गाँव के किसी अजनबी से घर में? उपले लगाते, चूल्हा जलाते, रोटियाँ बनाते और गाय भैंस पालते हुये…?
वह हीरा जिसकी शामें रोशनी और चकाचौंध के बगैर संभव होती ही नहीं, वह जी सकेगी कभी भला किसी अंधेरे, कच्चे बिना रोशनी वाले घर में ता-उम्र?
कैसे बिता सकती है वह ऐसा जीवन? गृहस्थिन की एक सादा सी भूमिका निभाते हुये रोज-ब-रोज …
हर रोज एक नया जीवन जीने और नयी भूमिका में जान डाल देनेवाली हीरा ऊबेगी नहीं एक यही भूमिका निभाते याकि करते हुये?
इस परिपक्वता के साथ सच्चाई का सामना करनेवाली हीरा प्रेम में आकंठ डूबकर भी अपनी माँ की इस बात को सम्मतिपूर्वक याद करती है कि “प्यार-ख्वाब, सपने ये सब कुछ नहीं होते, बस एक ललक होती है हमारे भीतर, जो नहीं है उसे पाने की… जो हम नहीं हैं वह होने की… इसी को हम देते रहते हैं अलग-अलग नाम…।” मथुरा मोहन कंपनी लौट जाने का फ़ैसला इसी द्वन्द्व का परिणाम है, क्योंकि हिरामन के पास होने का मतलब है, अपने बहकते मन को और ‘जो हम नहीं हैं, वह होने की’ ललक को अनुकूल वातावरण मुहैया कराना। उसे पता है कि वह हिरामन के लिए महुआ घटवारिन जैसी एक प्रेमपात्र बन चुकी है। उसे स्वयं को इस पात्रता के परिणामों से बचाना है। इसीलिए उसका सुचिन्तित निर्णय है कि ‘महुआ घटवारिन को डूबना होगा’। उसके सामने कोई व्यक्तिगत मजबूरी नहीं है। वह आत्मचिंतन में स्वीकार करती है कि सौदागर के हाथों बिकी हुई होने की बात सच नहीं है, क्योंकि मथुरा मोहन कंपनी से उसका अनुबंध कबका समाप्त हो चुका है। उसकी माँ भी अब नहीं है जो उसके जीवन के महत्त्वपूर्ण फ़ैसलों की कमान संभालती थी। यानी वह जो चाहे, कर सकती है… पर समाज तो उसके चाहने की मर्यादा तय करने के लिए अभी भी मौजूद है! उससे बचकर वह कहाँ जाएगी! सार्वजनिक जीवन में उतरी हुई आत्मनिर्भर स्त्री होने और निश्छल प्रेम की लाभार्थी होने में से एक को चुनना होगा। और हीराबाई पहले वाले को चुनती है, क्योंकि दूसरा किरदार शायद पहले वाले का विसर्जन करके भी उसके हिस्से नहीं आएगा।
निस्संदेह, हीराबाई के ऊहापोह के अंकन में कविता बहुत सफल रही हैं। पर इस कहानी की विशेषता यहीं तक सीमित नहीं है। अगर होती तो हम कह सकते थे कि ‘तीसरी क़सम’ फ़िल्म ने इस कहानी का जो पाठ तैयार किया था, उसी में कुछ जोड़-घटाव करके कविता ने अपना काम चला लिया है। वस्तुतः हीरा के साथ-साथ बहुत सधे हुए हाथों से उकेरा गया रूपाबाई और चाँदबाई का चरित्र इस कहानी का एक सशक्त पक्ष है जो कहानी को व्यापक संदर्भ प्रदान करता है। रूपाबाई हीरा की दिवंगता माँ है और चाँदबाई उस माँ की बुआ। नौटंकी की लीजेंड गुलाबबाई की रिश्ते की बहन चाँदबाई ने अपने ज़माने में बहुत ठसक के साथ नौटंकी में काम किया, बाद में अपनी थिएटर कंपनी चलाई। उन्हीं के प्रभाव में रूपाबाई अपनी माँ की अनिच्छा के बावजूद नौटंकी के पेशे में आई और अपने बेटी को भी उसने इसी काम में लगाया। इन दोनों चरित्रों को उभारने में कहानीकार ने अपना पूरा कौशल झोंक दिया है, बावजूद इसके कि हीरा की स्मृतियों की राह से ही कहानी में इनके आने के कारण चरित्र-निर्माण की अनेक युक्तियाँ कहानीकार को सुलभ न थीं। इन चरित्रों की कुशल निर्मिति से हीराबाई की हर क्रिया-प्रतिक्रिया को पाठक के लिए विश्वसनीय बनाने में मदद मिली है।
इसके अलावा दो और विशेषताओं का उल्लेख किये बगैर बात अधूरी रहेगी। एक तो यह कि अवलोकन-बिन्दु के बदलाव से कहानी के स्वर में जो बदलाव आना चाहिए था, उसे कहानीकार ने अनायास साध लिया है। एक गँवई गाड़ीवान के अवलोकन-बिन्दु से प्रस्तुत होने के कारण ‘तीसरी क़सम’ के टोन का निर्धारण जहाँ भोलेपन और मासूमियत वाली प्रतिक्रियाएँ करती हैं, वहीं सार्वजनिक जीवन जीनेवाली एक अनुभव-समृद्ध बाई जी के अवलोकन-बिन्दु से प्रस्तुत होने के कारण इस कहानी के टोन का निर्धारण परिपक्व प्रतिक्रियाएँ करती हैं। आप उन्हीं पात्रों और परिस्थितियों के बीच होकर भी एकदम अलग स्वर और स्वभाव की कहानी पढ़ने जैसा अनुभव करते हैं। दूसरी विशेषता यह कि मूल कहानी के प्रसंगों और वाक्यों को उठाकर हीराबाई की दिशा से उस पर प्रकाश डालने की युक्ति ने रेणु की ‘तीसरी क़सम’ को कहीं बिसरने नहीं दिया है। यह युक्ति सुनिश्चित करती है कि आप रेणु की कहानी को ही एक नयी रौशनी में पढ़ने जैसा अनुभव करें। इस तरह इन दो विशेषताओं के संयुक्त प्रभाव से यह रेणु की कहानी की ही, बिल्कुल अलग स्वर और स्वभाव वाली, एक नयी पढ़त बन जाती है।
इन बिंदुओं को मैं बहुत विस्तार नहीं दे रहा हूँ क्योंकि कहानी सामने है। ये सारी बातें कहानी को पढ़ते हुए ग़ौर की जा सकती हैं। निस्संदेह, ‘तीसरी क़सम’ का यह रचनात्मक विस्तार अपनी ज़रूरत और कृतकार्यता के प्रति हमें आश्वस्त करता है। अपनी तमाम अन्य विशेषताओं के साथ-साथ इस बात की ओर हमारा ध्यान खींचने के लिए भी इस कहानी को याद रखा जाना चाहिए कि देखने की जगह के बदलने से दृश्य किस तरह बदल जाते हैं। हर व्यक्ति का अपना सच होने की बात का अगर कोई मतलब है तो यही।
एक शिकायत शायद की जा सकती है कि तन्मयकारी क्षमता के मामले में रेणु की कहानी के साथ इसका मुक़ाबला नहीं हो सकता। यह शिकायत, बेशक, अगंभीर नहीं कही जाएगी, पर कहीं-न-कहीं यह भोली-मासूम प्रतिक्रियाओं और परिपक्व प्रतिक्रियाओं का भी फ़र्क़ है। ‘लॉस ऑफ़ इन्नोसेंस’ के शिकार हम लोग मासूमियत के प्रसंगों में अधिक रमते हैं, इसमें क्या संदेह!
संजीव कुमार : जन्म: 10 नवम्बर 1967, पटना | पटना विश्विद्यालय से बी ए और दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए, एम फ़िल, पीएच डी | फ़िलहाल: दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर |
किताबें:
- ‘हिन्दी कहानी की इक्कीसवीं सदी / पाठ के पास : पाठ से परे’
- ‘जैनेन्द्र और अज्ञेय: सृजन का सैद्धांतिक नेपथ्य’ (2011 के देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित)
- ‘तीन सौ रामायणें और अन्य निबंध’ (संपादित)
- ‘रिश्तों की कहानियां : दाम्पत्य’ (संपादित)
- ‘बालाबोधिनी’ (वसुधा डालमिया के साथ सह-सम्पादन)
- योगेन्द्र दत्त के साथ मिलकर वसुधा डालमिया की पुस्तक ‘नैशनलाईज़ेशन ऑफ़ हिन्दू ट्रेडिशंस: भारतेंदु हरिश्चंद्र एंड नाइनटीन्थ सेंचुरी बनारस’ का हिन्दी में अनुवाद—‘हिन्दू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरण: भारतेंदु हरिश्चंद्र और उन्नीसवीं सदी का बनारस’
- तेलंगाना संग्राम पर केन्द्रित पी सुन्दरैया की किताब के संक्षिप्त संस्करण का हिन्दी में अनुवाद—‘तेलंगाना का हथियारबंद जनसंघर्ष’ |
आलोचना के अलावा गाहे-बगाहे व्यंग्य, कहानी, निबंध, संस्मरण जैसी विधाओं में लेखन | 2009 से जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नया पथ के सम्पादन से जुड़ाव और 2018 से राजकमल प्रकाशन की पत्रिका आलोचना के सम्पादन की शुरुआत |