गगनदीप
सृजनशीलता अपने आप में बड़ी चुनौती है, जो साहित्यकार को दिन-प्रतिदिन नवीन प्रेरक भूमि प्रदान करती है, जिससे एक कालजयी कृति का निर्माण सम्भव हो पाता है। साहित्य की विविधता का विकास मनुष्य के बौद्धिक स्तर पर आधारित है। जैसे-जैसे मानव का वैचारिक धरातल विस्तृत हुआ, साहित्यक गति में भी तीव्रता आई। आधुनिक युग में गद्य की विविध विधाओं का स्वरूप ग्रहण करना साहित्यकार की बौद्धिकता का ही प्रमाण है। इसी परम्परा में देखा जाए तो जीवनी विधा का स्वरूप भी मंद गति से 20वीं शती. में ही स्थापित हो पाया है। हालाँकि जिस स्तर पर इसका विकास होना नितांत आवश्यक था, नही हो पाया। क्योंकि जितना कठिन है किसी के व्यक्तित्व को जानना, उससे कहीं ज्यादा जटिल है किसी महान, तेजस्वी व्यक्तित्व को कलमबद्ध करना। जीवनी लिखते समय जिस पैनी दृष्टि तथा स्पष्टवादिता की ज़रुरत पड़ती है उस पर प्रत्येक व्यक्ति खरा नहीं उतर पाता। डॉ. रामचन्द्र तिवारी का कथन है:-
‘वस्तुतः जीवनी लेखन के लिए जिस मनोभूमि की आवश्यकता होती है, हिंदी साहित्य में अब तक उसका अभाव है। आत्मकथा की रचना के लिए खुला हुआ मन जो अपनी समस्त दुर्बलताओं को स्वीकार कर सके आवश्यक हैं। दूसरे की जीवनी लिखने के लिए चरित नायक के संबंध में पूर्ण जानकारी अपेक्षित है। चरित नायक के प्रति पूज्य भाव प्रशंसात्मक दृष्टिकोण होने के कारण प्राय उसके जीवन के वे प्रसंग छोड़ दिए जाते हैं जिन्हें वैज्ञानिक दृष्टि से समान महत्त्व दिया जाना चाहिए। हर मनुष्य के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब वह देवता होता है और ऐसे भी क्षण आते हैं जब उसके अचेतन में दबा हुआ पशु हुँकार उठता है। जीवनी लेखक के लिए आवश्यक है कि वह तटस्थ भाव से उभय-स्थितियों का चित्रण करे। जीवनी लिखने का कार्य उस समय और कठिन हो जाता है जब लेखक और चरितनायक में पिता-पुत्र, पति-पत्नी या गुरु शिष्य का संबंध होता है।’
जीवनी लेखन लम्बी प्रक्रिया और श्रमसाध्य कार्य है। शायद यह भी एक प्रमुख कारण है कि हिंदी में साहित्यकारों के अच्छे जीवन वृत्तांत बेहद कम प्राप्त हुए हैं। 21 शताब्दी तक आते-आते इस साहित्यक विधा की कुछ सफल कृतियाँ सामने आई हैं, जो कि सराहनीय प्रयास कहे जा सकते हैं। इसी परम्परा में एक और कड़ी अनल पाखी के नाम से जुड़ती है, जो दूसरी परंपरा की खोज तथा कविता के नए प्रतिमान जैसी बहुचर्चित रचनाएँ साहित्य की गोद में डालने वाले विख्यात आलोचक नामवर सिंह का संपूर्ण ज़िंदगीनामा है, जिसे अंकित नरवाल के द्वारा साकार रूप दिया गया है।
आज का पाठक वर्ग इतना चेतन है कि वह जानता है कि किसी सशक्त प्रतिभा से परिचित होना है तो उसके जीवन के ऊहा-पोह, संघर्ष तथा चुनौतियों को जानना बेहद आवश्यक है । बात जब हिंदी के नामी साहित्यकार और स्थापित आलोचक की प्रतिभा की हो तो उसके जीवन पर दृष्टिपात करना और भी अनिवार्य हो जाता। क्योंकि साहित्य का उद्देश्य केवल मनुष्य के मस्तिष्क को संतुष्ट करना नहीं है बल्कि वह उसके जीवन को अधिक सुगम बनाने की चेष्टा भी करता है और इसमें प्रख्यात चरित्रों के आख्यान अहम भूमिका निभाते हैं, तो यहाँ क़रीबन 350 पृष्ठों का यह जीवन ब्योरा प्रस्तुत है जो हिंदी आलोचना की रीढ़ और आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य डॉक्टर नामवर सिंह से संवाद स्थापित करता है।
साहित्यकार की पहचान उसके साहित्य की वैचारिकता तथा प्रासंगिकता से होती है। इस दृष्टि से नामवर सिंह शीर्ष साहित्यकार बने रहे हैं। आलोच्य जीवनी उनकी सम्पूर्ण जीवन गाथा को समेटे हुए है जिसमें उनके वंश तथा वाराणसी जैसे धार्मिक स्थल पर पिता नागर सिंह (एक छोटे किसान तथा अध्यापक) तथा माता वागेश्वरी देवी की कोख़ से जन्म लेने तथा गाँव की लोक संस्कृति से बड़े शहरों तक का लम्बा सफ़र इत्यादि प्रसंग जो किसी भी व्यक्ति की जीवन शैली को प्रभावित करते हैं, चर्चा का विषय बने हैं।
सर्वप्रथम बात करें तो जीवनी के नामकरण पर ही प्रश्न उठता है कि नाम अनल पाखी ही क्यों? तो इसे यहाँ जीवनीकार ने स्वयं स्पष्ट किया है कि:- “एक जगह नामवर सिंह ने कबीर के बारे में ‘अनल पक्षी’ को याद करते हुए कहा है, ‘अनल पक्षी नापैद है तो कबीर भी। दूसरा कबीर नहीं हुआ। कबीर ही कबीर है।’ यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि दूसरा नामवर नहीं हुआ। नामवर ही नामवर है। उनका जीवन सपाट नहीं रहा, बल्कि छोटे गाँव से लेकर दिल्ली महा नगर तक की उनकी यात्रा बहुत सारे ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होकर गुजरी। ‘अनल पाखी’ उनकी इसी यात्रा का साक्ष्य है।’
मूलतः मनुष्य जीवन में अनेक विसंगतियों से जूझता है और यह संग्राम उम्र भर चलता रहता है। यही जीवन की विविध घटनाएँ तथा सुख-दुःख से जुड़े विविध प्रसंग लिखित में उसकी जीवनी का हिस्सा बनते हैं। नामवर सिंह के इसी जीवन वृत्तांत को यहाँ जीवनीकार ने दो भागों में आबंटित कर उनके आदर्शों, मूल्यों तथा जीवन शैली को उद्घाटित किया है। सम्पूर्ण जीवन गाथा को जीवन संघर्ष एवं साहित्यक संघर्ष के अंतर्गत बयां करते दोनों खण्डों को पुनः जीवन की घटनाओं के क्रमानुसार बाँटा गया है। नामवर सिंह की यात्रा का प्रथम सोपान उनकी जन्मस्थली जीयनपुर से शुरू होता है, जो लोक संस्कृति से जुड़ा हुआ है। शायद यहीं से ही उनके जीवन में सहजता का बीजारोपण हुआ होगा। जैसा कि घर का पर्यावरण व्यक्तित्व पर गहन छाप छोड़ता है वैसे ही नामवर पर भी उनके पिता का गूढ़ प्रभाव रहा है और बचपन में ही उनके हृदय में किताबों के लिए एक कोना बन गया था जो बढ़ता ही गया। यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है:-
‘नामवर के पिताजी प्रत्येक दिन ‘रामचरितमानस’ का पाठ किया करते, जिसे पास बैठकर नामवर नियमित रूप से सुना करते थे। उन्हें बचपन में ही ‘रामचरितमानस’ का यह पाठ सुनते-सुनते ही बहुत सारी चौपाइयाँ याद हो गई थीं। इसी से प्रभावित होकर उन्होंने मेले से ‘रामचरितमानस’ का ‘गुटका’ ख़रीदा और उसे पढ़ते रहते। उनके चाचाजी भी बहुत अच्छे गायक थे। जिससे उनके अंदर संगीत व गायन के संस्कार विकसित हुए।
नामवर अभी मात्र दस-ग्यारह साल के ही थे, किंतु किताबों के प्रति उनका लगाव किसी वरिष्ठ से भी बढ़कर था। वे किताबों के बीच खेलते रहते। उन्हें छूते-पढ़ते और न जाने क्या-क्या सोचते रहते। वे इस तरह किताबों के बीच खेलते-खेलते ही बड़े हो रहे थे।’ तो किताबों से दोस्ताना बाल्यकाल से ही हो गया था जिसने उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करने की सद्बुद्धि प्रदान की। संयुक्त परिवार में बड़े बेटे की घर में क्या भूमिका होती है, उन्होंने सीख ली थी और उसे निभाते हुए भी यहाँ दिखाया गया है। एक ओर जहाँ उन्होनें अपने पिता से शिक्षा के महत्त्व को जाना था वहीँ उनके जीवन में उनकी माता का अहम स्थान बना हुआ था जो खुद अनपढ़ होते हुए भी अपने बच्चों को पढ़ाने में रुचि इस कदर रखती थी कि अपने गहने तक इसी में होम कर दिए थे। लेखक ने नामवर सिंह के बाल्यकाल की झाँकी के साथ-साथ उनके ग्रामीण वातावरण तथा लोक संस्कृति को भी बाखूबी चित्रित किया है जो एक अन्य उपलब्धि है।
नामवर को नामवर बनाने में बहुत से लोगों का यहाँ ज़िक्र हुआ है जिनमें उनके अध्यापकों से लेकर पारिवारिक सदस्य किस तरह से जुड़े रहे हैं वह विचारणीय है। सन 1947 में नामवर की 12 कक्षा पास होने से पहले से ही वह साहित्य जगत में कूद पड़े थे। शुरूआती दिनों में उन्होंने काव्य लेखन का कार्य किया और बाद में गद्य की और अग्रसर हुए। उनकी काव्य रचनाओं को निराला से भी प्रोत्साहन मिलता रहा। जीवनीकार कुछ इस तरह लिखता है:- ‘निराला से पुरस्कृत होकर नामवर अपने कवि रूप को और साधने की ऊर्जा मिली। उन्हें अपनी लेखनी पर अधिक ध्यान देने का भी संबल मिला। वे अधिक जिम्मेदारी के साथ कविताएँ लिखने लगे। इन दिनों निराला काशी में ही ठहरे हुए थे। वे गायघाट पर गंगाधर शास्त्री के यहाँ रहते थे। वहाँ उनसे मिलने के लिए कुछ युवा लेखक जाया करते थे। नामवर सिंह भी कुछ लोगों के साथ वहाँ जाकर बैठ जाते और निराला लोगों को बाते सुनाते रहते। वे भी उनकी बातें मनोयोग से सुना करते। लेकिन वे कभी कोई प्रश्न नहीं करते थे।’
प्रत्येक व्यक्ति जिसमें सीखने की इच्छा शक्ति हो, जिज्ञासा हो, वह अपने साथियों तथा किसी प्रतिभावान व्यक्ति से मिली सीख को अपने जीवन की सेध में लगा लेता है जैसा कि नायक के जीवन से उदाहरण मिलता है। चूँकि नामवर अपने विद्यार्थी जीवन में भी राजनीति से जुड़ चुके थे तो यहाँ उनके राजनीतिक परिवेश का भी ज़िक्र हुआ है।
हालाँकि लेखक का चरित नायक के साथ कोई पारिवारिक संबंध नहीं है लेकिन फिर भी यहाँ नायक के जीवन से सम्बन्धी ऐसे तथ्यों को उजागर किया गया है कि उसके आकर्षण के बिंदु बन गए हैं। पठन के पश्चात पाठक को स्वयं अनुभव होता है कि उसका साक्षात्कार नायक से हो चुका है यही जीवनीकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उसका एक कारण यह भी है कि यहाँ साहित्य साधक की विचारधारा तथा जिन्दगी की कथा व्यथा एक रील की तरह आँखों के आगे घूम जाती है। अपने नाम को सिद्ध करने वाला यह व्यक्तित्व किस तरह से समय से संवाद करता हुआ आगे बढ़ता गया है उसका पूरा ताना-बाना यहाँ बेहद संजीदगी के साथ बुना गया है। एक समय पर उनकी आर्थिकी को लेखक कुछ यूँ दर्शाता है:-
‘नौकरी छूटने से पहले भी नामवर सिंह के हालात कुछ ज्यादा अच्छे नहीं थे। उन दिनों उनकी हालत यह थी कि उनके पास एक ही कुर्ता था, उसी को धोकर, सुखाकर, पहनकर वे विभाग आया करते थे। उन्हें तनख्वाह भी नहीं मिल रही थी। उनके पास फूटी कौड़ी तक न थी। घर से सहायता लेना उन्होंने पहले ही बंद कर दिया था। उन्होंने अपने खाने की व्यवस्था मेस में कर रखी थी। विभाग तक वे पैदल ही चलकर जाया करते थे। किंतु उनके उत्साह में कमी न थी।’ सच्चा साहित्यकार वही है जो कठिनाई में भी ऊर्जावान रहे, कुछ ऐसा ही चरित्र यहाँ नायक का भी प्रस्तुत है। यहाँ नामवर सिंह के जीवन के साथ-साथ भारतीय व्यवस्था का भी अनायास ही चित्र प्रस्तुत हो गया है।
लेखक ने सम्पूर्ण वृत्तांत को कुछ इस तरह से रखा है कड़ियाँ अपने आप आगे जुड़ती चली गयी हैं। भले ही पुस्तक को सात विभिन्न खण्डों में रखा गया है लेकिन जुड़ाव बना हुआ है। जहाँ जीवनारम्भ में उनके जन्म, परिवार, भाइओं तथा ग्रामीण परिवेश का दृश्य दिखाई देता है वहीँ देखी तेरी काशी में नामवर के जीवन संघर्ष का आगमन होता है जो आगामी शीर्षक गरबीली गरीबी वह के अंदर अपने शिखर पर पहुँचता भी दिखाई देता है। उनका संघर्ष बाह्य होने के साथ आंतरिक भी बना हुआ है। साहित्यक संघर्ष की बात करें तो साहित्य जगत में तो वह बालकाल से उतर चुके थे लेकिन सही में उनका संग्राम हिंदी भाषा के लिए निरंतर जारी रहा है जिसमें उनका अनेक पत्रिकाओं तथा प्रकाशन स्थलों के साथ जुड़ाव भी आ जाता है। हिंदी के अच्छे ज्ञाता होने पर भी उन्हें जीवन भर अनेक स्थलों पर जो विद्रोह का भाव झेलना पड़ा उसे यहाँ देखा जा सकता है। किताबों के प्रति उनका जो मोह बढ़ती उम्र के सस्थ और भी गूढ़ होकर उनकी दिनचर्या से उनकी आदत बन गया था। जीवनीकार ने बाखूबी चित्रण किया है: ‘इन दिनों घर में बिजली चले जाने के बाद वे भाई काशीनाथ सिंह के साथ किताबें पहचनाने का खेल खेलते। अंग्रेज़ी, हिन्दी, संस्कृत- चाहे जिस किताब का नाम लिया जाता, वे अँधेरे में ही उठकर जाते। किताब के कवरों को टटोलते, छूते और पहचानकर निकाल लाते। उन्हें अपनी रखी गई किताबों की इतनी जानकारी रहती कि अमुक रैक में अमुक क्रम पर यह किताब रखी हुई है। वे अँधरे में भी बताते कि वह किताब इस क्रम पर रखी है, बिजली आए तो देख लेना। जब बिजली आने पर काशीनाथ उस किताब को उसी क्रम में देखते तो हतप्रभ रह जाते। किताबों को उन्होंने अपनी जीवनचर्या का अहम हिस्सा बना लिया था।’ इस तरह से आजीवन उनका नाता पुस्तकों से ही बना रहा।
आलोच्य पुस्तक जहाँ मूल रूप से चरित नायक को उपस्थित करती है वहीँ उनके जीवन भर के कार्य भी उभरकर सामने आये हैं। अनेक विश्वविद्यालयों में सम्मान प्राप्त करने वाले प्रखर आलोचक ने जहाँ-जहाँ अपने कार्य कौशल की छाप छोड़ी है लेखक ने सभी सन्दर्भ यहाँ रखे हैं। उनका पत्रिकाओं तथा अनेक पुस्तकों के लिए कार्य करना उनके जीवन की ख़ुराक बना हुआ था। जीवनीकार ने यहाँ नामवर सिंह की नामवरी को तो उपस्थित किया ही है। साथ ही उनसे जुड़े व्यक्तियों के व्यक्तित्व को भी रेखांकित किया है। अंत में उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण छायाचित्रों को भी पाठकों से रू-ब-रू करा अपनी सजगता का परिचय दिया है। अन्य विचारणीय बात यह है कि ग्रन्थ के अंत में पाठकों की सुगमता के लिए नामवर सिंह के जीवन का घटना चक्र दिया गया है।
श्याम सुन्दर दास का मानना है कि ‘कि जो वस्तु सबसे अच्छी या उपयुक्त होती है वही संसार में बची रहती है और जो अनावश्यक या अनुपयुक्त होती हैं वह नष्ट हो जाती है। साहित्य क्षेत्र में भी इस सिद्धांत की सत्यता भली-भांति प्रमाणित हो जाती है। आज यदि कोई अच्छा ग्रंथ प्रकाशित होता है तो उसका बहुत आदर होता है और जब तक लोगों का उससे मनोरंजन होता रहता है तब तक वह पुस्तक बराबर चलती रहती है उसका अस्तित्व बराबर बना रहता है।’ यह आलोच्य पुस्तक कुछ इसी तरह से देखी जा सकती है। एक कारण तो यह कि इससे पहले नामवर सिंह की कोई जीवनी उपलब्ध नहीं है अर्थात लिखी नहीं गयी और दूसरा यह कि जब तक नामवर सिंह के साहित्य का पठन पाठन होता रहेगा इस जीवनी की उपयोगिता बनी रहेगी।
अनल पाखी (नामवर सिंह की जीवनी) : अंकित नरवाल। मू. 350 (पेपरबैक), आधार प्रकाशन, पंचकुला। आप पुस्तक अमेज़न से ऑनलाइन किताब मँगवा सकते हैं।

गगनदीप : स्नातकोत्तर (हिन्दी) और एम.फ़िल (हिन्दी)। पी-एचडी. उपाधि हेतु शोधरत ( पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़। संप्रति स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, श्री गुरुगोबिन्द सिंह खालसा कॉलेज माहिलपुर, होशियारपुर में अध्यापन। विविध राष्ट्रीय/ अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में पत्र वाचन एवं अनेक पुस्तकों में अध्याय का प्रकाशन। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में शोध पत्रों का प्रकाशन
हिन्दी तथा पंजाबी कविता तथा कहानी-लेखन। गगनदीप से इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है— gagandeepkaur2391@gmail.com