आपका बंटी : सबका बंटी

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कविता

‘आपका बंटी’ पर लिखने का यह मतलब कदापि नहीं कि मैं इसे ही मन्नूजी की सर्वश्रेष्ठ कृति मानती हूँ बल्कि यह मेरे लिए व्यक्तिगत पसंद और चुनाव का मामला ज्यादा है. वरना चाहे ‘महाभोज’ हो या उनकी कहानियां या उनकी अन्य रचनाएं सभी उत्कृष्टता के मानक पर खरी उतरती हैं. यही नहीं मन्नू जी का योगदान उपन्यास और कहानियों के संग-संग फिल्म और धारवाहिक पटकथा लेखन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय रहा है. रजनी, दर्पण, एक कहानी जैसे 90 के दशक के प्रमुख दूरदर्शन धारावाहिक इसके उल्लेखनीय उदाहरण हैं.

बबहराहाल जिस तरह मैं मन्नू जी की किसी एक कृति पर लिखने की बात आने पर ‘आपका बंटी’ पर लिखने के लिए स्पष्ट और प्रतिबद्ध हूँ, उतनी स्पष्ट इस बात को लेकर नहीं कि किसी किताब पर लिखने के क्रम में लेखक पर, उसके निज पर या उसके साथ अपने औपचारिक-अनौपचारिक संबंधों पर लिखा जाना चाहिए कि नहीं? पर यहाँ मैं उनसे अपनी कुछ निजी बातचीत की चर्चा करना जरुरी समझ रही. जिससे इस किताब संबंधी आम संकल्पनाओं-अवधारणाओं के साथ उनका अपना पक्ष भी सामने आ सके,

किसी पत्रिका के ख़ास अंक के लिए इंटरव्यू के सिलसिले में मन्नू जी के साथ एक लम्बी मुलाक़ात मेरी स्मृतियों में आज भी दर्ज है. हालांकि किन्हीं कारणों से उस अंक की योजना ही स्थगित हो गई और वह बातचीत प्रकाशित नहीं हो सकी.तब लगता था कि कुछ निजी और अन्तरंग प्रसंगों की चर्चा के कारण कई मामलों में वह एक यादगार इंटरव्यू हो सकता था पर उसे कहीं अन्यत्र नहीं छपवाने के पीछे मेरे इस निजी सोच का योगदान था कि हर ऐसे किसी इंटरव्यू के बाद चाहे वह राजेन्द्र जी का हो या फिर मन्नू जी का, उनदोनों के बीच एक लम्बी चुप्पी पसर जाती थी. उन वर्षों में हंस और राजेन्द्र जी के साथ लगातार जुड़े रहने के क्रम में मैंने यह कहीं गहरे महसूस किया था… उन दोनों के अलग रहने के बावजूद समरस भाव से चलता उनका सम्बन्ध कुछ दिनों के लिए अव्यवस्थित और उखड़ा-उखड़ा हो जाता था. रोज-रोज के टेलीफोन वार्तालाप, छोटी-बड़ी ख़बरों का आदान–प्रदान सबकुछ कुछ दिनों के लिए बाधित हो चलता था. उनसे गहरे जुड़े होने के कारण जाहिर है यह बात मुझे भली नहीं लगती थी. यही कारण है कि बार-बार कहने के बावजूद मैंने उस बातचीत का कैसेट राजेन्द्रजी को भी सुनने केलिए नहीं दिया जबकि इंटरव्यू केलिए टेप रिकार्डर मुझे उन्होंने ही उपलब्ध कराया था. बाद में जब मन्नू जी से भी मैंने इस इंटरव्यू को कहीं देने-न-देने के अपने उहापोह के बारे में कहा तो उन्होने भी यही कहा-‘रहने ही दो इसे…’

उस बातचीत में मन्नू जी ने आपका बंटी की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए कहा था –‘इस किताब को लिखने का पहला खयाल मोहन राकेश और सुशीला की शादी के टूटने और अनीता से उनकी शादी होने और सुशीला के भी तुरत-फुरत दूसरी शादी के निर्णय के बाद आया था. मेरे ख्याल में बार-बार उनका बच्चा घूमता रहता. अब वह कहाँ रहेगा. कैसे रहेगा? किसके पास? मुझे बार-बार लगता सुशीला को माँ होने के नाते थोड़ा रूकना था, इन्तजार करना था. मैं दूसरी शादी की विरोधी नहीं हूँ, औरतों की दूसरी शादी की भी नहीं… पर बच्चे का जूझना और पिसना, माँ-बाप के बीच, मुझे बुरा लगता है. तकलीफ होती है.’

‘आपका बंटी’ में भी शकुन और अजय के संबंधों की आपसी टकराहट में सबसे अधिक पिसता तो बंटी ही है.वह सामान रूप से दोनों से जुड़ा है.यानी यह खंडित निष्ठा ही उसकी नियति है.एक घर से दूसरे घर, दूसरे से तीसरे और फिर तीसरे से हॉस्टल तक की यात्रा बंटी की नियति हो गई हो जैसे. समझदार,सेंसेटिव और पढाई लिखाई में हुशियार बंटी धीरे-धीरे चुप्पा, नासमझ, गुस्सैल और प्रतिक्रियावादी होता जाता है. सहज समझ आनेवाली पढाई उसके लिए दुरूह से दुरुह्तर होती जाती है, क्योंकि हमेशा वह अब एक काल्पनिक दुनिया में जीता रहता है. फूफी की और कभी-कभी माँ के द्वारा सुनाई गयी राजा-रानी, भूत-चुड़ैलों की काल्पनिक दुनिया में. माँ के साथ होते हुए ही उसका साबका वास्तविक दुनिया से होता है, पर माँ है कि उसके हिस्से धीरे-धीरे कम और कम होती जा रही है. और वह लगातार वास्तविक दुनिया से अवास्तविक दुनिया का वासी. हालांकि वह बनना तो अपनी माँ की ख़ुशी के लिए कहानियों वाला वह राजकुमार चाहता था, जो अपनी माँ के लिए सात समंदर, पर्वत–पठार पार कर जाता है पर माँ की एक अदेखी भर से बन जाता है, बिछावन पर सुस्सू करने वाला लगातार दुस्वप्नों में जीनेवाला एक अवश बच्चा.

हालांकि ‘आपका बंटी’ की भूमिका ’’बंटी की जन्मपत्री’ में घोषित याकि प्रकट रूप में मन्नू जी मोहन राकेश की ज़िंदगी से इस उपन्यास के जुड़ाव की बात नहीं कहती. वे वहां बंटी के बनने याकि लिखे जाने में अलग-अलग टूटे और बिखरे हुए परिवारों में, अलग-अलग परिस्थितियों में पल रहे बच्चों के चेहरे और उनकी स्थितियों के क्रमशः घुल-मिलकर एकमेक होने की बात भर करती हैं- ‘बंटी किन्हीं एक-दो घरों में नहीं आज के अनेक परिवारों में सांस ले रहा है.अलग अलग सन्दर्भ और स्थितियों में… किसी एक व्यक्ति के साथ हुई यह घटना दया, करुणा और भावुकता पैदा कर सकती है , लेकिन जिंदगियां जब एक जैसे सांचे में सामने आने लगती हैं,तो दया और भावुकता के स्थान पर मन में एक आतंक भरने लगता है…बंटी के इन अलग-अलग टुकड़ों ने उस समय मुझे करुणा-विगलित और उच्छस्वित ही किया. लेकिन सब मिलाकर और जोड़कर जब बंटी मेरे सामने खड़ा हुआ तब मैंने अपने आपको आतंकित ही अधिक पाया.’ लेकिन मुझसे बातचीत में उन्होंने यह भी कहा -‘ मेरे ये कहने पर कि मैंने बगैर इजाजत और बिना आपसे पूछे आपके रिश्तों और जीवन को अपने उपन्यास का केंद्र बनाया, आपको बुरा लगा होगा? मोहन राकेश ने कहा था- ‘हम लेखक हैं और जो देखते हैं वही लिखते हैं, प्लाट भी हम कहाँ से लेंगे अपने आसपास से ही न. इसमें पूछना और कहना क्या और क्या ही तो सफाई देना मन्नू.हम सब लेखक ठहरे, हमारा दायित्व सबसे पहले समाज के लिए हैं न कि व्यक्ति-विशेष या फिर सम्बन्ध –विशेष के प्रति.’

उपन्यास के इसी प्राक्कथन में मन्नू जी लिखती है-‘अचानक से पी. का फोन आया -‘तुमसे कुछ जरुरी बातें करनी हैं. जैसे भी हो शाम को मिलो. मैं उस जरुरी बात से कुछ अपरिचित थी और कुछ चिंतित भी. … उसने परेशानी और बदहवासी में कहा–समस्या बंटी की है . तुम्हें शायद मालूम नहीं कि बंटी की माँ ने शादी कर ली.मैं बिलकुल नहीं चाहता कि वह वहां एक अवांछनीय तत्व बनकर रहे.इसिलिये तय किया है कि मैं उसे यहाँ ले आऊँगा. वे देर तक यह बताते रहें कि मैं बंटी से कितना प्यार करता हूँ… मैंने बहुत देर बाद अपनी प्रतिक्रया दी थी –‘आप ऐसा नहीं सोचते कि यह गलत होगा ? मुझे यह लगता है कि उसे अपनी माँ के पास रहना चाहिए .साल में एक दो बार मिलने के सिवाय उससे आपके कोई आसंग नहीं हैं जबकि माँ के साथ वह शुरू से रहा है.इस नाजुक उम्र में वह वहाँ से उजड़ जाएगा और यहाँ जम नहीं पायेगा.’

अगर हम यहाँ एक क्षण को पी. के चेहरे में मोहन राकेश का चेहरा तलाशें तो साक्षात्कार और पूर्व-कथन के इस बातचीत की सारी कड़ियाँ स्वयंमेव एक दूसरे से जुड़ जाती लगेंगी. वह अंतराल जो प्राक्कथन और निजी बातचीत के बीच का है वह खुद-ब-खुद ख़त्म हो जाएगा.

हालांकि प्रश्न अब भी यहाँ यह है कि यह साबित भर हो जाने से इस उपन्यास में नया क्या जुड़ता या फिर बनता-बिगड़ता है? तो जहां तक मैं समझती हूँ इस सन्दर्भ के जुड़ भर जाने से यह कहानी एक काल्पनिक कहानी के खोल से छिटककर एक दस्तावेज हुयी जाती है. लेखकों की निजी जिन्दगी, उसकी परतें और उस पर पड़े पर्दें यहाँ खुलते हैं. हो सकता है मित्रता और समकालीनता के सन्दर्भ ने उन्हें एक कल्पित नाम रखने को मजबूर किया हो. और पी. की व्युत्पत्ति वहीं से हुयी हो. हो यह भी सकता है मन्नू जी के सामने ऐसे कई अन्य परिवार और बच्चे क्रमशः आते गए हों और बंटी का चेहरा आकार और गढ़त लेता रहा हो? होने को यह भी हो सकता है, मोहन राकेश और उनके परिवार से समकालीन पाठकों का ध्यान हटाने के लिए उन्होंने यह कहानी जोड़ी हो, कि कथाकार आखिरकार गल्पकार होता है . अगर कहानी में गल्प कम हो तो वह भूमिका में गल्प का सहारा लेगा.

हालांकि उसके बगैर भी बंटी उतना ही प्रामाणिक है, उतना ही स्मरणीय और उद्धरणीय. बीतते समय के साथ –साथ उसकी प्रासंगिकता कमने की बजाय बढ़ रही है, यह इस किताब के साथ जुडी सबसे बड़ी त्रासदी है. तलाक और पुनर्विवाह के नाम पर जितने भी घर टूटते या फिर जुड़ते हैं, हर एक घर में एकाध बंटी जरुर होते हैं. . बच्चों के मनोजगत को केंद्र में लेकर लिखा गया ऐसा कोई दूसरा उपन्यास शायद ही हिन्दी साहित्य में उपलब्ध हो. बंटी के उहापोह, बंटी का दर्द, बंटी की बेचैनी, उसकी आंतरिक मनोदशा को वे जिस संवेदनात्मक लगाव और अंतरंगता से उकेरती है, ऐसा शायद इसलिए भी सहज-संभव हो सका क्योंकि वे उस वक्त लगभग उसी उम्र की एक बिटिया की माँ थी. उनके निजी अनुभव भी इस उपन्यास की समृद्धि का एक बड़ा कारण रहे हैं, यह एक गजब का संयोग रहा है कि जहाँ उपन्यास की स्त्री पात्र शकुन शिक्षिका है, वहीं सुशीला जी और स्वयं मन्नू भंडारी भी शिक्षिका रही हैं. गौरतलब बात यह भी ठहरी कि इस उपन्यास को लिखने के लिए मन्नू जी भी अपनी बिटिया को घर में उनकी बुआ और पिता के साथ छोड़कर स्वयं कॉलेज के हॉस्टल में रहीं. पुत्री से अलगाव ने भी बंटी के दर्द को जैसे एक नया आकार प्रदान किया.

उनके हॉस्टल में रहने और ‘आपका बंटी’ लिखने के दौरान राजेन्द्र जी टिंकू (रचना यादव का घर का नाम) कों छुट्टियों के दिन मन्नू जी से हॉस्टल मिलवाने लेकर जाते थे. एक दिन जब शाम को यादव दंपत्ति किसी बात में मशगूल थे, टिंकू सामने के लॉन में खेलते हुए गिर पड़ी थी. मन्नू जी जब भागकर उन्हें उठाने गयी., रचना ने यह कहा- तुम्हें क्या पड़ी है मेरी, तुम यहाँ रहकर अपना उपन्यास लिखो.’ मन्नू जी बताती हैं कि एक पल के लिए उनका मन एकदम विचलित हो उठा था, वे तुरत घर लौट भी गयी होती अगर राजेन्द्र जी ने उन्हें समझाया नहीं होता कि वहां वो एकदम मजे से रहती है, बस तुम्हें देखकर इमोशनल हो रही.

यह कहानी कहीं से एकरेखीय नहीं होती, यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है. गिने-चुने पात्र हैं इस उपन्यास में और उसमें से भी कोई खल नहीं. उसके नजरिये से देखिये वो अपनी जगह बिलकुल सही नजर आयेगा. चाहे वह बंटी की माँ शकुन हो, पिता अजय हो, सौतेली माँ मीरा हो, सौतेले पिता डा.साहब हों या फिर सहायक पात्रों में वकील चाचा, और उसे जन्म से पालने-संभालने वाली घरेलू सहायिका फूफी. फिर माली चाचा जिससे वह बागवानी के अपने शौक के साथ कहीं गहरे जुड़ा हुआ है. पहला घर छूटने और फूफी और माली चाचा से अलग होने के बाद तो वह जैसे एकदम से अकेला हो जाता है. बाबजूद इसके मानवीय दुर्बलताएं और चरित्रों के स्वेत-श्याम पक्ष हर चरित्र में हैं. वकील चाचा जब ये कहते हैं कि तलाक के कागज़ पर साईन कर देना तुम्हारे लिए और बंटी दोनों के हक़ के लिए बेहतर है, शकुन के लिए, बंटी के लिए अपना कलेजा काढ़कर रख देने वाले लगते हैं , लेकिन इसी क्रम में जब वे मीरा के प्रेग्नेंट होने की बात कहते हैं तो उनका पक्ष साफ़ स्पष्ट हो जाता है कि वे सिर्फ अजय के दोस्त हैं, उसके हक़ की सोचने वाले उसके साथ खड़े रहने वाले. मीरा के मन में भी बंटी को खुद से अलगाने और दूसरी शादी करने का बीज कहीं वही तो रोप जाते हैं. शकुन के साथ-साथ हमेशा परछाई की तरह खड़ी रहनेवाली, बंटी के लिए माँ की तरह चिंतित होती, स्नेह उड़ेलती और पिता के पास जाने पर शकुन से ज्यादा रुष्ट होती फूफी एक स्त्री होने के बावजूद शकुन के दूसरे विवाह के निर्णय पर उसके साथ नहीं खड़ी होती. सबकुछ छोड़कर हरिद्वार जा बसने का निर्णय लेती है तो इसलिए कि उसके हिसाब से शकुन यहाँ गलत है. पिता का दूसरा विवाह उसके लिए एक पल को क्षम्य हो सकता है , माँ का बिलकुल नहीं कि उसके हिसाब से दोनों ने ही बस बच्चे की मिट्टी ही पलीद की है.

खुद शकुन भी और अजय भी, बंटी को एक दूसरे से निरंतर चलने वाली अपनी लड़ाई में तलवार और ढाल की ही तरह तो इस्तेमाल कर रहें.शकुन को लगातार बंटी की नाराजगी में अजय का नाराज चेहरा ही तो दिखाई देता है. बस एक बार वकील साहब के कहने भर पर वह वर्षों से उपेक्षित डॉक्टर साहब के विवाह प्रस्ताव पर फिर से सोचना शुरू कर देती है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं-न –कहीं यह उसके भी मन की बात है. अजय से लगातार नाराज रहते और लड़ते हुए मन ही मन हर पल वह खुद को अजय की ही तो निगाह से देखती-परखती रही है. अपनी तरक्की, नौकरी, यहाँ तक कि अपने बच्चे को अपने साथ रखकर वह एक तरह से अजय को ही तो नीचा दिखाना चाहती है, उसे मात देना, आहत करना. वह इस अज्ञात और निरंतर चलने वाले मानसिक युद्ध से मुक्ति चाहती है, उससे उबरना भी और उसकी यह मुक्ति डॉक्टर साहब और उनके बच्चों से जुड़ने में, एक बार फिर से नया घर जोड़ने और बसाने में ही है. पर बंटी यहीं कहीं पीछे छूट जाता है उससे, वह बंटी जो कभी उसके जीवन की धुरी होता था. शकुन के हर सोच और हर कार्य का केंद्रबिंदु.

शकुन आदर्श माँ के चरित्र की तरह बिलकुल नहीं रची गई . मन्नू भंडारी ने उसे स्त्री और एक स्वतंत्र इकाई की तरह ज्यादा रचा है. यह मन्नू भंडारी के रचनाओं की विशेषता रही है कि हमेशा उनकी रचनाओं की स्त्री पात्र अपने समय और समाज से आगे चलती हैं, पीछे नहीं छूटती कभी, यही सच है’ कहानी की नायिका दीपा उस समय किसी दूसरे याकि अनजान शहर में अकेली रहकर नौकरी करती है.जबकि उसी कहानी पर फिल्म बनाते वक्त बासु दा उसे भाभी-भैया के साथ रहते हुए दिखाते हैं, उन्हें पता था कि तबके आम दर्शक के लिए उसका अकेले रहना, एक साथ दो संबंधों में जीना अजूबा लग सकता है. यह फिल्म के डूबने का कारण भी हो सकता है. तो वे फिल्म की मूल कहानी से बिलकुल भी छेडछाड न करते हुए एक छोटा सा रद्दोबदल बस परिवेश में कर जाते हैं. शकुन भी तो ऐसी ही है, तलाकशुदा कहें तो परित्यक्ता फिर भी रोती- बिसूरती हुयी नहीं, अपने दम पर नौकरी, बच्चे और अपने परिवार को सहेजकर चलने वाली स्त्री. हाँ इस कड़ी में वह कहीं स्वार्थी भी लगती है, या हो सकती है. बच्चे की जिन्दगी पर खुद को तरजीह देती हुई, अपनी ख़ुशी को ऊपर रखती हुयी शकुन ऐसी ही है. मन्नू भंडारी ने मनुष्य के भीतर के विरोधाभासो उसके भीतर के निजी स्वार्थों को यहाँ खूब करीने से गढ़ा है, अपने मन के विरुद्ध जाने वाले किसी को भी वह नहीं सुनती, उस फूफी को भी नहीं जिसपर वह बंटी के लिए खुद से ज्यादा यकीन रखती है. हम सब विरोधाभासों का समुच्चय और संकलन होते हैं, हमारे भीतर ही हमारी अच्छाई भी होती हैं और हमारे निहित स्वार्थ भी. इसको बताने के लिए मन्नू जी ने कुछ लोक कथाओं का कहानी में बेहतरीन प्रयोग किया है. जिसमें मुख्य है – सोनल रानी की कथा, वह रानी जो दरअसल एक चुड़ैल है, जो रात में भूख लगने पर अपने बच्चों को ही खाती है, सौतेले और सगे दोनों को. सुबह उन्हीं के लिए रोती-बिसूरती और कोहराम मचाती है. यह रोना भी कहीं से झूठा और नकली नहीं. भूख कब और कहाँ किसी में खाद्य-अखाद्य, अपने-पराये का बोध छोड़ता है? रूपकों के प्रयोग से इस कहानी के कुछ अन्य पक्ष खुलकर सामने आते हैं. .  

जब बेस्ट सेलर की परिकल्पना उस तरह आम बात नहीं थी, तब भी या कहें कि तबसे ‘आपका बंटी’ अधिकतम बिकने वाली किताबों की सूची में शामिल रहा है. हिंदी की किसी किताब का अंग्रेजी अनुवाद आज भले ही एक आम बात हो पर जब आम बात नहीं थी तब भी इसका अंग्रेजी अनुवाद हिंदी-साहित्य-समाज के लिए एक बड़ी परिघटना जैसी ही थी. यही नहीं न जाने तलाक-विषयक कितने फिल्मों का थीम कहीं–न-कहीं बंटी से मिलता-जुलता और बंटी जैसा मिल जाएगा. यह बंटी के लिए दुःख और प्रसिद्धि दोनों का सबब हो सकता है .

अंत लेकिन मन्नू जी के उसी कथन से करना चाहूंगी –‘जीते जागते बच्चे का तिल-तिल करके समाज की एक बेनाम इकाई बनते जाना यदि आपको सिर्फ विगलित करता है तो मैं यह समझूंगी यह पत्र सही पतों पर नहीं पहुंचा.’

दूसरों की बात मैं नहीं कह सकती कि यह किताब किन सही हाथों में पहुंचा या फिर नहीं, पर खुद मन्नू जी का बेटी के विवाह तक राजेन्द्र जी से अलग रहने के निर्णय को बचाये रहना कहीं-न–कहीं यह जरुर साबित करता है कि बंटी उनमें अटका और बचा हुआ रह गया था.


कविता : जन्म: 15 अगस्त, मुज़फ्फरपुर (बिहार)। शिक्षा: हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली से भारतीय कलानिधि। पिछले दो दशकों से कहानी की दुनिया में सतत सक्रिय कविता स्त्री जीवन के बारीक रेशों से बुनी स्वप्न और प्रतिरोध की सकारात्मक कहानियों के लिए जानी जाती हैं। सात कहानी-संग्रह – ‘मेरी नाप के कपड़े’, ‘उलटबांसी’, ‘नदी जो अब भी बहती है’, ‘आवाज़ों वाली गली’, ‘गौरतलब कहानियाँ’, ‘मैं और मेरी कहानियाँ’ तथा ‘क से कहानी घ से घर’ और दो उपन्यास ‘मेरा पता कोई और है’ तथा ‘ये दिये रात की ज़रूरत थे’ प्रकाशित। ‘मैं हंस नहीं पढ़ता’, ‘वह सुबह कभी तो आयेगी’ (लेख), ‘जवाब दो विक्रमादित्य’ (साक्षात्कार) तथा ‘अब वे वहां नहीं रहते’ (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार) का संपादन। रचनात्मक लेखन के साथ स्त्री विषयक लेख, कथा-समीक्षा, रंग-समीक्षा आदि का निरंतर लेखन। ‘मेरी नाप के कपड़े’ कहानी के लिये अमृत लाल नागर कहानी पुरस्कार प्राप्त। चर्चित कहानी ‘उलटबांसी’ का अंग्रेज़ी अनुवाद जुबान द्वारा प्रकाशित संकलन ‘हर पीस ऑफ स्काई’ में शामिल। कुछ कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित। ईमेल- kavitasonsi@gmail.com



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