तीसरी कसम उर्फ़ महुआ घटवारिन को डूबना होगा…

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कविता

जनाना मुसाफिरखाने में हीरा कबसे मुंह ढांके पड़ी है… न जाने उसे किसकी प्रतीक्षा है… ट्रेन की तो बिलकुल नहीं… पता है उसे कि ट्रेन के आने में अभी कई घंटे का वक्त है… तबतक हीरा करे भी तो क्या करे, सिवाय इंतजार के…. लालमोहन अबतक तो पहुँच चुका होगा फारबिसगंज… क्या अबतक उसकी मुलाक़ात हो चुकी  होगी… क्या अब उसे पता चला होगा कि…

न जाने इसी प्रतीक्षा में कब उसकी आँखें झिप गयी थीं… उसने जो देखा वो कल्पनातीत था एकदम… नौटंकी के ठेठ ठसक में डूबी माँ और उनकी बुआ दोनों सपने में एकसाथ थीं… पूरे रंग में गाती और अभिनय करती हुयी… चाँदबाई और रूपादेवी दोनों एक साथ… ऐसा तो उसने न कभी देखा न सुना था… पर सपना तो सपना है आखिर… सपने में चल रहा है ‘हीर -राँझा’ नाटक का एक दृश्य-

‘कल का सपना तुम्हें सुनाऊँ सुन ले बहन हमारी

सुन ले सखी हमारी -री -री -री  

हाथ पकड़कर ले गए मेरा, ले गए गगन अटारी -री-री-री

हाय ऐसी मैं जागी-सोयी, सुध-बुध न मेरी खोयी

सपने में आए मेरे बालमा-आ-आ-आ  

अँखिया हैं प्यासी-प्यासी, चन्दा है पूरनमासी

अबतक न आए मेरे बालमा…

हाय सपने में आए मेरे बालमा…’

ये दोनों चाहे जिस दुनिया में रहें, क्यों सताती रहती है इनको हीरा की फिक्र… क्यों बूझ लेती हैं ये उसका हाल? क्यो पता होता है इनको सब कुछ… वह चाहे लाख न बताए… चाहे खुद से भी छुपाती रहे… फिर भी.

वह सपने से उबरी भी नहीं अभी ठीक से कि ब्रहमदत्त ने कहा है, लाईन क्लीयर कि घंटी बज चुकी है, ट्रेन बस अब आती ही होगी और सामान उठा लिया है उसका.   

जनाना मुसाफिरखाने के डिब्बे के पास हीराबाई ओढनी से मुंह हाथ ढंककर खड़ी है. हीराबाई के मन में गूंज रही हैं लगातार ‘मिर्ज़ा गालिब’ कि ये पंक्तियाँ –‘थकथक के हर मकाम पे दो चार रह गए / तेरा पता न पायें तो नाचार क्या करें?’

उसे इंतजार है हिरामन का… पर हिरामन आखिर है कहाँ? पिछले दिनों उसने कितनी तो कोशिशें की, कि उससे मुलाक़ात हो सके, लेकिन…

क्या आज भी वह उसे देख नहीं पाएगी… क्या आज भी भेंट न हो सकेगी उससे?

तभी हिरामन दूर से एकदम भागता-सा आता दिखा है उसको…क्षण भर को उसकी आँखों की चमक लौट आई है, लालमोहन से मुलाकात हो गयी शायद…

फिर न जाने क्या सोचकर एकदम से उदास हो गयी है हीरा… हिरामन को थैली बढाते हुए कहती है – ‘लो.. हे भगवान भेंट हो गई चलो… मैं तो उम्मीद ही खो चुकी थी कि तुमसे अब भेंट हो सकेगी…’

कुरते के अन्दर से थैली निकालकर दी है हीराबाई ने… चिड़िया की देह की तरह गर्म है थैली…मैं जा रही गुरूजी…उसने कहा था…

जैसे वह खुद को ही तसल्ली दे रही हो कि बात बस इतनी सी ही तो थी…कि इसी थैली को लौटाने के लिए तो वह हिरामन को खोज रही थी. कि अच्छा हुआ मिल गया वह… कि उसकी धरोहर लौटाए बगैर कैसे जा सकती थी वह…

उसकी गाढ़ी कमाई के वो पैसे उसे वापस तो करने ही थे न…

हिरामन थैली लेकर भी चुपचाप खड़ा है…

हीराबाई भी मन ही मन सोच रही है- अब?…  अब क्या?…  अब और क्या?…

ब्रहमदत्त ने मुंह बनाते हुए हीराबाई की ओर देखा, जैसे कह रहा हो – ‘इतना ज्यादा भी क्या?

हिरामन ने देखा बक्सा ढोनेवाला आदमी आज कोट पतलून पहनकर बाबू साहब बना हुआ है… मालिकों की तरह कुलियों को हुक्म दे रहा है.- ‘जनाना दर्जे में चढ़ाना. अच्छा.’

पर अपना मन तो हीरा ही जान रही… न जाने कैसा कच्चा हुआ जा रहा उसका जी … जैसे देह ही है केवल जिसे वह घसीटकर लिए जा रही… मन तो कहीं यहीं छूटा जा रहा… खुद को दी जानेवाली समझाइशें-दलीलें अभी-इस वक्त उसे बहुत खोखली-सी लग रही हैं. जैसे मन पर काबू ही न रह गया हो उसका… हीरा मन-ही-मन बुदबुदा रही है कुछ…  

वह कह रही है –‘मैं फिर लौटकर जा रही हूँ मथुरा मोहन कंपनी. अपने देश की कंपनी है… बनैली मेला आओगे न..

हिरामन एकदम से निर्वाक है…

हीराबाई ने हिरामन के कंध पर हाथ रखा है… फिर अपनी थैली से रुपया निकालते हुए बोली है- ‘एक गरम चादर ले लेना…

जैसे कुछ भी, कुछ भी, करना हो उसे हिरामन के लिए…उसका दुःख जो इस वक्त उसके भौंचक से चेहरे पर मुंह बाए खड़ा है, उसे दिलासा देनी है…सांत्वना के दो बोल कहने है…कि उसके चले जाने से कुछ भी, कुछ भी नहीं बदलनेवाला…कि दूर जाते हुए भी उसे उसकी चिंता है… दर्द है मन में उसके लिए ..॰

वह सहेजना चाह रही उसका मन हौले हाथों. जैसे कोई माँ सहेजती है किसी नवजात बच्चे को…जैसे कोई नन्हा बच्चा हौले-हौले सहेज रहा हो बहुत प्यार से अपने हाथों में कोई नन्हा शावक…

यह सांत्वना जैसे वह ‘खुद’ को भी दे रही… जैसे हिरामन को नहीं ‘खुद’ को ही समझा रही हो वह…

हीराबाई को जैसे पता ही नहीं, वह कर क्या रही है? कह क्या रही है? बस जैसे सब खुद-ब-खुद हुआ जा रहा है…

पैसे देते ही हठात उसे जैसे अपनी गलती का भान हो आया है… यह क्या कर दिया उसने बेखयाली में…कि उसे याद हो आई हैं उसकी वो कातर गीली आँखें… फारबिसगंज मेले के रौता थियेटर में उसे पहुंचाने वाला हिरामन याद हो आया है, जिसकी आँखों में दक्षिणा–बख्शीश के लिए एक गहरी नागवारी थी, यहाँ तक कि वहाँ पहुँचने पर उसने जब रात को हिरामन को खाने के लिए पैसे दिये थे, उसने तब भी एकदम से इंकार कर दिया था… उस वक्त एक क्षोभ और बेबसी थी उसकी आँखों में…कि जैसे यह सब करके वह हिरामन को पराया किए दे रही, पर मुंह से हिरामन ने एक अक्षर भी न बोला था…जड़ बना रहा था…उसी ने उस वक्त माहौल को हल्का करने के लिए कहा था- ‘कल सुबह रौता कंपनी में आकर भेंट करना…पास बनवा दूँगी…

…पर अबकी हिरामन चुप नहीं रह पाया…उसके बोल आखिर फूट ही पड़े हैं -‘इस्स… पैसा-पैसा. हरदम रुपैया–पैसा. रखिये रुपैया… क्या करेंगे चादर…

हीरा का हाथ रुक गया है. उसने हिरामन के चेहरे को गौर से देखा है … फिर ‘खुद’ को ही जैसे समझाते हुए कहा है- ‘तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है. क्यों मीता?

महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद लिया है गुरु जी…

इस एक पंक्ति के सम्बोधन में ही मीता से गुरूजी तक जानबूझकर पहुंची है हीरा… मीता को छोड़कर जाना इतना आसान तो कहाँ होता… यूं भी मीता से शुरू होनेवाली उनकी सम्बन्ध यात्रा अबतक न जाने कितने पड़ाव पार कर चुकी है. कि जान बूझकर वह इसे आगे बढ़ाती रही है, समझाती रही है अपने मन को बार-बार – ‘जिस गली जाना नहीं, उसकी राह काहे को पूछना…’

पहले जब उसने उस अंजान गाड़ीवान को भैया कहा था तो कुछ सोच-बूझकर ही कहा था… पर बाबला उसका मन थोड़ा सा खयाल, थोड़ा सा अपनापन, थोड़ी सी महत्ता पाते ही एकदम से अनजान से उसे ‘मीता’ बना बैठा. उसने अपने इस बेबस मन को बहुत कसके डपटा था– ‘हद है माने… ‘

उस दिन ठीक उसी वक्त हिरामन ने अपने बैलों को संटी मारी थी –‘ रास्ता देखकर नहीं चलते ससुरे… बस कहीं भी मुड़-मुड़ा जाना है. गड्ढा–खाई कुछ नहीं दिखाई देता… प्रत्यक्षतः उसने उसे मना किया था –‘ मारो मत’. लेकिन मन-ही-मन उसने अपने इस बहकते मन को भी जैसे कसकर डपटा और एक छड़ी लगाई थी… मीता नहीं…

उस्ताद…

गुरूजी…

पर मन था की मचलता रहा था उसका… जिसे बाँध-बूँधकर जबरन वह अपने जकड़-पकड़ में कसे रहना चाहती थी, वह उसके कस-बल से हर पल उड़ जाने को बेसबर रहता …

बाद में वह यह जान पायी. कई बार हिरामन यह इसलिए भी करता है कि वह कुछ बोले, चुप न रहे यूं… कि उनके बीच संवाद की लय न टूटे, एक भी पल को…

जानती है हीरा कि किसी सौदागर ने नहीं खरीदा उसे. वह झूठ कह रही है, हिरामन से यह सीखने-जानने के बावजूद- ‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है…’ फिर भी यह झूठ, कहें तो पूरी तरह से कोई झूठ भी नहीं… ठीक है कि अभी कहीं वह बिककर नहीं जा रही… लेकिन वह तो तेरह वर्ष की उम्र से ही बिकी हुयी है… उसे जन्म देनेवाली माँ ने ही…महुआ घटवारिन की माँ की तरह… जबकि उसकी माँ तो सगी थी… महुआ घटवारिन अपने हर विपत-काल में अपनी माँ को यादकर जार-जार रोती है-… वह किसे याद करके रोये?…

उसने बहुत सोच-समझकर तय किया है सब… गलती से या फिर किसी मजबूरी की तहत उसने यह नहीं किया…

उसका मन रो रहा है इस वक्त हिरामन के लिए… वैसे उसे रोना तो चाहिए था माँ के लिए… कि यह उन्हें याद करके रोने के ही तो दिन हैं… पर वह उन्हें याद नहीं करती इन दिनों… बल्कि वह तो वह जगह, वह शहर, वह कम्पनी, वो सारी यादें और चीजें सब पीछे छोड़कर चली आई थी जिससे माँ का साबका था, जिससे माँ का कोई करीबी रिश्ता रहा था कभी…  कि अब माँ नहीं है… कि वह आजाद है अपना जीवन जीने को… अपनी तरह से जीने को… अपने सपने देखने और पूरे करने को… वह चाहे तो नाटक कम्पनी छोड़ सकती है, चाहे तो दूसरी नाटक कम्पनी भी जा सकती है… चाहे तो सो सकती है कई-कई दिन. कोई नहीं अब उसे रोकने-टोकने, जगाने और उठाने वाला …

अपनी मनःयात्रा से अचानक हीरा का लौटना हुआ है …ब्रह्मदत्त ने जैसे उसकी मनःस्थिति को भांपते हुए जोर से कहा है-‘ गाड़ी आ गई …’

वही ब्रह्मदत्त जिसे हिरामन बक्सा ढोने वाला बाबू कहता और जानता है… ब्रह्मदत्त माँ के प्रिय-पात्रों में से रहा है, उसका मैनेजर तो वह बहुत बाद में हुआ. उससे बहुत पहले से वह माँ के लिए काम करता रहा है… माँ के नहीं होने पर वह अब माँ की भूमिका में कुछ ज्यादा ही रहता है… वही तीखी नजर, वही दूर-दृष्टि… जो भांपती रहती है सबकुछ… हीरा का मन और उसके मन के सारे विचलन …

ब्रह्मदत्त ने ठीक नौटंकी के जोकर के नाई मुंह बिगाड़कर कहा है –‘ लात्फारम से बाहर निकलो, बिना टिकट के पकड़ाओगे तो तीन महीने की हवा…

हीरामन मन मसोसकर रह गया है जैसे, कुछ बोलते-बोलते… हीरा ने प्रतिरोध में कुछ भी नहीं कहा, चुप रह गयी है वह भी अबकी…

गला भर आया है हीरा का…

गाड़ी में बैठकर भी वह हिरामन को ही देख रही है टुकुर-टुकुर …

गाड़ी की गति तेज हुयी है… हिरामन कहीं पीछे छूट गया है. हीरा ने अपनी गीली आँखों को अपने बैंजनी रुमाल से हौले से पोंछा है… उसने उसके द्वारा झटक दिये गए उस नोट को बहुत सहेजकर रखा है अपने थैले में… सात तह कागज के बीच रख एक दूसरी नन्ही सी लाल थैली मैं बंद करके… फिर अपनी बड़ी वाली चमड़े की थैली के भीतर संजोकर…ऐसा करते हुये एक शेर उसके दिमाग में लगातार घूमता रहा था– ‘रंजे सफर की कोई निशानी तो पास हो / थोड़ी सी खाके-कूच-ए-दिलबर ले चलें’. उसके पास तो दिलबर की एक निशानी तक नहीं, खाक भी नहीं… बस यह नोट रह गया है, जिसे हिरामन ने रंज में उसे वापिस कर दिया था. हिरामन का स्पर्श है, इस कागज के छोटे से टुकड़े में. हीरा को इसे सहेजे रखना है, हर-हमेशा अपने साथ…

कुछ चीजें, याकि लोग भी यूं अटके रहते हैं मन में जैसे हलक में अटकी सांस… या फिर कौर.. कि हम उसे भीतर न खींच पायें ठीक से, न उगल देने को ही जी चाहे…वे पिछुआते रहते हैं देर तक और दूर तक

…और हम? हम उन्हें देखने से याकि उनका अस्तित्व स्वीकार करने से इंकार करते रहते हैं… तबतक जबतक वो दिखना बंद न कर दें. फिर हम चौंकते हैं कि यह हुआ तो क्या और हुआ तो कैसे …थमककर सोचते हैं… मन है कि पीछे ही कहीं अटका रहता है….शायद उनकी अंतहीन प्रतीक्षा में …

हिरामन कहीं नहीं है अब उसके सामने, पर चारों और वही क्यूं दिख रहा… उसके साथ बीते दिन भी क्यूं पिछुआते आ रहे उसको …

हीरा हर रोज जिन्दगी जीने के कुछ नए फलसफे तलाशती है, रोज शाम उसे किसी बुद्धू बच्चे के द्वारा याद किये गए सबक की तरह गुमा या बिसरा देती है…और फिर रातों को वह उस सबक को हल करने या फिर से ढूंढ लेने के तरीके तलाशते हुए गुजारती है…  फिर एक नया दिन, नयी जिद, नयी तलाश… उसके भीतर जो एक बच्ची है, वो इतनी बुद्धू क्यूं है?  …और उससे भी ज्यादा जिद्दी क्यूं? सोचती है हीरा…

सामान सारा उसका कुली ठीक तरह से जमाकर रख गया है… सामने की सीट पर कोई यात्री नहीं… ऊपर एक बुजुर्ग सज्जन जरुर सो रहे गहरी नींद…वह सोच रही है अगला-पिछला सारा …सबकुछ… भूख और नींद तो जैसे फटक भी नहीं रहे उसके आसपास…

हीरा कानपुर जा रही है अभी… पर क्या करेगी वहाँ जाकर यह उसे खुद नहीं पता… मथुरा-मोहन कंपनी वापिस लौटने का उसका बिलकुल जी नहीं…फिर उसने हिरामन से मथुरा-मोहन कंपनी का नाम लिया तो क्यों लिया आखिर?  बस इसलिए कि ब्रह्मदेव ने यही तो कहा था उससे…

मथुरा मोहन कंपनी से उसका राब्ता बहुत पुराना है… पीढ़ियों पुराना… उसकी माँ रूपादेवी ने वहाँ बरसों काम किया… उससे पहले थोड़े दिन उसकी माँ की बुआ चाँदबाई ने भी…उसकी माँ की बुआ चाँदबाई जबतक थीं, मथुरा मोहन कम्पनी में रानी बनकर रहीं…फिर उन्होंने अपनी थियेटर कम्पनी खोल ली. माँ को भी वहां के लोग बहुत प्यार और सम्मान देते फिर भी चाँदबाई से ज़रा कम ही… कि माँ को मिलने वाले सम्मान में थोड़ा हिस्सा इस बात का भी होता कि वह चाँदबाई की भतीजी है… हीरा को यह सम्मान तिगुना होकर मिला…

उसकी माँ के मुंह पर हमेशा अपनी बुआ का नाम रहता… अपनी माँ से भी कहीं ज्यादा… कि चाँदबाई थी भी इसी योग्य… रूप-गुण सब में बेमिसाल. तब तूती बोलती थी चारों तरफ उनके नाम की…नौटंकी की इस अदाकारा ने सफलता की नित नयी उंचाइयां छूते हुए खुद अपने थियेटर ‘दी ग्रेट चाँद थियेटर’ की शुरुआत की थी. कानपुर के रेल बाजार में रह रहीं चाँदबाई ने नौटंकी में अभिनय के साथ-साथ स्क्रिप्ट और गानों की रिकार्डिंग में भी अपना योगदान दिया. बड़ी जीवट वाली काया थी चाँद की. एकदम से जिद और धुन की पक्की. तभी तो नौटंकी की दुनिया जो आदर्शवादिता और सिद्धान्तवादिता के लिए एकदम भी माकूल जगह नहीं, उसी में रहते और जीते हुए चाँद ने अपनी एक अलग दुनिया रची. आम नौटंकी कम्पनियों से अलग एक बहुत सुन्दर और खूबसूरत दुनिया… उनकी कंपनी के नाटकों में शराब पीकर किसी को घुसने की इजाजत नहीं थी. तम्बाकू, भांग याकि नशे की कोई अन्य वस्तु भी खाकर या लेकर नहीं… इनका सेवन करके आनेवालों को चाँद बेख़ौफ़ थियेटर से बाहर का रास्ता दिखला देती…  वह वो सब करती चली गयी थीं, जो उन्होंने मन में ठान लिया…

उसी चाँद की सगी भतीजी थी उसकी माँ- ‘रूपा रानी.’ बुआ के कारण ही उसकी माँ आई थी इस पेशे में…उन पर अपनी बुआ का इतना प्रभाव था कि उन्होंने अपनी माँ की एक नहीं मानी… उनकी माँ चाहती थी, वे पढ़े-लिखे. अपनी गृहस्थी बसाए. एक आम औरत की जिन्दगी हो उनके हिस्से… पर माँ की जिद थी कि उन्हें नाचना है, अभिनय करना है, बुआ की तरह शानो-शौकत और ऐशो-आराम से जीना है. अपनी माँ की तरह उन्हें बिलकुल नहीं बनना …उनकी माँ अवश थीं कि आश्रित था उनका परिवार चाँदबाई पर. उसके पिता चाँदबाई के सगे इकलौते भाई थे…चाँद के काम-काज को संभालने के सिवा उनके पास दूसरा कोई आमदनी का स्त्रोत भी नहीं था. इससे पहले वे बेड़िया जनजाति के अन्य मर्दों को तरह छोटी-मोटी चोरी-चकारी का काम करके ही तो अपना जीवन-यापन किया करते थे॰ उसके पिता को जब उसकी माँ से प्रेम हुआ, चाँदबाई ने ही उनकी शादी करवाई और हमेशा साथ ही रखा अपने भाई-भावज को… माँ का परिवार इसीलिए हमेशा शुक्रगुजार रहा बुआ का…

इसीलिए वे न अपनी बच्ची की ईच्छा का गला घोंट सकी थी, न अपनी ननद की बात का विरोध ही कर सकीं…  माँ की माँ यानी हीराबाई की नानी को समझनी पड़ी थी उनकी बात… कि समझने के सिवा और कोई चारा भी कहाँ था उनके पास–‘ क्या करेगी रूप पढ़-लिखकर और गृहस्थी बसाकर? मैं नहीं कहती कि वह तालीमयाफ्ता नहीं हो. अपना काम करते हुए ये वो सब करेगी …और किसी स्कूल जाने वाले बच्चों से कहीं बेहतर तालीम दिलवाउंगी इसे …

रही बात इसके ब्याह की, तो दो रोटी के एवज में क्या दिन भर अपना हाड़ तोड़ेगी रूप? और फिर रूखा-सुखा, बचा-खुचा कुछ खाकर जीती रहेगी? मरती–खपती रहेगी जीवन भर अपने परिवार के लिए? बदले में चाहे कुछ मिले याकि नहीं…?

तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा कि रूप खुदमुख्तार हो? अपना ही नहीं दूसरों का भी घर और पेट चलाये? लोग उसे उसके नाम से जानते हों, उसके नाम की धाक हो हर तरफ… ?

हम बेड़िनियां है भाभी, हमारा काम ही है नाच-गाकर अपनी रोजी-रोटी चलाना…और पुरुषों के लिए चोरी-चकारी और जरायम… हमें घर-गृहस्थी के सपने क्या देखना?  अपनी जाति के किसी पुरुष से शादी कर भी ली अगर, तो भी हमारा जीवन सुधरने याकि बदलनेवाला नहीं… और कोई समझदार, पैसेवाला याकि गुणी इंसान हमें अपनी घर–गृहस्थी में लेगा भी तो सिर्फ दयावश. उसमें कितनी इज्जत होगी, कितना सम्मान और कितना प्यार यह तो तुम्हें भी पता है…रूप अगर खुद ऐसा चाहती तो मैं फिर भी कुछ नहीं कहती तुमसे… लेकिन जब वही नहीं चाहती तो …’ वे समझावन में छिपे उस तंज को भी बखूबी बूझ गयी थी… सच भी है कि एक आम स्त्री की तरह घर-बार बसाकर उन्होंने भी कौन से तीर मार लिए थे…           

उसी विद्रोही माँ ने उसके मन की एक नहीं सुनी थी, न चलने दी थी रत्ती भर भी उसके मन की… अपनी राह अपनी माँ की ईच्छा के विपरीत जाकर चुननेवाली, उसकी वही जिद्दी माँ …. कि जिद तो उन्हें अपनी बुआ से विरासत में मिली थी और कोई भी जिद्दी इंसान हमेशा अपने मन की ही करता-चाहता और सुनता है, वह चाहे माँ बन जाए या फिर बिटिया रहे, इससे कहाँ कोई फर्क पड़ता है…

माँ ने तेरह बरस की उम्र में ही उसे भी इस पेशे में डाल दिया था…अगले 20 बरसों के लिए वह मथुरा मोहन  कम्पनी से बंध चुकी थी, जिसे छोड़कर किसी और कम्पनी में उसका जाना संभव नहीं था. माँ ने ऐसा ही कागज़ बनवाया था और इसके एवज में एक बहुत मोटी रकम मिली थी उन्हें…

वैसे भी इसकी तैयारी तो उन्होंने उसके बचपन से ही शुरू कर दी थी …उसको देखते ही माँ की मुंह से यही बोल फूटे थे – मेरी हीर… एकदम हीर है यह तो…उसे हीर पुकारकर उसकी माँ ने उसी समय उसकी नियति लिख दी थी, हीर जैसी ही नियति…  उसके नक्श, रूप, रंग और कोमलता को निहारते वो अघाती नहीं, कहती तो बस यही कहती –‘ हीर को देखनेवाले एक दिन भूल जायेंगे उसकी माँ का नाच, गायन, अभिनय सब… वे भूल जायेंगे कि कोई रूपा रानी भी हुआ करती थी कभी नौटंकी की दुनिया में…बस हीर को बड़ी होने दो.’

हुआ भी ठीक वही जिसका उन्हें पक्का यकीं था…

उसके नौटंकी में आने के कुछ दिन बाद माँ ने नाचना छोड़ दिया था… कि यूं भी उम्र ढलने को आ रही थी…लेकिन माँ को उसने हमेशा उसके कार्यक्रम के बाद मंच पर आकर दादरा, ठुमरी, रसिया गाते सुना. उन्होंने कभी अभिनय नहीं किया पर गीत जरुर गाती रही- ‘बान नैनों का जानूँ मैं, मारा हमें/ मारा हमें, मार डाला हमें …या फिर ‘हमरी अटरिया पे आना रे साँवरिया’ जैसे ठुमरियों की उनकी अदायगी उसे आज तक लुभाती हैं…लेकिन वो जिस दादरा को बहुत रश्क, अहद, मन और जुनून के साथ गाती वह थी  -‘नदी  नारे न जाओ श्याम पैयां पडूं ‘.वह कहती बुआ जी भी इसे ऐसे ही गाया करती थीं. वे बहुत गर्व से अक्सर कहा करतीं ‘इस गीत को नौटंकी की पहली महिला ‘गुलाबबाई’ ने सजाया है.’ वही गुलाबबाई जो रिश्ते में उनकी बुआ की बहन लगा करती थीं…

माँ का मोहभंग शुरू हो चुका था उन दिनों नौटंकी की दुनिया से… यह मोहभंग भी उन तक उनकी बुआ से ही होकर आया था…बाईस्कोप यानी फिल्मों के आगमन ने हिलाकर रख दिया था चाँदबाई को… उनकी थियेटर कम्पनी को…जिस विधा के लिए उनका पूरा जीवन समर्पित रहा, उन्हें लग रहा था उन दिनों वो अपनी अंतिम साँसे गिन रहा अब ….उनकी उम्र ढल रही थी, रूपा रानी में इतनी क्षमता नहीं थी कि अपनी बुआ के बाद वे उनका थियेटर संभाल सकें. उनको दिये गए तमाम उम्दा तालीम के बावजूद… वे अच्छी नृत्यांगना तो जरुर थीं, पर आला दर्जे की अभिनेत्री और गायिका कभी नहीं हो सकीं… थियेटर चलाने के लिए जरुरी अन्य तमाम तजुर्बात और गुणों की तो बात ही दीगर है…

चाँद को लगता था, रूपा के भीतर के कलाकार की कला को परखने में उनसे कोई भूल हुयी… कि उसकी जिद को वे अपने दंभ में घुला-मिलाकर उसे एक कलाकार की पीड़ा और तड़प के रूप में देखती रहीं, जबकि उसकी वह जिद बस बुआ की प्रतिलिपि बनने की कहीं ज्यादा थी, कलाकार बनने की अपेक्षाकृत कम…कला की दुनिया में तो बस एक ही चीज काम आती है- प्रतिभा और लगन… प्रतिलिपियों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं होती  …

या फिर यह उसकी माँ की बद्दुआयें थी जिसने …चांदबाई यह सोचकर एक लंबी उसाँस लेती…  

उन्होंने बहुत सोचने–विचारने के बाद भतीजी से कहा था एक दिन  – ‘थियेटर की  दुनिया में  कल की निश्चिन्तता तो कभी भी नहीं रही, अब तो हाल और बुरे हैं… जानती हूँ जबतक तुम्हारे जिस्म में ताकत है, तुम नाचती रहोगी… और तुम्हारी नाच के कद्रदान भी तब तक रहेंगे… लेकिन उम्र भी एक बड़ी शै होती है… उम्र ढलने लगी है अब तुम्हारी रूप!… मिले तो कोई साथी ढूंढ लो वक्त रहते… कि ज़माना बदल रहा है…

तुम्हारा जहान अगर अब भी बस गया तो इससे तुम्हारी माँ की आत्मा को शान्ति मिलेगी…

रूप सोचती रही थीं, यह बुआ कह रही हैं क्या? वे उससे कह रही हैं… ? वह भी अब…  क्यों?

अब कौन…?

यह उनकी बुआ के सीख से हुआ था कि उनकी माँ की दुआओं से, हरिहर सेठ जोकि इत्र के एक बड़े व्यापारी थे, माँ की जिन्दगी में ठीक उन्हीं दिनों आ शामिल हुये थे किसी अचंभे की तरह…चाँदबाई देखती कि रूप उन दिनों अक्सर गुनगुनाती रहती हैं – ‘सखी री, तेरी डोलिया उठाएंगे कहार… सइयाँ खड़े है तेरे द्वार …’ धन-दौलत, शानो-शौकत किसी भी चीज की कोई कमी नहीं थी हरिहर सेठ के पास. माँ से उनका जुड़ाव उनकी पत्नी भी जानती थी…  वो जानती थी, उनका रूपा रानी के लिए प्रेम, उन्हें यह भी पता था उनकी एक समानांतर गृहस्थी है… उन्हें  इससे कोई उज्र नहीं था. जिद थी तो बस इतनी कि रूपा इस घर कभी नहीं आएगी… ये बस उनका घर है…

कहीं-न-कहीं उन्हें एक आशा भी थी, रूपा दे दे शायद उनके डूबते वंश को कोई चिराग… कमी इतनी-सी ही तो थी वे और हरिहर सेठ सिर्फ तीन बेटियां के ही माता-पिता थे…  

हरिहर सेठ के प्रेम में आकंठ डूबी माँ का मन थियेटर से इन दिनों उखड़ा –उखड़ा रहने लगा था, वे कभी कभार ही जाती स्टेज पर, लेकिन इसमें भी उनके अपने मन से कहीं ज्यादा उनकी बुआ का मन सम्मिलित होता… वही बुआ, जो चाहती थीं  रूपा एकदम से थियेटर की दुनिया से मुंह न मोड़ ले…

छूटता, छूटता छूट ही चला था उनसे थियेटर की दुनिया का मोह… नौ महीने की उन दुश्वारियों का उसमें जितना हाथ था, उससे कुछ कम नहीं था हरिहर सेठ के उसके और उसके बच्चे के लिए लगाव और उछाह का …

इस उमंग और उछाह में भी वे उससे बार-बार यह कहना न भूलते-‘ उनके बेटे के होने के बाद रूप थियेटर एकदम से छोड़ देगी, है न…? उनके परिवार और उनके बच्चों के लिए ही होगा उसका सारा वक्त?’

रूपा जबाब में एकदम से चुप रह जाती …

हालांकि मन से पूछे कोई उसके तो वह भी तो यही चाहती थी… पर कहती नहीं थी एकदम से कि बुआ जी कहती थी -.’ थियेटर करना कि न करना, पर छोड़ने की हामी कभी नहीं भरना, न इसकी घोषणा करना कभी सरेआम… किसी के भी कहे नहीं… कभी भी नहीं’…

उसके हाँ-ना कुछ भी नहीं कहने के बावजूद उनके रिश्ते पर तब कोई भी आंच आती नहीं दिखी थी… वे दोनों आनेवाले खूबसूरत दिनों के और अपने होनेवाले बच्चे के सपने में डूबे रहते दिन-रात …

पर शायद उनके सपनों को उनकी ही नजर लग गयी थी…

नौ महीने से कुछ वक्त पहले ही रूपा ने हीर को जन्म दिया था… गुलाब की कोमल पंखुड़ियों-सी सुन्दर, नर्म और गुलाबी हीर. उसके होने की खबर मिलते हीं उसके पिता उनका घर छोड़ अपने पुराने घर चले गये थे… फिर पलटकर न कभी उसकी माँ को देखा, न नन्हीं हीर को, न ही कभी उस घर को…हाँ, तरह -तरह से यह जतन जरूर किया कि रूपा यह यह काम, यह शहर छोडकर अपनी बच्ची के साथ कहीं और चली जाये…  लेकिन माँ भी कम जिद्दी नहीं थी… अपनी बुआ जैसी जिद्दी. माँ ऐसे में बस बुदबुदाने जैसा गाती रहती – ‘दैर नहीं हरम नहीं, दर नहीं आस्ताँ नहीं / बैठे हैं रहगुज़र पर हम, कोई हमें उठाए क्यूँ?/ दिल ही तो है न संगो-खिश्त…

उस समय चाँदबाई ने ही सम्भाला उसकी माँ को… उसको… हीर को देखकर उनके अन्दर एक नयी जान आ गयी थी जैसे… वे उसका इतना ख्याल रखती जितना अकेली उसकी माँ से संभव न होता कभी… सवा महीने की हुयी होगी वो कि उसकी माँ को उन्होंने फिर से जीवन के अखाड़े में लगभग धकेल ही तो दिया था, वे उसे फिर से थियेटर करने को तैयार कर चुकी थी… माँ बेमन होगी कुछ तो उन्होंने उनसे कहा था-‘ अब सब इसके लिए करना है तुझे… जीना है इसके लिए…

अपने हिस्से का यश, नाम, प्रेम, छल सब तो जी चुकी हो तुम… अब सब बस इसके लिए…

माँ निष्फिक्र थी उसकी तरफ से कि उसके लिए उसकी बुआ थी, वह उसकी चिंता से निश्चिन्त रहती एकदम… यह माँ पुरानी रूपा रानी न थी. दर्द, जिन्दगी और जिन्दगी के दिए छालों ने उन्हें बिलकुल नया–नकोर कर दिया था… अब उनमें, उनके काम में उनकी बुआ झलक मारती रहती …पर इस सबमें एक लंबा वक्त लगा था… अब उनके हिस्से उम्र तो थी पर उतनी भी नहीं, जितनी थियेटर में आई नयी–नवेलियों के हिस्से होती है, रूपा भी अपने हिस्से की इस सच को बखूबी जानती थी कि वे अब अपने उम्र के ढलान की सीढियां उतर रही थीं धीरे-धीरे …ऐसे में हीर के भविष्य की चिंता उन्हें परेशान करती रहती…

हीरा को बखूबी याद है, एक दिन अचानक मिल गए थे उसके पिता कहीं उसकी माँ को, नन्हीं हीर भी तब उनके साथ थी. उनकी उंगलियाँ थामे. पिता ने शायद उसे पहली बार देखा था. देखकर उसे कुछ देर को जैसे ठिठक से गए थे वे. उसकी स्वाभिमानी माँ अपना स्वाभिमान झूठा और छोटा करके भागती हुयी पहुंची थी उनतक और अपने आंसुओं से धुंधलाती आँखों से पूछा था उनसे –‘आपको अपनी बेटी की परवाह नहीं?  आपको इस नन्हीं सी जान का भी खयाल नहीं आता कभी?

उसके पिता हठात कुछ कहकर एकदम से निकल लिए थे…, उसकी माँ भी कुछ देर बाद समझ पायी थी  उनके कहे को… उन्होंने कहा था- ‘नहीं… उसके पास उसकी माँ है और उसकी माँ बहुत प्रसिद्ध और समर्थ है…

यह उसके पिता से हीर की पहली और आखिरी मुलाक़ात थी…पर इसे कभी नहीं भूल सकी वह… माँ की उदासी को देखकर नन्हीं सी हीर ने तब मन-ही-मन कसम खायी थी… एक जिद भरी कसम- ‘वह अपने पिता से कभी नहीं मिलने जायेगी… कभी बात नहीं करेगी उनसे, उस दिन की तरह कभी बीच रास्ते कहीं मिल जाए तब भी नहीं …’

खैर राह चलते हुए उनसे फिर कभी मुलाक़ात नहीं हुयी, पर पिता से मिलने जाने का कभी मन भी नहीं हुआ उसका, कि एकदम बचपन में ली गयी वह शपथ उसे हमेशा याद रही…

आईना में अपनी आँखें देख आज भी उसे पिता याद आते हैं, उनकी आँखें याद आती हैं, कत्थई और नीले के बीच के रंग की-सी उनकी वे दरमियानी आंखें… वही जो रूप के चेहरे को एक अलग पहचान देती है हमेशा…  पिता…  जिसके लिए उसे अब ये भी पता नहीं, वे जीवित भी हैं कि…

यूं भी क्यों जानना चाहती हीर यह? जबकि उसकी माँ ने भी कभी उनका नाम नहीं लिया उस दिन के बाद… माँ और वह तब भी नहीं रोई, जब उन्होंने यह जाना कि हरिहर सेठ की पत्नी ने अपनी सबसे छोटी बहन, लगभग उनकी सगी (दूसरी) बेटी की हमउम्र से उनका रिश्ता करवा दिया, जिससे उन्हें अब एक बेटा भी है…

यही वे दिन थे, जब चाँदबाई की मृत्यु हुयी थी, माँ तब भी नहीं रोई थी…

अपने सबसे बड़े भरोसे और सहारे के चले जाने पर भी नहीं…

उसकी उचित शिक्षा-दीक्षा और रहन-सहन पर अब चौबीसों घंटे खयाल रहता उनका…उसे बार-बार वे  समझाती…ये दुनिया लड़कियों के लिए उतनी सहज, सरल और सुंदर नहीं, तरह-तरह के मर्द मिलेंगे इस दुनिया में… सब प्यार और उससे भी ज्यादा कहीं शरीर पाने को आतुर… हाथ पकड़ने को एकदम ललचाये हुये… पर अपनाने को तुम्हें कोई आगे नहीं आयेगा…

वे उसे घबड़ाती जानकर कहती- इन शोहदों-मनचलों और प्रेम प्रस्ताव लेकर मुंह उठाए चले आए बुजुर्गों से भी निबटने के तरीके हैं उनके पास… कि डरने जैसी भी कोई बात नहीं…

वे उसे बताती-समझाती, बुआ ऐसे में क्या करती थी …कि वे क्या किया करती थी… हाँ वे भी प्रेम में पड़ हीं गयी एक बार… पर तब जब उन्होंने पड़ना तय किया… तब जब उन्होंने ऐसा चाहा… उसे प्रेम के, गृहस्थी के, झूठे वादे याकि जाल में उसे बिलकुल नहीं आना… बार-बार वह समझाती उसको –‘उसे चांदबाई बनना है, रूपा कुमारी नहीं बनना… कमजोर नहीं पड़ना…कमजोर मन वाली स्त्री को ये समाज गिद्धों की तरह नोंचकर किनारे लगा देता है…

माँ ठीक ही कहती थी- ‘प्यार-ख्वाब, सपने ये सब कुछ नहीं होते, बस एक ललक होती है हमारे भीतर, जो नहीं है उसे पाने की… जो हम नहीं हैं वह होने की… इसी को हम देते रहते हैं अलग-अलग नाम… जिस दिन हम अपने जीवन से संतुष्ट हो लें, समझो सब कुछ सार्थक लगने लगता है… सुंदर भी उसी दिन और उसी वक्त से… संतुष्टि बहुत बड़ी चीज होती है हीर… वह जिस दिन मिल गयी, समझो बड़ी नेमत मिल गयी…

वो सच ही तो कहा करती थी…

पर तब कहाँ समझती थी यह सब हीर ….

अब सोचती है तो लगता है- माँ का सपना था बुआ जैसी बनना, जब वे नहीं भर पायी उनकी खाली जगह तो वे हीर को उसी रूप में ढालने लगीं…

या फिर कहीं उसके पिता से बदला तो नहीं ले रही थी वो…?

इसीलिए वो इतनी दृढ थी कि उससे नौटंकी ही करवाना है, कि हरिहर सेठ भी देखें कि भले हीं वो एक थियेटर वाली को अपने परिवार का हिस्सा नहीं बना सके, लेकिन अब उनकी बेटी, उनकी सगी बेटी, उसी थियेटर का हिस्सा है… वही बेटी जिसे उन्होंने एकबार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा था …

हीरा ने गौर किया उसकी आँखें नम है, आज इतने वर्षों बाद भी उसे इन बातों को याद करके तकलीफ होती है और इस कदर होती है… कुछ दुःख रात की कटोरियों-प्यालियों में बचे बासी भोजन याकि जूठन की तरह होते हैं. रगड़ो, खुरच डालो, घिसते रहो… दाग और गंध जाते ही नहीं जिसके…

हीरा की आँखें धुंधला गयी हैं आंसुओं से… रात का न जाने कौन सा पहर है… ठंढ लग रही है उसे, वो ऊनी चादर निकालती है अपनी डोलची से… ओढ़ लेती है उसे कसकर… इसे लपेटते ही उसे हिरामन एक बार फिर याद आता है… चादर के लिए पैसे देने पर उसे लेने से इंकार करता हिरामन… उसकी आँखों की वह आर्द्रता… उसका मन फिर-फिर उमड़ आया है …उसने फिर से अपने सन्दूक से वह चमड़े की थैली निकाली है, थैली के भीतर से वह छोटी थैली भी … सारे तह खोले दिये हैं उसके, देर तक वह उस नोट को लिए रही है हाथ में… न जाने उसका मन कैसा हुआ जा रहा इस घड़ी…      

उससे कब किसी ने पूछा उसका मन…

उसका मन क्या था ठीक-ठीक, यह वह भी कब जान सकी …

जो माँ कहती रही, वह करती रही…

जब माँ नहीं रही तो उसे वह सब करके देखने का मन हो आया था, जो उनके रहते हुए वो कभी नहीं कर सकी …कि अब जीकर देखना था उसे अपने मन का …वह निकल ही तो ली थी चुपचाप… यह भी एक अजीब सा संयोग था कि कुल तीन महीने पहले ही वो मथुरा-मोहन कम्पनी के साथ माँ के किए अनुबंध से मुक्त हुयी थी… 20 साल तक सिर्फ उसी कम्पनी से जुड़े रहने और उसी के साथ अपने काम करने के अनुबंध से…  माँ के गुजरने के ठीक दो महीने पूर्व… जाते हुये वह लगातार भाग ही तो रही थी माँ से, उसकी स्मृतियों से, पर वह यह गौर करना भूल गयी थी कि नहीं रहकर माँ उसके भीतर ही रहने और जीने लगी है. वह सोचती बिलकुल माँ कि तरह, जीती बिलकुल माँ की तरह, उन्हीं की तरह बात-बेबात शायरी कहने और पढ़ने लगी थी. जाते-जाते उसने बिलकुल माँ कि तरह गालिब चचा को याद किया था- ‘मुझे तो खैर वतन छोड़कर अमां न मिली/ वतन भी मुझसे गरीबुल-वतन को तरसेगा।’

क्यों यह तो उसे भी पता नहीं… बस कहते-कहते आँखें भर गयी थी उसकी…

उसे तो बस इतना पता है… अब नाचने और अदायगी में रमने वाला उसका मन, कभी इससे बेतरह दूर भागा करता था… उसे खेलना बहुत पसंद था, वह भी घर-घर…

माँ उसके खेलने से चिढती… उसके इस पसंदीदा खेल से भी… इस खेल के साथी से भी बेतरह… उनकी हिसाब से ये उसकी तालीम के दिन थे… नृत्य, भाषा, संवाद, अदायगी और अभिनय के गुर सीखने के दिन…कि अभी की पड़ी नींव ही गहरी और पुख्ता होती है…

पर वह वक्त मिलते ही जान छुड़ाकर भागती इन सबसे…

उसे घर बहुत पसंद आते थे, कच्चे-पक्के घर… उसके भीतर बसी गृहस्थियां… उसे इन कनात-घरों से बेहिसाब वाली चिढ थी… यहाँ से वहां, इस मेले से उस मेले भागते रहने वाले अपने जीवन से भी…तम्बुओं के भीतर भी हीरा हमेशा घर सजाने का ही तो उपक्रम करती रही है, बचपन से लेकर अबतक… ये अलग बात है कि घर टिकते नहीं थे, उन्हें बार-बार उजाड़ना होता और बार–बार संजोना …

हीरा अब भी घर बसाती है, बसाती है और तोड़ देती है… तोड़ देती है और बसाती है और फिर तोड़ देती है कि माँ का उस दिन का कहा उसे याद आ जाता है – ‘हम जैसी औरतों के हिस्से घर और घरौंदे नहीं होते हीर …हमारे हिस्से कनात और तम्बू होते हैं, जिन्हें हमें बदलना और छोड़ना होता है,  हमें अपने पैर में घुंघरू बाँध थिरकना होता है उम्र भर मेले-ठेले में… जहां भीड़ होती है… लोगबाग हमें देख सिसकारियां और सीटियाँ तो मार सकते हैं, पर हमारे हाथ की बनी रोटियाँ उन्हें नहीं सुहाती… हम ढलती नहीं किसी एक घर को ताउम्र संवारने-सहेजते रहने में… हमें खुद को सहेजे रहना होता है, देह ढली तो समझो हम ज़िंदा होकर भी मरी जैसी हो गयी…

कब समझेगी तू यह सब हीर…

अपनी माँ को देखकर भी तू यह नहीं समझ पाती तो आखिर क्यों…कहकर माँ रोने लगी थी …

उसे घर टूटने का दुःख नहीं था. घर बनाने के क्रम में बने साथी के रूठकर जाने का दुःख भी उतना नहीं… माँ के रोने का दुःख होता था बस… माँ गुस्सा करें–पीटे, उसे बिलकुल भी बुरा नहीं लगता… पर माँ का रो देना एकदम से अखर जाता… उसने उसी दिन घर बनाने का खेल खेलना छोड़ दिया था…कसम खायी थी –‘वह घरौंदे बनाने-संवारने का खेल नहीं खेलेगी कभी…  इस जिन्दगी में तो कभी नहीं …’ वैसे खेल भी क्या खेलना, जिससे माँ को रोना पड़ जाए …यह उसकी दूसरी कसम थी…

सुला दिया था हीरा ने उस छोटी-सी बच्ची को एक नीम बेहोशी वाली नींद.  पर वह बच्ची अक्सर जाग जाती उसके भीतर उसके सोते ही… वह अपने तमाम ख्वाब देखने लगती उसकी आँखों से… उसके ही ख़्वाबों में…  तमाम खेल खेलने लगती… अधूरे घरौंदे पूरे होने और सजने लगते…कि उसे जैसे उसके कसम-वसम से कोई फर्क न पड़ता हो… वह लड़की हीराबाई थोड़े ही है… वह तो हीर है… सात साल की हीर …

हिरामन की गाड़ी में होते हुये, लगातार उसे एक घर में होने का-सा अहसास हुआ था… टप्पर को चादर के परदे और तिरपाल के घेरे से घेरता हिरामन… उसे जाग जाने याकि सोने और आराम करने को कहता, उसके लिए हर संभव सुविधाएं जोड़ता, हर समय उससे बात करने को मचलता हिरामन… लोगबाग़ से उसके होने की बात को बार-बार छिपाता हिरामन, किसी के पूछने पर कि गाड़ी में कौन है उसके साथ, एकदम से चिढ जाता और हर बार एक नया बहाना गढ़ता हिरामन… वह समझ गई थी, हिरामन उसे दुनिया की निगाहों से छुपाकर रखना चाहता है… यह अहसास उसके लिए कितना सुन्दर और सुकून देनेवाला था, यह उसके सिवा और कौन बूझ सकता है…

उसे नदी में मुंह हाथ-धोकर आने को कहने से पहले भी वह अगल–बगल बीस बार तो देखता. उसे लगने लगा था और दिल से लगने लगा था कि वह सचमुच कि कोई नयी नवेली दुल्हन है, गौने के बाद जो अपने ससुराल जा रही है… हिरामन ने भी तो ऐसा ही कुछ कहा था…क्या कहा था? याद कर रही वो पर वह शब्द है कि याद ही नहीं आ रहा एकदम…

हाँ याद आया  …`बिदागी’ यही तो कहा था उसने -‘उसकी गाड़ी में ‘बिदागी’ (नैहर या ससुराल जाती लड़की) है.’ उसने जब पूछा उससे यह छत्तरपुर पचीरा कहाँ है? तो उसने जबाब में हंसकर कहा था-‘ कहीं हो, यह लेकर (जानकर) आप क्या करिएगा? हिरामन ने भले ही बताने से इनकार कर दिया हो, पर उसका मन जैसे माने बैठा था, कहीं तो जरुर है यह छत्तरपुर पचीरा और वह दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह है… कि वह सचमुच कोई बिदागी है और अपने ससुराल जा रही छत्तरपुर पचीरा …

तेगछिया गाँव के जब ठीक बीच से निकली थी उनकी गाड़ी तो कैसे बच्चे परदे वाली गाड़ी देख ताली बजा-बजाकर गाते हुए उनकी गाड़ी के पीछे दौड़ लगाने लगे थे – ‘लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया …उसका चेहरा रक्ताभ हो उठा था… अपने चेहरे से निकलते धाह(ताप) को जैसे उसकी ही हथेलियां अचरज से सूंघ रही थीं… मन था कि जैसे बाबरा हुआ जा रहा था उसका, ख़ुशी से बाबरा…

सपनों में देखे गए दृश्य भी कभी कैसे साकार हो उठते हैं…

नहा धोकर कब लौटा था हिरामन हीरा को पता नहीं. कजरी की धार को देखते-देखते उसकी आँखों में कल रात की अधूरी और उचटी नींद अचानक से लौट आई थी. हिरामन शायद पास के गाँव गया था…

नींद में कोई सपना जाग उठा हो जैसे… हीराबाई के सपने में एक दृश्य चल रहा – सपने में वह खुद को ही देख रही, पर देख रही थी ‘सब्ज परी’ कि भूमिका में, कि वो आगा हसन अमानत के लिखे इंदरसभा (1853) की सब्ज परी है-

मामूर हूँ शोख़ी से, शरारत से भरी हूँ

धानी मेरी पोशाक है, मैं सब्ज परी हूँ…

ले लेती हूँ दिल, आँख फरिश्ते से मिलाके

इंसा है क्या बला, नहीं मैं जिन्न से डरी हूँ…

अपने होने और खूब होने के गुमान से भरी इन्द्र की सभा में इठलाकर नृत्य कर रही है वह…

क्या कहूँ कि फ़लक का सताया हूँ मैं

यहाँ खेलकर जी पे आया हूँ मैं…

परी सब्ज जो है अखाड़े में आज ,

उसी का हूँ मैं दीवाना-नीमजान.

बला में हूँ या मैं गिरफ्तार हूँ,

सजा जो भी दें मैं गुनहगार हूँ …

गुलफाम का चेहरा उसे अभी दिख नहीं रहा स्पष्ट…

पर वह है कि जैसे बस उसे ही देखने की जतन में है…

अरे यह तो हिरामन है…

‘नाम मेरा गुलफाम’ की घोषणा महफिल में सरेआम करनेवाला और सब्ज परी से अपनी आशिकी की बात को सगर्व बतानेवाला इंसान और दूसरा कोई नहीं ‘हिरामन’ ही तो है, उसका हिरामन …         

उसकी नींद टूटी तो हिरामन लौट आया था, वो उसे पुकार कर जगा रहा था- ‘उठिए नींद तोड़िए. दो मुठ्ठी जलपान कर लीजिये …’

हीरा अभी भी उस सुन्दर सपने से जगाये जाने के कारण अनमन है …वह अपने अनमनेपन में ही सुन रही हिरामन को-‘इस गाँव का दही नामी है…चाह तो फारबिसगंज जाकर ही पी पाईयेगा…एक हाथ में मिट्टी के नए बर्तन में दही, केले के पत्ते. दूसरे हाथ में बाल्टी भर पानी, आँखों में आत्मीयतापूर्ण अनुरोध लिए हिरामन उसके सामने खड़ा था.

इतनी चीजें सुबह-सुबह…उसने हैरत से कहा है …

वह उसका अधूरा सपना ही है, जिसने जिदकर के कहा है – ‘तुम भी पत्तल निकालो. .. क्यों तुम नहीं खाओगे? तो समेटकर रख लो अपनी झोली में. मैं भी नहीं खाऊँगी.

उसने हिरामन का लजाना गौर किया था- इस्स अच्छी बात है आप खा लीजिये पहले.

पहले पीछे क्या? तुम भी बैठो… हीरा के अंदर बैठी उस सात साल की बच्ची ने मचल कर कहा हो जैसे…

सब्ज परी ने भी कहा है अपने गुलफाम से…

प्रेम में बड़े-छोटे ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, परी और इंसान, कंपनीवाली और गाड़ीवान के बीच का फर्क कहाँ होता है? प्रेम तो बस प्रेम होता है… और उसमें होते हैं बस प्रिय-पात्र… यह इतनी सी बात हिरामन समझता क्यों नहीं? 

न जाने क्यों लग रहा यह हीरा को आज जैसे जाग जाने पर भी वह नींद में ही है, सपने से निकलना नहीं हो सका है उसका …वह हीरा नहीं है, हीर है नन्ही सी…वह सब्ज परी है, अपने गुलफाम की सब्ज परी… उसके लिए राजा इन्द्र से भी लड़ जानेवाली सब्ज-परी, परियों की सरताज होने के अपने गुमान को भूल उसके लिए जोगन बन जानेवाली सब्ज परी… उसे मौत के मुंह से राजा इन्द्र से लड़कर वापस ले आनेवाली सब्ज परी…

उसने हिरामन का पत्तल बिछा दिया है… पानी छींट दिया है उसपर… चूड़ा निकाल दिया है उसमें… हिरामन का जी जुड़ा गया है …

खाकर वे दोनों फिर से सोने चले हैं…कि हीरा को अभी अपने अधूरे सपनों को भी तो मुकम्मल और भर आँख देखना ह …इसीलिए नींद की हड़बड़ी उसे हिरामन से कुछ ज्यादा है…जैसे उसे भरोसा हो कहीं सपने को फिर-फिर आना ही है इस नींद में… जैसे उसके न आने का कोई सवाल ही नहीं उठता हो…

हिरामन और हीराबाई की नींद एक साथ खुली है, आसपास सुनाई देने वाले कचपच से…कई गाड़ियां अभी आकर रुकी हैं तेगाछिया के आसपास…बच्चे कचर-पचर कर रहे हैं जिसमें ..दिन ढलने-ढलनेवाला ही है… हीरा का मन कुछ बुझा-बुझा सा है…वह सपना फिर दिखा नहीं, ऐसा भी नहीं…दिखा तो जरूर था…पर…

पर?…  वह वहीं टूट भी गया था, मुकम्मल होने के ठीक पहले, जहां इन्द्र ने गुलफाम को अंधकूप में फिंकवा दिया और सब्ज परी के पंख और बाल छीन सभा से निकाल बाहर किया उसको…

सोचना चाहती है वह… सपना ही तो था? अभिनय करती है वह सो सपने में भी बस वही दिखा… उसके नामुकम्मल होने का इतना दुख क्यों… वह उसे जी से क्यों लगा रही… पर उदासी है कि कम हो ही नहीं रही उसकी…

हिरामन मन-ही-मन दूसरे गाड़ीवानों से पूछे जाने पर नए सिरे से जबाब देने के लिए खुद को तैयार कर रहा॰  उसने टप्पर के अन्दर झांककर ईशारे से कहा है – ‘दिन ढल गया…चलें… कि अब चलना बहुत जरुरी है…

गाड़ीवानों ने फिर से पूछा है इशारों से – ‘कौन? कहाँ?…’

हीरा का मन है कि एक बार फिर से खुद के लिए ‘बिदागी’ सुनने को अकुला रहा… लेकिन अबकी हिरामन कहता है –‘सिरपुर बाजार के इस्पिताल की दागदरनी है,.मरीज देखने जा रही… हीरा का मन उदास हो आया है एकदम से…वहाँ से तनिक दूर आगे जब बढ़ आया हिरामन तो पूछाहै उसने –‘अबकी नहीं कहा ‘छत्तरपुर पचीरा?’

जैसे उसका मन पढ़ते और उसकी उदासी बूझते हुए ही कहता है हिरामन- ‘छत्तरपुर पचीरा अबकी भी तो नहीं कह सकता था न, कि ये गाड़ियां वही से तो आई हैं.’

हीरा सोच रही- ‘कभी-कभी यह तलब क्यों जागती है और किसी जिद्दी बच्चे सी कूदने, जिदियाने और रार मचाने लगती है रह रहकर उसके भीतर, नींद,भूख, प्यास और ख़्वाबों से भी कहीं ज्यादा… उड़ने लगती है रह-रहकर उसके मन की घाटियों में. मधुमक्खियों-सी आवाज करती हुयी घूमती रहती हैं इर्द-गिर्द… कि गहरी चुप्पी की भी जुबान बूझने वाला,  बिन बोले-कहे भी बतियाने और सब बूझनेवाला, कोई लाल बुझक्कड़ तो होना ही चाहिए इस बेसबब, बेसुआद दुनिया में…

कि उसका लाल बुझक्कड़ मिल गया उसे…

हीरा का मन हो रहा, यह रास्ता कभी ख़त्म न हो… जिन्दगी भर इस कच्चे रास्ते पर चल सकती है वह अकेली, बस हिरामन हो उसके संग …वह हिरामन से कहती है –‘ तुम्हारी अपनी बोली में कोई गीत नहीं क्या ?

हिरामन उससे कहता है –‘गीत जरुर ही सुनियेगा? नहीं मानियेगा?…इस्स इतना शौक गाँव का गीत सुनने का है आपको. चालू रास्ते में कोई कैसे गीत गा सकता है… इसके लिए तो लीक छोड़कर चलना होगा.’

रास्ते के गाड़ीवान पूछते हैं –‘काहे हो गाड़ीवान, लीक छोड़कर बेलीक कहाँ उधर…’

ननकपुर की सड़कें बहुत सूनी है. हिरामन उसकी आँखों की बोली समझता है –‘ घबड़ाने की कोई बात नहीं… यह सड़क भी फारबिसगंज ही जायेगी. राह–घाट के लोग बहुत अच्छे हैं. एक घड़ी रात तक हमलोग पहुँच जायेंगे…हीराबाई को ही फारबिसगंज पहुँचने की कौन सी जल्दी है…   हिरामन पर इतना भरोसा हो गया है कि डर–भय की अब कोई बात ही कहाँ उठती है मन में.

कहानी शुरू हुयी कि जैसे हीरा मंत्रमुग्ध…जैसे उसकी ही कथा हिरामन सुना रहा उसको… वही तो है महुआ घटवारिन …उसकी ही माँ ने तो… सौदागर की ही तरह मथुरा मोहन कम्पनी ने भी तो उसका पूरा दाम दिया था उसकी माँ को ..अरे भरी भादो की नदी में बगैर अपने जान की परवाह किये कूद जाती है महुआ सौदागर के नाव से… उसका भी मन हो रहा वह भी महुआ घटवारिन और हिरामन कि तरह गाये यह गीत -‘हूँ -ऊँ -ऊँ -रे डाइनियां मइयाँ मोरी -ई -ई / नोनवा चटाई काहे नाहिं मारलि सौरी-घर -अ-अ॰ /येहि दिनवा खातिर छिनरो/धिया तेंहु पोसली कि नेनू-दूध उटगन …’ (इसी दिन के लिए मुझे इतने लाड़-प्यार से पाला-पोसा था क्या माँ …)

उसने भी तो मथुरा मोहन कम्पनी छोड़कर… न जाने अब क्या हो..॰ डूबेगी की बचेगी अब यह कौन कह सकता है?

हीरा को  लगता है सौदागर का वह नौकर हिरामन ही है…

‘महुआ घटवारिन गाते समय हिरामन के सामने भी सावन भादों की नदी उमड़ने लगती है…… उसको लगता है वह ही सौदागर का नौकर है…महुआ कोई बात नहीं सुनती उसकी…परतीत करती नहीं. उलटकर देखती नहीं. वह थक गया है तैरते-तैरते…पर इस बार लगता है महुआ ने अपने को पकड़ा दिया है खुद ही पकड़ में आ गयी है …उसने महुआ को छू लिया है. उसकी थकन दूर हो गयी है. .. उसने हीराबाई से अपनी आँखें चुराने की कोशिश की है… किन्तु हीरा तो उसके मन में बैठी न जाने कबसे यह सबकुछ देख रही है ….

कुछ महुआ की कथा का असर है, कुछ उसके अन्दर बैठी उस सात साल की बच्ची का डर, कुछ सपने में गुलफाम को खो देने की व्यथा… सीताधार की उस सूखी धारा की उतराई पर जब गाड़ी नीचे की और उतरी तो हीराबाई ने हिरामन का कंधा पकड़ लिया है कसके… एक हाथ से… बहुत देर तक हिरामन के कंधे पर उसकी उंगलियाँ पड़ी रही हैं. .. इस वक्त वह कितनी महुआ है, कितनी वह छोटी सी बच्ची हीरा, कितनी सब्ज परी… खुद हीरा भी यह नहीं जानती ……न जाने क्या हुआ है हीरा को कि सही–गलत, अच्छा-बुरा कुछ भी सोचने–सुनने और समझने को तैयार ही नहीं उसका मन…तर्क कोई उसके मन को अभी रुच ही नहीं रहा…बस एक ही खयाल उसके मन को आ और भा दोनों रहा, वह हिरामन की दुल्हन है, वही दुल्हन जो विदाई के बाद लौट रही अपने घर….

अचानक फारबिसगंज शहर की रौशनी के आँखों में झिमिलाते ही उसकी आँखें भर आई हैं, कि उसका दिखना बता रहा हीरा को, तुम्हारे सुन्दर सपने के टूटने की घड़ी आ गयी एकदम से… तुम जहाँ की हो, जहाँ के लिए प्रभु ने रची  है तुम्हारी काया, तुम अपनी उसी जगह आन पहुंची हो…सही जगह…  आँखें खोलो हीरा, सामने देखो… देखो सच को… स्वीकारो उसे …हिरामन की दुल्हन होने के अपने सपने और भ्रम को भूलो अब… कि तुम कंपनी की औरत हो और अब कंपनी आ पहुंची हो… कि सपना चाहे जितना लंबा हो, होता आखिर सपना ही है और आखिरकार उसे टूटना ही होता है …

उसकी  डबडबाई आँखों से हर एक रौशनी उसे सूरजमुखी के फूल की नाई दिख रही… आखिरकार बीत ही गया वह दिन जो किसी सपने जितना सुन्दर और सलोना था, जिसके नहीं बीतने और चलते रहने की प्रार्थना उसके मन में लगातार किसी दुआ की तरह चलती रही थी…आखिरकार वह दिन भी …

वह बिना हिरामन की और देखे भी यह जान रही, हिरामन का मन भी अभी उसके मन जैसा ही है – गीला, भींगा और पनियाया हुआ…कि यह सब जानने के लिए अब उसे हिरामन की और देखने की भी जरुरत नहीं रह गयी…महुआ और सौदागर के नौकर का मन अब मिलकर एक हो गया है… जानती है हीरा… इस जानने में कितना सुख है और कितनी पीड़ा, हीरा बहुत सोचकर-समझकर भी यह तय नहीं कर सकती …

अब उसे इस पीड़ा और इस ख़ुशी के साथ बिताने होंगे अपने जीवन के आगामी तमाम दिन… इसके संग साथ जीना सीखना होगा… मन एकदम से भरा हुआ है हीरा का…  इतना कि इसकी छाया में उसे लगता है जैसे पेट भी भरा हुआ है एकदम… बस एक बार ही तो जलपान किया है उनदोनों ने पूरे रास्ते में और रात बीतनी शुरू हो रही… पर  साथ-साथ खाए गए उस चूड़ा–दही के जलपान की तृप्ति जैसे अभी तक होंठ और मन दोनों में अटकी हुयी है …

हीरा मना कर देती है कुछ भी खाने को… हिरामन है कि अपने संगियों में मगन है, हीरा उदास हो चली है, वह बूझता क्यूं नहीं कि जान बूझकर यह बूझना नहीं चाहता कि यह एक ही रात तो है, जो बची है, उन दोनों की, उनके संग–साथ की…

फिर तो…

हीरा का मन भर आया है एकदम से…

हिरामन ने सब बूझते-जानते हुए भी जैसे कुछ भी न बूझने की कसम खा ली है …हाँ उसकी देखभाल के लिए वह अपने एक बेबकूफ साथी को जरुर भेज देता है, हीरा जिसे झिड़ककर और खिसियाकर वापस भेज देती हैं अच्छे से डांट लगाकर …कि खीज और गुस्सा जो अभी हीरामन के लिए मन में था वह जैसे उस पर उतारकर ही कुछ शांत हुआ है…  

न सही हीरामन, न सही वे आधी-अधूरी बातें जो सिर्फ आज की ही रात पूरी हो सकती थी …कोई बात नहीं…अब इस रात वह अकेली ही रहना चाहती है, अपनी स्मृतियों के साथ… जाने कब आये जीवन में फिर ऐसी रात… थियेटर वालियों के रातों के हिस्से यूं भी बस अभिनय होता है, तालियाँ होती हैं… उसकी गड़गड़ाहट और भीड़… और फिर थककर सो रहना उस की ही छाया में… इतनी अकेली और शांत रात फिर कब होगी उसके हिस्से? हीरा को आज की रात इसी के संग-साथ बिताना है, खुद अपने साथ बिताना है…

अल्ल सुबह हीरा की नींद टूटी है चाय वालों-दातुन वालों की पुकार से…. अँधेरे में ठीक-ठीक नहीं देख पा रही वह, न जाने कौन सा स्टेशन है …. उसने खिड़की से हाथ निकालकर एक चाय ली है… मन शांत है कल की तुलना में… लेकिन यादें  अब भी कहाँ पीछा छोड़ रही उसका …. उसके ख्यालों में आ जाता है, फारबिसगंज जाते वक्त उसकी चाय के लिये परेशान होता हिरामन… और कहीं से उसके लिए ढेर सारा (लोटा भर) चाय लेकर आता और खुद नहीं पीता हिरामन… कि चाय की तासीर गर्म होती है… उसके होठों पर बरबस एक मुस्कान तैर जाती है…

अब तो इन यादों के संग ही जीना और रहना है…ऐन सुबह ऐसी उदास बात सोचती है हीरा… फिर वह यह सोचकर खुद को तसल्ली देती है, कि जब किसी उदास दिन याकि किसी मनचाहे-मुंहमांगे दिन दोनों में से किसी एक के भी बीत जाने याकि बिता लेने के बाद की जो सुबह होती है. वह सुबह उदास, अलसाई और पस्त सुबह ही होती है… कि जब दोनों की परिणति यह खालीपन ही है, तो फिर एक से दोस्ती और दूसरे से बैर क्यों…?

उसका मन बुद्ध हुआ जा रहा है इस घड़ी… यह बाहर भागते दृश्यों, सुबह की शीतल और ताज़ा हवा का परिणाम है शायद, कि सबकुछ के बावजूद मन हल्का है अभी उसका… पिछले दिनों का तनाव, दर्द, अब सबकुछ बहुत कम-कम  है…. यों कि उदासी है एक गहरी…  पर उसका होना भी लाजिम हो जैसे …

उसने बाहर की और देखा है, छीले गए नारंगी के जैसा नन्हा सूरज आसमान के आँगन में खेलने लगा है… दौड़ लगा रहा उसके संग–संग… उसका मन कुछ देर को जैसे सबकुछ भूलने लगा है…  अपने साथ उसके इस होड़ और चहककदमी से …

वो बीते दिन याद कर रही अब भी पर एक सुकून के संग. चीजों को, बातों को समझने की मनःस्थिति के संग. उसके सहज रूप में. कल वाली वह उद्विग्नता अब नहीं है उसके भीतर. अपने सोच और मन पर वह अविश्वास भी नहीं… दृश्य बदल रहे हैं, बाहर के भी और भीतर के भी… वह देख रही है उन्हें और सोच रही है लगातार …

हिरामन ने ही तो कहा था उससे कि अब वह शादी नहीं करना चाहता… यह भी कि उसकी भाभी को एक कमउम्र और कुंवारी लड़की चाहिए…मन से भले हो हीरा वही सात साल की  घरौंदे बनाने और घर-घर खेलनेवाली लड़की, लेकिन इससे तो उसकी उम्र याकि पहचान नहीं मिट जाती न?

लड़कियों का काम हिरामन के हिसाब से सिर्फ घर-बार चलाना, शादी और बच्चे पैदा करना है… और कुछ नहीं… फिर उसका काम?

अब थमकर सोच रही हीरा, हिरामन ने कभी उसका सही परिचय नहीं दिया राह भर किसी को, जैसे उसके सही परिचय से कहीं उसे भी कोई परेशानी हो…  नहीं पसंद हो मन से उसे उसका काम,  स्वीकार नहीं हो जैसे उसे यह सब …

हालांकि उसने यह बात कभी उससे खुलकर नहीं कही…पर उससे क्या होता है?

कही तो उसने कई और बात भी नहीं…पर जानती तो है न वो…

हिरामन नौटंकी देखने भी नहीं आना चाहता था, डरता था कि भाभी को पता न चल जाये…  आने भी लगा तो यह तसदीक करने के बाद कि भाभी तक और उसके घर तक यह खबर कोई नहीं पहुंचाएगा, वह जानती है इस डर में डर से कहीं ज्यादा इज्जत शामिल है उनके लिए …उनके कहे के लिए…  फिर वो उन भाभी से कह सकेगा कभी कि वह एक नौटंकी वाली को…

भाभी मान लेगी उसकी बात?

वह भाभी जो शारदा-कानून की परवाह किए बगैर उसकी शादी किसी सात साल की बच्ची से करवाने का हठ लिए बैठी हैं… जिसे अपने चालीस साला विधुर देवर के लिए एक कुंवारी कन्या चाहिए…

वह किसी नौटंकी वाली को कैसे स्वीकार सकती है… ? वह भी तब जब आम गाँव वाले नौटंकी वालियों को वेश्या से तनिक भी कमतर नहीं समझते… उनकी नजर में जब जरा भी फर्क नहीं, देह व्यापार में लगी औरतों और नौटंकी में काम करने वाली स्त्रियों के बीच?

उनकी बात अगर छोड़ भी दे, तो खुद हीरा क्या अब वैसी ज़िंदगी बीता सकती है जैसी कोई गंवई औरत? किसी अंजान अंचीन्हे गाँव के किसी अजनबी से घर में? उपले लगाते, चूल्हा जलाते, रोटियाँ बनाते और गाय भैंस पालते हुये…?

वह हीरा जिसकी शामें रोशनी और चकाचौंध के बगैर संभव होती ही नहीं, वह जी सकेगी कभी भला किसी अंधेरे, कच्चे बिना रोशनी वाले घर में ता-उम्र?

कैसे बिता सकती है वह ऐसा जीवन? गृहस्थिन कि एक सादा सी भूमिका निभाते हुये रोज-ब-रोज …

हर रोज एक नया जीवन जीने और नयी भूमिका में जान डाल देनेवाली हीरा ऊबेगी नहीं एक यही भूमिका निभाते याकि करते हुये?

हिरामन भी तब हर वक्त कहाँ रहेगा उसके आसपास, उसकी सुनते हुये, उसकी मानते हुये, उसे निहारते हुये…

उसे गाड़ीवानी करनी होगा… वह गाड़ीवानी जोकि उसका पहला प्यार है, पहला लगाव…जिसके साथ वह अपनी अनदेखी पत्नी को खो देने के बाद भी जीता रहा है, गुजार रहा है ज़िंदगी, बगैर किसी शिकवा-शिकायत, बगैर किसी ख़लिश के …

कि गाड़ीवानी ही हिरामन का जीवन है, जीवन-राग है …यह उसी से सुनी बातों से तो जानती है वो… वह तो बहुत बाद आई है उसके जीवन में…  और कौन जाने कि आई भी है या बस दस्तक देकर दरवाजे पर ही खड़ी है, दरवाजा खुल जाने की प्रतीक्षा भर में…

हिरामन ने कभी कुछ भी कहा नहीं उससे… यह अलग है कि उसे लगता है…

वह क्यों किसी मृगतृष्णा के पीछे भाग रही इस कदर …

चाहती क्या है वो अपने जीवन से…

वह क्यों नहीं गुजार सकती हिरामन के बगैर अपनी ज़िंदगी… अपनी कला, अपनी प्रसिद्धि और नाम के दम पर?  जिस तरह माँ ने गुजारा, पिता के उनकी ज़िंदगी में आने और उनके चले जाने के बाद का जीवन… जिस तरह चांदबाई गुजार गयी अपनी तमाम ज़िंदगी, सिर्फ अपने और अपने दम… इतनी प्रेम कहानियों में काम करती रही है हीरा- शशि-पुन्नू , हीर-राँझा, शीरी-फरहाद…  और भी न जाने कितने… पर अब तक कहाँ देखा उसने किसी एक में भी नायक-नायिका का मिलन? उन्हें एक साथ ज़िंदगी गुजारते हुये… फिर वही क्यूँ …जबकि जानती है जो मुकम्मल हो जाती हैं वो कहानियाँ फिर प्रेम कहानियाँ नहीं रह जाती…   

अपने हिस्से का प्यार तो पा चुकी है हीरा… फिर उसकी उम्र कितनी लंबी है कि छोटी इससे क्या और कितना फर्क पड़ता है? … हाँ इसे सहेजकर रखना कि नहीं यह तो उसके ऊपर है …

जीवन में किसी का रहना, न रहना, इस प्यार के होने और बने रहने के लिए कितना मायने रखता है…?

और क्यों? 

कहीं भी चली जाये वह, पर हिरामन तो रहेगा ही न उसके मन में… उसे अपने मन से निकाल देना अब उसके वश में कहाँ है…

ज़िंदगी काश बस उस एक दिन की यात्रा तक सीमित होती, जिसमें वह होती हिरामन के संग बोलते-बतियाते, हरियाले रास्ते से गुजरते हुये, वे अपना मन बांटते रहते एक दूसरे से… कि अकेले वे दोनों ही संग चलते रहते निरंतर इस यात्रा में… एक दूसरे का खयाल रखते हुये… काश!…

जीवन केवल दो लोगों का संग-साथ नहीं होता… वहाँ एक परिवार होता है, एक समाज गूँथा रहता है और संग उसकी मान्यताएं-मर्यादा…

हीरा के मन में न जाने कितने अंधड़ चलते रहते इन दिनों, बड़े अनमने से दिन है ये याकि उसे ही लगते हैं…

अभी तो गर्मी के दिनों के आने में भी जबकि वक्त बचा है, पर उसे न जाने क्यों परेशान किए रहती है हमेशा एक सीने में तड़फड़ाती-सी बेचैनी, घूमती-सी एक जलन…बेबस-सा मन और भूख–प्यास सबसे उचाट हुआ उसका जी…

हीरा को यूं लगता है जैसे बहुत बीमार हो वो ….

वह एक युद्ध लड़ती रहती है निरंतर… यह युद्ध महुआ घटवारिन और हीराबाई के बीच होता है…  फिर नन्हीं सी हीर और हीराबाई के बीच…वह कभी सब्ज परी होती है, कभी हीर, कभी लैला…

इन दिनों उसकी माँ भी जैसे आकर बस गयी है एकदम से उसके भीतर… जो हर वक्त समझाती रहती है उसे…

हीरा अपने में है ही नहीं जैसे इन दिनों ….

वह न जाने कितने टुकड़ों में बंटी रह रही ….

खुद से ही लड़ती रहती है और खुद से ही हारती-जीतती… अवश रहता है उसका मन एकदम से… जैसे खुद का खुद पर इख्तियार ही न रह गया हो…

हिरामन पिछले 20 दिनों में फारबिसगंज में रहकर भी बहुत कम आता रहा है उससे मिलने… हाँ शाम को नौटंकी देखने आ जाता है कभी कभार, अगर सवारी लेकर कहीं गया न हो एकदम से…

हीरा को जो भी कहना हो उससे वो अपने अभिनय में, संवादों में… आँखों में भर लेती है… कि तमाम लोगों के बीच रोज एक उसे ही तो तलाशती रहती हैं उसकी नजर… उसकी आंखे बार-बार कहती है उससे-‘ सबकुछ खुदा से मांग लिया तुझको मांगकर/ उठते नहीं है हाथ मेरे इस दुआ के बाद… ‘

आ जाये तो सांस आ जाती है उसके भीतर, नहीं दिखा तो वो कोई और ही होती है, जो रटा-रटाया, सीखा-सिखाया बोलता-कहता है ….

कोई और बूझे कि न बूझे, ब्रह्मदत्त खूब बूझते हैं उसके मन की हालत …रोज उसे ऐसे देखते-देखते एक दिन कहा था उससे- ‘बिटिया चलो मथुरा मोहन कंपनी वापस चले चलते हैं… तुम्हें भी अच्छा लगेगा… अपना देश, अपने लोगों के बीच रहोगी तो जी भी अच्छा रहेगा …

इतना मत सोचो… कि लौटने में यूं कोई बुराई नहीं है…  यूं भी वे लोग हाथों-हाथ लेंगे तुम्हारे लौट आने को… कोई तुमसे एक भी सवाल नहीं करेगा …

कोई कुछ नहीं कहे तुम्हें, इसकी ज़िम्मेदारी मेरी…

और यूं कहना भी क्या है? थोड़े दिन घूम-फिरकर लौट आई बिटिया अपनी जगह …. अपने लोगों के बीच… कि माँ के नहीं होने से नहीं लग रहा था उसका जी, मैं कह दूँगा सबसे …

हीरा सोचती है कैसा जी और कौन सी अपनी जगह?

कहाँ की है वो? कहाँ है उसका घर?

फिर….

फिलवक्त चाहे हीरा हाँ-ना कुछ भी न बोली हो पर सोचती रही थी वह मन में लगातार इस बाबत…

फिर उसने सोचा कि हीरामन से बात करेगी इस बारे में…… यूं भी यहाँ कितने दिन रुक सकती है वह… जाना तो होगा ही कभी-न कभी… कहीं न कहीं… न सही मथुरा मोहन, रौता कंपनी के ही संग …

पर हिरामन दिखता ही नहीं आजकल…चार दिन हो गए उसने उसे नहीं देखा… सबसे उसने उसके लिए संदेश भिजवाया है, पर कोई फायदा नहीं …. उसे नहीं आना था वह नहीं आया…

वह जान रही हिरामन रूठा हुआ है उससे… उसके लिए लोगों की कही गयी बातें, उसके नाच पर लोगों का सौ जान निछावर होना बिलकुल नहीं सुहाता…उसे लगता है और हरदम लगता है – कंपनी की औरत थी, कंपनी में चली गयी…  

लेकिन बात जो भी हो मन में, हिरामन को उससे कहना तो चाहिए न …

कि बस ऐसे ही रूठकर…

वह सोचती है अगर कह भी देता हिरामन उससे, तो क्या वह मान लेती उसकी बात…? पलटकर सुनाती नहीं  …

हिरामन भी बूझता है यह सब …

तभी तो…

हिरामन के पक्ष में दलील दे-देकर खुद को खूब झिड़कती और सुनाती रही है…

अब पलटकर रूठ जाने कि बारी उसकी है…

रूठकर एकदम से चले जाने की भी…

उसने अपने आप से हारकर यह कहा था ब्रहमदत्त से- ‘चलते हैं काका… फिर कानपुर…  कि आप ने ठीक ही तो कहा था…. अपनी जगह, अपने लोग…’

पता नहीं ब्रहमदत्त बूझ पाये थे कि नहीं कि उसका यह गुस्सा, यह रूठना, हिरामन के लिए है? या जानते-बूझते सब उन्होने इस बात को बस जाने दिया था…

ब्रहमदत्त की आँखों में जैसे यह सुनते ही खुशी के फूल खिलने लगे थे …उनकी आँखों की उस चमक को देखकर उसे बहुत अच्छा लगा था… जी हल्का हो गया था उसका …

उसने जाने के लिए अपना सामान-सन्दूक सब ठीक करना शुरू कर दिया था…  जी हल्का महसूस कर रही थी …

उसने तांगे के लिए लालमोहर को कह भी दिया था, अबकी एक बार भी नहीं पूछा था उसने, हीरामन के बाबत…

तभी सन्दूक से झम्म से निकल आई थी वह कपड़े की काली थैली…  उस पोटली ने उसे निष्प्रभ कर दिया था एक पल को..।वह जैसे अपनी उधेड़बुन में भूल ही चुकी थी इसकी बात…

उसे लगा समय घड़ियों की पीठ पर सवार भले ही सरपट दौड़ा जाता हो पर संदूकों की पोटली में अक्सर दुबका पड़ा होता है, घुटनों के बीच अपना सर डाले… पुरानी आलमारियों से इसकी गंध कब और कहाँ जाती है …

वह सुबह जैसे पलटकर चली आई थी एकदम उसके सामने…

वह सुबह, रौता कंपनी पहुंचने के बाद की एक बहुत खूबसूरत सी सुबह थी…. वह अभ्यास में डूबी हुयी थी कि गोरखे ने आकर कहा था –‘आपसे वो आदमी मिलने आया है ….

कौन आदमी? हीरा बूझ नहीं पाई थी एकदम से ….

वही ‘आपका आदमी’ …

ओ हिरामन… हीरा मुस्कुरा दी थी एक सलज्ज मुस्कान… ‘आदमी’ शब्द के निहितार्थ उसके मन में न जाने कैसा शोर मचाने लगे थे…

जब कहा था उसने तो कहाँ समझकर कहा था कुछ, कब लगा था कि एक अर्थ यह भी तो होता है इसका? पर अभी वह छुपा-छिपाया अर्थ प्रकट होकर उसे उत्फुल्ल कर देने के लिए बहुत काफी था …

हिरामन के आने पर भी उसकी यह खुशी जैसे छुपाए नहीं छुप रही थी… हिरामन देख रहा था उसका यूं लाल -गुलाबी हुआ जाना, उसकी बच्चों जैसी यह नयी चपलता…

‘कैसे याद आई मीता… कोई बात?’

उसने कहा था –‘ हाँ बात तो है…. अगर आपको उज्र न हो तो… यह थैली है…  इसको संभालकर रखना होगा… मेले का क्या ठिकाना! किस्म-किस्म के पाकेटमार लोग हर साल आते हैं. अपने साथी -संगियों का भी क्या भरोसा. पैसे हैं इसमें, अब दिन रात साथ रखने पर ड़र तो लगता है न… रास्ते-पहर कुछ हो-हवा जाये… कोई बटमार छीन ही ले तो…

‘हूँ’ बदले में उसने सिर्फ इतना कहा था ….

मतलब हीरा मान गयी है…

औरतजात से ज्यादा कौन सँजोकर रख सकता है पईसा-कौड़ी, घर गए होते तो भौजी को देते…. यहाँ आप हैं तो… हिरामन साफ कर रहा है अपनी बात कि सफ़ाई दे रहा…  उसने बहुत गौर से देखा था उसका चेहरा…

तो मुझे संभालकर रखना है इसे?

हाँ और नहीं तो क्या…

हीराबाई ने उसके सामने ही उस थैली को चमड़े के अपने बक्से में बंद कर फिर सन्दूक में रख दिया था और मुस्कुराकर कहा था–‘ जो मेरा जी इस पर आ जाए तो…

तो कोई बात नहीं… किसी दूसरे के पास तो न होगा न जी… हिरामन मुसकाया था एक सलज्ज मुस्कान …

उस मुस्कान ने उसके अंदर न जाने कितने फूल खिला दिये थे …. उसकी  जागी आँखें भी फिर से जैसे एक सपना देखने लगी थी… एक मनोहर सपना… वह है और हिरामन है…  और हिरामन दे रहा उसे कमाकर लाये पैसे…

वह भूल गयी थी एकदम से कि वह किसी घर में नहीं… एक कंपनी में है… और हिरामन सिर्फ एक दोस्त गाड़ीवान ….

हिरामन के चले जाने के बाद उसने उस पोटली को अंदर से निकाला था और सीने से लगाए रखा था न जाने कितनी देर… कि जैसे अलगाना ही नहीं हो उसे खुद से …

ये एकमात्र ऐसा दिन था उसके रौता कंपनी में आ जाने के बाद का, जहां लगा था उसे, वह अभी रास्ते में ही है… हिरामन की उसी गाड़ी में…  उसका वह कोमल सपना अभी समाप्त नहीं हुआ, चल रहा है, चलता ही जा रहा…

जैसे हिरामन ने उसे थैली नहीं अपना मन ही सौंप दिया हो…

कोई लज्जालु इंसान ऐसे ही तो कहेगा न अपने मन की बात… इसी तरह अप्रत्यक्ष, इशारों में ही तो…? वह मुसकाती रही थी पूरे दिन… जो भी उसे देखता उस दिन, बड़े गौर से देखता ….

उसी पोटली के दिख जाने से एक बार फिर वह दिन खुल गया था उसके सामने…

हिरामन के लिए मन में बसा क्षोभ, गुस्सा और क्रोध सब जैसे जाता रहा था उस पल …. शिकायतें भी एक-एक करके… वह कैसे भूल सकती है उस दिन को? वह कैसे भूली रही वह दिन….?

इसके बाद एक बहाना मिल गया था उसे, ब्रहमदत्त जब भी उसे चलने की बात कहते वह कहती हिरामन आ जाये बस…  आकर एक बार मिल ले…   थैली लौटानी है उसकी… किसी की धरोहर लेकर वो कैसे जा सकती है…

कई दिन बीत गए थे इस बीच और अब उसका ये तर्क भी कमजोर होने लगा था…

ब्रहदत्त कहते – ‘दे दो उसके संगियों को, उसे दे देंगे वो न… आपको इतना चिंता क्या करना …

अब वह उतनी पुख्तगी से कह भी नहीं पाती थी, पहले की तरह- ‘ऐसे कैसे ..’.

उस दिन उसने खीजकर हामी भर दी थी… गाड़ी भी आ गयी थी… वो चल भी दी थी…

पर उसका मन …

उसका मन न जाने कितना तो भारी हुआ जा रहा था… एकदम से बेबस… किसी परकटी चिड़िया की नाई … जिसकी तड़फड़ाहट उसे बेबस कर रही थी …

कि हिरामन आ गया था…

सुकून मिला था उसे जैसे …

पर कबतक? कितनी देर के लिए था यह सुकून… अब और कितनी देर …. ?

शायद अंतिम बार मिल रहे थे वे… यह सोचकर जैसे उसका जी बैठा जा रहा था…

शब्द जैसे खो गए थे एकदम से उसके भीतर… वो तलाश रही थी उन्हें …पर जो मिल भी रहे थे, वो सब अपर्याप्त…

सब अर्थहीन ….

जैसे मन निचोड़कर कोई लिए जा रहा हो अपने साथ… वह देख रही थी उसी तरह हिरामन को जाते हुये ….बेबस… चुपचाप…

सोचते -सोचते एकदम से भोर हो आई थी… बीते सारे दिन एक-एककर गुजर चुके थे उसके आगे से… अब वह खाली थी… एकदम से शून्य…

वह मन ही मन बुदबुदाई थी – ‘गर्दिशे अय्याम तेरा शुक्रिया / हमने हर पहलू से दुनिया देख ली …’

उसे कुछ कहता हुआ जानकर ऊपर वाले बुजुर्गवार एकदम से नीचे चले आए थे …जैसे कि वह उन्हीं से मुखातिब हो एकदम –‘क्या बिटिया? कुछ कह रही थी? उन्होने बहुत अपनाहियत से पूछा था…

‘कुछ भी नहीं’ कहकर उसने अपनी तरफ से एकदम दम साध लिया…

कौन? कहाँ? कैसे ? तमाम सवालात थे कि फिर भी उस ओर से आये ही जा रहे थे?

हीरा खीज रही… हद है मतलब…

इतनी ज्यादा दरियाफ्त कि पल भर को कुछ सोचने की भी इजाजत नहीं…

पर उसे चैन भी मिला है इससे…सोचने और सोचते रहने के उस अंतहीन कवायद से वह कुछ क्षण को मुक्त तो हुयी थी…

अजीब बात यह कि… ‘कौन है वह’ के जबाब में उसने बुजुर्गवार व्यक्ति से कहा है – ‘सीतापुर कि डॉक्टर (डागदरनी) …कहकर वह मुस्कुरा दी है एक भोली मुस्कान …

हीरा सोचती है- नहीं, यह यथार्थ से पलायन नहीं कोई …न ही उसके भीतर अपने परिचय को लेकर कोई क्षोभ याकि ग्लानि है…बस यह बहुत से गैरजरूरी सवालातों से बचे रहने की एक नामुकम्मल सी कोशिश है…

यह किसी को याद करना और करते रहना है बार-बार ……कि हिरामन जा ही नहीं रहा उसके मन से…

फिर भी उसका मन है कि इस घड़ी एकदम शांतचित्त और स्थिर है. वह सोचती है और खूब पुख्तगी से सोचती है- ‘कानपुर लौटकर भी वह अब पुरानी कंपनी नहीं लौटेगी …

अपना थियेटर खोलेगी वो…

पैसे?

-‘इस्स… पैसा-पैसा. हरदम रुपैया–पैसा…’ उसे हिरामन कि याद फिर-फिर हो आती है…

यूं कुछ पैसे होंगे उसके पास और कुछ का इंतजाम वह कर लेगी…  

नाम? नाम क्या रखेगी उसका?

–‘दी ग्रेट चाँद एंड रूप थियेटर…  

लेकिन उसे अब अपने भीतर बसी उस महुआ घटवारिन को भूलना होगा…भूलना होगा उस सब्ज परी को …

भूलना होगा उस नन्हीं सी हीर को, उसके घर-गृहस्थी के सपनों को …

कि वो हीर नहीं है, कोई परी नहीं है, महुआ घटवारिन भी नहीं… 

हीराबाई है अब से सिर्फ…

… इसीलिए महुआ घटवारिन को अब डूबना ही होगा …कि यही है उसकी नियति… हीराबाई को लेना होगा पुनर्जन्म… उसके मन में तीसरी कसम का मजमून अब आकार लेने लगा है… लेकिन इसमें भी वो हिरामन को भूल जाने की बात शामिल नहीं करती…गलती से भी नहीं ….

***

रचना प्रक्रिया

हीरा, जो कहीं मेरे भीतर थी…

-कविता रेणु की किसी कहानी को अपनी तरह से लिखना याकि उसे आगे ले जाना एक तरह से खतरे से खेलने का सा मुश्किल और दुरूह कार्य है. यह खतरा तब और अधिक बड़ा हो जाता है, जब वह कहानी ‘तीसरी कसम’ हो- अमर, बेमिसाल और मील का पत्थर ‘तीसरी कसम’… वह एक अकेली कहानी, सिर्फ जिसे लिखकर भी रेणु अमर होते।  

‘तीसरी कसम’ यानी वह कहानी, जिसे सैलूलायड पर पुनर्सृजित करने की जिद और ललक शैलेंद्र को भी ले डूबती है… गीतकार से निर्माता बनने की उनकी यह यात्रा आखिर इसे ही तो रचकर पूर्णाहुति को प्राप्त होती है। स्वयं रेणु को भी ‘तीसरी कसम’ फिल्म न सिर्फ शैलेंद्र की मृत्यु का कारण लगती है वरन कहीं वह इसके जड़ में स्वयं को भी बतौर कारक पाते हैं… काश!…

और यह काश उनके सीने में किसी फांस कि तरह चुभता रहता है रह रहकर – ‘शैलेंद्र की मृत्यु के बाद जब भी कभी लिखने बैठा एक मुजरिम कि सफाई– ‘प्लीडिंग नॉट गिल्टी’ का रिकार्ड का दस्तावेज़ बनकर रह जाता… एक अपराध-भाव से पीड़ित अपनी आस्तीन दिखलाकर स्वयं को समझाता रहता– ‘नहीं मेरी आस्तीन पर लहू का दाग नहीं… मैंने शैलेंद्र का खून नहीं किया। मैं शैलेंद्र का हत्यारा नहीं’ … उसे शराब या कर्ज ने नहीं मारा बल्कि एक धर्मयुद्ध में वह लड़ता हुआ शहीद हुआ… सोचता हूँ अगर उसकी पहली चिट्ठी का जबाब मैं नहीं देता अथवा नकारात्मक उत्तर देता तो शैलेंद्र प्रोड्यूसर बनने का इरादा छोडकर गीत लिखता रहता। अपने परिवार के साथ सुख-चैन से सौ बरस तक जीता रहता…’ (रेणु अपने लेख ‘चिठिया हो तो हर कोई बाँचे’ में)

आखिर वह धर्मयुद्ध क्या था जिससे शैलेंद्र लड़ते रहे अपने अंत तक? अकेले और तन्हा पड़ जाने की हद तक … फिर भी जिसका लगाव न उनसे छूटा, न उन्होंने उसे बनाने या फिर प्रदर्शित करने के निर्णय को कभी एक पल को भी छोड़ा याकि स्थगित होने दिया। पूरे छह बरस वो इस फिल्म के लिए हर पल जीते रहे और इस क्रम में इस जीने के लिए तिल-तिल मरते…. शैलेंद्र के ही शब्द हैं-  ‘सब भाग गए अपने-पराये, दोस्त यार। यहाँ तक कि ‘तीसरी कसम’ के कथाकार रेणु भी। इसलिए कि तीसरी कसम को पूरा करने का श्रेय शायद मुझ अकेले को मिले। रोऊँ या खुश होऊँ, कुछ समझ नहीं आता। पर तीसरी कसम पर मुझे नाज रहेगा हमेशा, पछतावा नहीं…’

सोचनेवाली बात है कि कैसी अद्भुत होगी वो कहानी, जिसके पुनर्सृजन के क्रम में एक लेखक अपनी जान गंवा बैठता है? उस कहानी को हाथ लगाने को सोचने से बड़ा जोखिम का काम और क्या हो सकता है… पर यही जोखिम मुझे इस कहानी की तरफ जाने को बेचैन करता था बार-बार… इसे उलट-पुलटकर बार-बार देखने को… एक बार तो ऐसा भी लगा था कि यह कहानी राकेश दूबे के हिस्से चली गयी… तब जैसे एक चैन कि सांस मिली थी… भला हुआ, जो भी हुआ… ‘तीसरी कसम’ के निकष पर मेरी कहानी तौली जाये, यह एहसास भी भयभीत करनेवाला था मेरे लिए, मैं यह माद्दा लाती भी तो आखिर कहाँ से लाती …

लेकिन मन में एक कसक थी और कहीं गहरे थी…

काश! …

मन अब भी कह रहा था- ‘मुझे यही कहानी चाहिए थी, केवल यही … दूसरी कोई भी नहीं…’ कहीं चिढ़ और गुस्सा भी था… अच्छी कहानियां जब बंट ही चुकी तो… फिर इस योजना में मेरे होने का भला औचित्य ही क्या है और क्यूँ है? यहाँ ‘अच्छी’ से मेरा तात्पर्य उन कहानियों से है, जिससे मैं खुद को कहीं जुड़ा हुआ पाती हूँ…याकि जिससे मेरा आत्मिक लगाव है, बतौर एक स्त्री, बतौर एक पाठक और बतौर एक कथाकार… बल्कि कहें तो यहाँ मामला अपने ‘मनोनुकूल’ और अपने लिए ‘सुविधाजनक’ चुनने का भी ज्यादा रहा होगा। जहां यह लिखना मेरे लिए एफर्ट्लेस हो, सप्रयास और किसी बोझ कि तरह नहीं…  जिस पात्र से मैं सहज रूप से तादात्म्य कर सकती हूँ। नहीं तो रेणु की कालजयी कहानियों को क्रम देने की या फिर श्रेष्ठतर और कमतर कहने कि मेरी औकात ही कहाँ है। ‘तीसरी कसम’ के अलावे एक ही कहानी फिर मेरी इस फेहरिस्त में सम्मिलित होती थी, वह है – ‘रसप्रिया’।  लेकिन इसके साथ भी एक असुविधा थी, एक भय- कि इस लोक-भाषा और लोक-रंग को बूझने और महसूसने के बावजूद क्या मैं इसके साथ न्याय कर सकूँगी? उसी पल मन में एक खयाल भी कौंधा था- ‘क्या इसीलिए रेणु सिर्फ हिरामन की बात कहते रहे, उसके मन को पढ़ते रहे कि हीराबाई के लोकेल या फिर पृष्ठभूमि से वो कम परिचित थे, बनिस्बत हिरामन के…? वरना स्त्री मन को वे कितना अधिक बूझते थे, यह उनकी कहानियाँ भी बताती हैं और ‘परती परिकथा’ जैसा उनका उपन्यास भी…’   

जबाब में सिर्फ कशमकश और ऊहापोह ही होता मेरे हिस्से …

भला हो संजीव कुमार का कि पुस्तक मेले में जब इस परियोजना पर बात चल रही थी तो उन्होने यह कहा कि ‘तीसरी कसम’ किसी स्त्री कथाकार के हिस्से जाये तो बेहतर, कि इस कहानी में स्त्री का पक्ष बहुत कम है…

मेरे भीतर फिर से एक उम्मीद जागी थी… शायद अब… हुआ भी यही… अगर संजीव जी उस दिन न मिलते याकि यह बात नहीं हुयी होती तो शायद… मैं अपनी आदत के अनुसार अपनी बात अपने मन में ही रखे रहती…  

यह तय हो जाने के बावजूद कहानीकार ‘राकेश दूबे’ के लिए मन में दुविधा और पीड़ा थी – ‘वे क्या सोचेंगे, उन्हें कैसा महसूस होगा, यह उचित है क्या?’ उनसे फोन पर जब मैंने अपनी  ग्लानि कि बात कही तो उन्होने कहा – ‘आप बिलकुल भी परेशान न हों, भैया (राकेश बिहारी) ने जैसे ही कहा कि तीसरी कसम आप लिखना चाहती हैं, मैंने फट से हाँ कह दिया… दरअसल इस कहानी को लिखना सबसे मुश्किल और खतरनाक है, कि सबसे ज्यादा अपेक्षाएँ इस कहानी से ही जुड़ी होंगी, माईलस्टोन कहानी है यह रेणु जी की…’ मैं जानती हूँ कि राकेश एक बेहतरीन कथाकार हैं और ऐसा उन्होने सिर्फ मुझे दुविधामुक्त करने के लिए कहा होगा…                     

लेकिन मेरे लिए अब चुनौती चौतरफा थी और बेहद जटिल…  मुझे अब यह चुनना था कि मुझे किसके करीब होना है, किसके नहीं…मैं कहाँ तक निर्बाध जा सकती हूँ और कहाँ जाकर रूक जाना है मुझे …

फिल्म ‘तीसरी कसम’ जितनी कथाकार रेणु की है, उससे थोड़ी भी कम शैलेंद्र और बासु दा की नहीं… रेणु ने उसे कागज पर रचा तो उन्होंने सिनेमा के रुपहले पर्दे पर… इस रचे में वह सब तो सम्मिलित था जो कहानी के मूल में है बल्कि कहीं ज्यादा साफ और स्पष्ट तरीके से, बल्कि वह भी जो कहानी में कम है, जैसे हीराबाई का मन… मेरी कहानी भी हीराबाई के इसी मन के इर्द-गिर्द भटकती रहती है॰…  कहानी के जिस पक्ष को फिल्म में सम्मिलित नहीं किया गया वो है, महुआ घटवारिन की कथा का लोक गीत, जिसे शैलेंद्र ‘चिठिया हो तो हर कोई बाँचे…’ गीत में रूपांतरित कर देते हैं… या फिर सौदागर के नौकर की कथा (कि उसके पीछे भी बहुत कुछ अंतर्निहित है, खासकर के फिल्म के अधिकतम लोगों तक कम्युनिकेट करने की ईच्छा…)

चूंकि मैं रेणु की कहानी को पुनर्सृजित कर रही थी मेरी यह कोशिश रही कि मैं कहानी के सन्निकट ज्यादा रहूँ, न कि फिल्म के।

लिखने के क्रम में मैंने कहानी के प्रस्थान बिन्दु को लेकर भी खूब सोचा और कई तरीके से विचार किया, कभी सोचती कहानी को आज के समय में ले आऊँ, तो कभी लगता हीराबाई की कथा को उसकी अगली पीढ़ियों तक ले जाऊँ, कभी लगता हीराबाई की जगह किसी अन्य स्त्री पात्र की रचना करूँ… लेकिन आखिरकार अंततः वही पहुँचना हुआ, जो कि मेरे मन में सबसे पहले आया था… खुद हीराबाई हिरामन के लिए क्या सोचती होगी… शायद इसलिए भी कि यही मेरे मन की  बात थी।

इसे लिख लेने का मानसिक और संवेदनात्मक दबाब इतना गहरा था कि इसे लिखते हुये जैसे हर भय से मुक्त रही और बस कहानी ही चलती रही मन में… पर अब लिख लेने के बाद फिर वही भय सिर उठाए खड़ा है, ‘तीसरी कसम’ के मुक़ाबिल कहाँ खड़ी होगी यह कहानी? पाठक इसे किस तरह लेंगे याकि देखेंगे? … न जाने कितने भय, कितने प्रश्न…

बस इतना अनुरोध है, इसे रेणु की ‘तीसरी कसम’ के बरक्स नहीं, बतौर कविता की लिखी ‘तीसरी कसम’ की तरह देखा और पढ़ा जाये, किसी बड़ी अपेक्षा और तुलना के बगैर …

अपनी कहूँ तो लग ही नहीं रहा कि मैंने यह कहानी लिखी है, बल्कि लग रहा जैसी भी है, कहानी अपने आप उतर आई चुपचाप … वह कोई हीराबाई ही थी जो मेरे माध्यम से अपनी कहानी कह गयी… माध्यम होने का कोई दंभ भी नहीं, बस भीतर एक चिर खालीपन है… इस मानसिक अवस्था में मुझे दिनकर जी की वो  पंक्तियाँ याद आ रही हैं बार-बार, जो उन्होने ‘उर्वशी’ के लिए कही थी-    

‘मैं घोर चिंतना में धंसकर, पहुंचा भाषा के उस तट पर

था जहां काव्य यह धरा हुआ, सब लिखा-लिखाया पड़ा हुआ

बस झेल गहन गोते का सुख, ले आया इसे जगत सम्मुख।‘ बस मैं इन पंक्तियों में ‘भाषा’ की जगह ‘संवेदना’ को धर देना चाहती हूँ।


कविता : जन्म: 15 अगस्त, मुज़फ्फरपुर (बिहार)। शिक्षा: हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली से भारतीय कलानिधि। पिछले दो दशकों से कहानी की दुनिया में सतत सक्रिय कविता स्त्री जीवन के बारीक रेशों से बुनी स्वप्न और प्रतिरोध की सकारात्मक कहानियों के लिए जानी जाती हैं। सात कहानी-संग्रह – ‘मेरी नाप के कपड़े’, ‘उलटबांसी’, ‘नदी जो अब भी बहती है’, ‘आवाज़ों वाली गली’, ‘गौरतलब कहानियाँ’, ‘मैं और मेरी कहानियाँ’ तथा ‘क से कहानी घ से घर’ और दो उपन्यास ‘मेरा पता कोई और है’ तथा ‘ये दिये रात की ज़रूरत थे’ प्रकाशित। ‘मैं हंस नहीं पढ़ता’, ‘वह सुबह कभी तो आयेगी’ (लेख), ‘जवाब दो विक्रमादित्य’ (साक्षात्कार) तथा ‘अब वे वहां नहीं रहते’ (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार) का संपादन। रचनात्मक लेखन के साथ स्त्री विषयक लेख, कथा-समीक्षा, रंग-समीक्षा आदि का निरंतर लेखन। ‘मेरी नाप के कपड़े’ कहानी के लिये अमृत लाल नागर कहानी पुरस्कार प्राप्त। चर्चित कहानी ‘उलटबांसी’ का अंग्रेज़ी अनुवाद जुबान द्वारा प्रकाशित संकलन ‘हर पीस ऑफ स्काई’ में शामिल। कुछ कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित। ईमेल- kavitasonsi@gmail.com


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Comments

  1. भारती बिंदु

    आप की लेखनी में झलक एक देदीप्यमान हस्ताक्षर की और ललक उस ऊंचाई को छूने की !! हीरा मीता है हिरामन की और सुगीता है रेणु की किन्तु आप की हीरा वास्तव में हीरा है जी हीरामन की पीड़ा को अंत: मन में रख जीना चाहती !!

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