डॉ. सुलोचना दास
कवि केदारनाथ सिंह, इस नाम से हिंदी पट्टी का विरला ही कोई होगा जो परिचित न हो। किंतु परिचित होना और जानना एक बात नहीं है। एक कवि को जानने के लिए पहले उसके व्यक्तित्व को जानना, उससे रू-ब-रू होना आवश्यक है। चकिया, बलिया जिला के अन्तर्गत आने वाला एक छोटा-सा गांव है, जो कि गंगा और सरयू को जोड़ने वाली एक क्षेत्रीय नदी भांगड़ नाला के किनारे बसा हुआ है। इस छोटे-से गांव के एक सामान्य किसान परिवार डोमा सिंह के घर में 19 नवंबर 1934 को एक ओजस्वी शिशु का आविर्भाव होता है। माता-पिता बड़े प्रेम से अपने बालक का नाम केदारनाथ रखते हैं। प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत केदारनाथ स्कूली शिक्षा हेतु बनारस आ गए। यहां से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू होता है- साहित्यिक जीवन का। यानी चकिया उनका जन्म-स्थल है तो बनारस साहित्यिक जीवन का उद्गम स्थल और दिल्ली कर्म-स्थल।
चकिया, बनारस और दिल्ली के त्रिकोण से बने केदारनाथ सिंह से भेट—एक मुकम्मल भेंट के लिए ‘केदारनाथ सिंह का दूसरा घर’ से होकर गुजरना अनिवार्य है। ‘केदारनाथ सिंह का दूसरा घर’ सुनाम और सुपरिचित युवा आलोचक मृत्युजंय पांडेय की सद्यः प्रकाशित आलोचना पुस्तक है। हालांकि इससे पूर्व भी केदारनाथ सिंह पर बहुत से कार्य हुए हैं, किंतु उनके गद्य को प्रायः अनदेखा कर दिया गया। यह पुस्तक इस अर्थ में भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें पहली बार केदारनाथ सिंह के आलोचक व्यक्तित्व की गहराई से जांच-पड़ताल की गई है। दूसरे यह पुस्तक महज एक पुस्तक नहीं, बल्कि एक सेतु है सहृदय पाठक और केदारनाथ सिंह के बीच। यद्यपि मृत्युंजय पाण्डेय ने पहले भी हिंदी आलोचना जगत को कई महत्वपूर्ण कृतियां दी हैं। यथा ‘कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव’, ‘कहानी से संवाद’, ‘कहानी का अलक्षित प्रदेश’, ‘रेणु का भारत’, ‘कविता के सम्मुख’ तथा ‘साहित्य समय और आलोचना। ‘रेणु का भारत’ के लिए उन्हें देवीशंकर अवस्थी सम्मान (2018) से नवाजा जा चुका है। बहरहाल, हम बात कर रहे हैं ‘केदारनाथ सिंह का दूसरा घर’ की। यह शीर्षक जितना आकर्षक है, उतना ही रोचक भी। जैसे-जैसे हम पुस्तक में उतरते जाते हैं वैसे-वैसे केदारनाथ सिंह के भीतर भी धंसते चले जाते हैं।
दरअसल ‘केदारनाथ सिंह का दूसरा घर’ में प्रवेश करने के उपरांत केदारनाथ सिंह के बहुविध रूपों से हमारी मुलाकात होती है। तेरह अध्यायों के अन्तर्गत आलोचक मृत्युंजय पांडेय ने केदारनाथ सिंह के तेरह रूप हमारे सामने रखे हैं। ‘बाघ से भेंट’ अध्याय वस्तुतः संस्मरण है, जिसमें खुंखार और हिंसक बाघ से नहीं, बल्कि कविता के बाघ से- ‘खरगोश की तरह मुलायम जिन्दा ‘बाघ’ से, हंसते-बोलते, मुस्कुराते बाघ से, खाते-पीते ‘बाघ’ से हमारी भेंट होती है। इसमें केदारनाथ सिंह के कवि व्यक्तित्व की गहन सिनाख्त की गई है। ‘भारत माता ग्राम बासिनी’ की तरह ही कवि की आत्मा भी गांव में बसती है। लोक की सुगंध से कवि का मन महमहाता रहता है। “चकिया, दिल्ली और कलकत्ता तीनों उनके घर रहे। लगाव के मामले में चकिया उनके दिल के सबसे करीब रहा और सबसे अधिक दूर वे उसी से रहे। आजीवन वे उसे भुला नहीं पाए। जीवन के अंतिम समय तक उनकी यही कोशिश रही कि उनके गांव की धूल उनके बदन से झरने न पाए।‘’ यही कारण है कि केदार की काविताओं में लोक की गंध इस तरह रची-बसी है, जैसे धमनियों में दौड़ने वाला रक्त। कवि की जड़ें ग्रामीण जीवनानुभव में कहीं गहरी धंसी हुई हैं। तभी तो बढ़ई और टमाटर बेचने वाली बुढ़िया जैसे चरित्र उनकी कविता के केंद्र बिन्दु हैं। यानी आम आदमी उनके लिए कोई अमूर्त अवधारणा नहीं, बल्कि एक शाश्वत सत्य है। आलोचक ने अपने संस्मरण में यह भी स्पष्ट किया है कि कवि के लिए चकिया का स्थान सदैव प्रथम रहा है। “यद्यपि जीवन का अधिकांश समय उनका दिल्ली में ही बीता। दिल्ली ने ही उन्हें अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य दिया। कार्यक्षेत्र और कर्मक्षेत्र उनकी दिल्ली ही रही। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि ‘जितना सुंदर गांव यहां से (दिल्ली) दिखाई देता है, उतना शायद वहां बैठकर नहीं।”
मृत्युंजय पाण्डेय को केदारजी के व्यक्तित्व में एक शिशु के दर्शन होते हैं- जिज्ञासु शिशु के। स्वयं आलोचक के शब्दों में- “ केदारजी सबसे सहज बच्चों से संवाद करते हुए दिखे मुझे। वे बच्चों से ज्यादा खुलते थे और शायद जल्दी घुल भी जाते थे। उनके अंदर एक शिशु हमेशा विद्यमान रहा। जिज्ञासु शिशु। वे अपनी कविताओं की तरह इशारों में ज्यादा बातें करते थे। उनकी कविताओं में जगह-जगह इशारे भरे परे हैं। वे खुलकर नहीं बोलते। वे हमेशा दूसरों की बातों का जवाब देने से बचते रहे। वे सामने वाले की सुनते थे और अपनी कहते थे।”
बहरहाल ऐसे बहुत से प्रसंग इस अध्याय में बिखरे पड़े हैं, जिनके द्वारा हम-आप कविता के ‘बाघ’ को कहीं बेहत्तर ढ़ंग से देख-समझ सकते हैं। यह ‘बाघ’ प्रकृति के संसर्ग में आकर अधिक उन्मुक्त हो उठता है। “मानो ‘बाघ’ प्रकृति के साहचर्य में आकर अपने को मुक्त पा रहा हो। प्रकृति की वजह से ही उन्हें जे.एन.यू. भाता था। प्रकृति की गोद में जाकर उन्हें ऐसा लगता था, वह अपने गांव में हों। प्रकृति के साथ ताक-झांक करना उन्हें बहुत पसंद था। उनका मानना था- ‘मनुष्य के पास अपनी संवेदना को जिन्दा रखने के लिए प्रकृति से बड़ा आधार और कोई नहीं है।’ वे प्रकृति के साथ सहगमन करते थे।”
केदारनाथ सिंह की चेतना में मामूली आदमी और उनका जीवन गहराई से धंसा हुआ है। ये मामूली लोग-बाग और उनकी पीड़ाएं, उनकी चिंताएं, उनका स्वप्न, उनकी आकांक्षाएं, उनकी समस्याएं, उनका जुझारूपन सब उन्हें बेचैन करते रहते हैं। गांव और गांव के लोगों से संबंधित घटनाएं मामूली होते हुए भी कवि के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, जो उन्हें भीतर तक मथ देती हैं। जब कभी कवि अपनी बेचैनी को शब्दों का जामा पहनाकर उसे कविता के क्लेवर में पूरी तरह से ढ़ाल पाने में स्वंय को असमर्थ पाता है तब वह गद्य का सहारा लेता है। ‘कविता का गद्य : गद्य की कविता’ अध्याय कवि की इसी बेचैनी की छान-बीन है। बकौल आलोचक “गांव में घटने वाली छोटी-से-छोटी घटना की भी उन्हें खबर रहती थी। पर वह घटना उनके लिए मामूली नहीं होती थी। वह उन्हें भीतर तक मथ देती थी। ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ पुस्तक में इस मथ से जन्मे कई ऐसे छोटे-छोटे संस्मरण / प्रसंग हैं जो हमें (पाठक) मथ डालते हैं। संस्मरण से पहले केदार जी ने इन पर कविताएं लिखी हैं। लेकिन ये मामूली लोग कविता में अंट नहीं पाए। कविता उनके व्यक्तित्व को स्वीकार नही कर पाई और तब कवि को उनपर संस्मरण लिखना पड़ा। ‘जगरनाथ’, ‘भिखारी ठाकुर’, ‘देवेन्द्र् कुमार उर्फ बंगालीजी’, ‘इब्राहिम मियाँ’, ‘कैलाशपति निषाद’ और ‘नूर मियाँ’ आदि लोगों को मुक्ति नहीं मिल पाई थी। और शायद उनपर लिखी कविताओं को भी मुक्ति नहीं मिली थी।”
इस अध्याय के अन्तर्गत मूल रूप से केदारजी के संस्मरणों पर बात की गई है, परंतु गाहे-ब-गाहे वर्तमान जीवन, समय और समाज की समस्याओं से भी आलोचक मुठभेड़ करते हुए चलता है। जैसे- आज की शिक्षा-व्यवस्था, जो हमें जोड़ने से अधिक तोड़ने का कार्य करती है, अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा-व्यवस्था का प्रभाव, उदारीकरण से जन्मीं मुश्किलें, भाषा का प्रश्न, बाजारवाद का कुचक्र, पर्यावरण की चिंता, विस्थापन का दंश, राजनीतिक छल-छद्म आदि-आदि। आलोचक का मानना है कि इन प्रश्नों पर स्वच्छंद विचार की आवश्यकता है। साथ ही साथ इस अध्याय में केदारनाथ सिंह की दलित-चेतना को भी रेखांकित किया गया है। आलोचक का कहना है कि “यदि कोई चाहे तो इन रचनाओं के आधार पर कवि केदारनाथ सिंह की दलित-चेतना को भी जान-समझ सकता है। मूल्यांकन कर सकता है। हाँ, यह अलग बात है कि केदार जी न तो दलित-दलित चिल्लाते हैं और न ही दलित-कार्ड खेलते हैं। उन्होंने जितना मान-सम्मान दलितों को दिया, शायद ही किसी और ने दिया हो! इस शायद में दलित लेखक भी शामिल हैं।”
‘बीच में नहीं आई दिल्ली’ अध्याय में कवि की लोक-चेतना का मार्मिक स्पष्टीकरण किया गया है। लोक-चेतना के संवाहक केदारनाथ सिंह की न केवल कविताओं में, वरन् उनके गद्य में भी लोक की सदा उपस्थिति रही है। ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ पुस्तक के केंद्र में लोक की सत्ता है, जहां केदारजी आधुनिक जीवन के सामने ठेठ गँवई जीवन को रखते हैं। वे केंद्र में रहकर भी हाशिए को देखते हैं। उस पर सोचते हैं और अपनी कलम चलाते हैं। हाशिए को देखते वक्त केदारजी को अर्जुन की भांति केवल मछली की आँख नहीं दिखती, बल्कि अरुण कमल की ‘पुतली में संसार’ की भांति हाशिए का पूरा संसार, उसका यथार्थ, उसका परिवेश सब कुछ दिखता है। आलोचक का मानना है कि “इस हाशिए के लिए केदार जी के मन में भावुकता नहीं है। केंद्र और हाशिया दो बिंदु हैं, और इन बिंदुओं को मिलाने का कार्य केदार जी करते हैं। जो चीज कविता में नहीं समा पाई, उसके लिए केदार जी ने गद्य का सहारा लिया। इन सारे निबंधों में एक और चीज देखने को मिलती है और वह है परंपरा-संस्कृति और आधुनिकता का द्वंद्व। मन में एक प्रश्न उठ रहा है, क्या केदार जी के गद्य को लोक के लोप की कहानी माना जा सकता है? मुझे लगता है- हाँ! आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता, वैश्विकरण या उदारीकरण के आगमन के बाद जिन-जिन चीजों के अस्तित्व पर उन्हें खतरा दिखा, उस पर उन्होंने लिखा। विस्मरण के इस दौर में केदार जी हमें कुछ चीजों का स्मरण करा रहे हैं। वे इस काम को किसी और के भरोसे न छोड़कर खुद करते हैं। वे चाहते हैं कि इसमें से जितनी चीजें बच सकें, आने वाले समय के लिए, पीढ़ी के लिए हमें बचा कर रखना चाहिए।”
तुन्हें भी याद हैं कुछ ये कलाम !’ अध्याय में त्रिलोचन, नामवर सिंह, अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा और सोमदत्त जैसे सुप्रतिष्ठित व्यक्तियों पर केदारनाथ सिंह द्वारा लिखे गये संस्मरणों की गहन पड़ताल की गई है। बकौल आलोचक “त्रिलोचन, नामवर सिंह, अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा और सोमदत्त इनकी स्मृति की अलगनी पर टँगे रह गए हैं। केदार जी ने साहित्य जगत के बहुत कम लोगों पर संस्मरण लिखा है। पर यह ‘बहुत कम’ ‘बहुत भारी’ है। ठीक मधुमक्खी के छत्ते की तरह। जिस तरह मधुमक्खी के छत्ते को देखकर उसके भीतर के रस का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, उसी तरह बाहर से केदार जी के गद्य के बारे में कुछ भी अनुमान लगाना ठीक नहीं होगा। केदार जी के ये संस्मरण मधुमक्खी के छत्ते की रस की तरह सराबोर हैं। इस रस को चखते ही मन एकदम तरोताजा हो जाता है।”
त्रिलोचन तो कवि केदार के काव्य-गुरू ही हैं। कवि के लिए गुरू सशरीर अनुपस्थित होकर भी सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। स्वंय कवि की स्वीकारोक्ति का अंश द्रष्टव्य है “त्रिलोचन जी से मैंने सीखा है और जो सच है उसे कहने में कोई चीज आड़े नहीं आनी चाहिए। अपने को गलत समझ लिए जाने का खतरा भी नहीं। तो मैंने त्रिलोचन जी को सदा इसी रूप में याद किया है कि मैंने बहुत कुछ सीखा है उनसे। खास तौर पर जब मेरे भीतर काव्य की चेतना अभी जगी नहीं थी। मेरा सौभग्य था कि उनसे संपर्क हो गया था। भाषा की चेतना, यहां तक कि निराला जी की ओर उन्मुख करने का काम त्रिलोचन जी ने ही किया था। कविता को अपने उस अचेत दिनों में मैं समझ न पाता, अगर त्रिलोचन जी न मिले होते। उस ऋण को अस्वीकार करके मैं बाकी दुनिया को धोखे में रख सकता हूं, अपने को कैसे रखूंगा।”
नामवर सिंह केदारनाथ सिंह के मित्र और गुरू दोनों हैं। नामवर सिंह एक ऐसे आलोचक हैं जो सदैव विवादों से घिरे रहें। ऐसे व्यक्ति पर कलम चलाना सचमुच बड़ा कार्य है। इस कार्य को केदारनाथ सिंह बड़ी कुशलता से करते हैं। स्वयं केदारजी इस संदर्भ में लिखते हैं “हिंदी में शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि एक आलोचक पूरे रचनात्मक परिदृश्य का केंद्रीय व्यक्तित्व बन गया है। यह समकालीन रचनाशीलता पर स्वयं में एक टिप्पणी है, और बेशक एक सख्त टिप्पणी।” इसी तरह केदारजी अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा और सोमदत्त के रचनाकर्म का भी बखूबी मूल्यांकन करते हैं। सच कहा जाय तो इस अध्याय को पढ़ते हुए हम न केवल केदारजी के संस्मरणों से गुजरते हैं, बल्कि उन सबके व्यक्तित्व और रचनाकर्म से भी परिचित होते चलते हैं। और सबसे बड़ी बात यह कि केदारजी की आलोचना दृष्टि और उसकी पारदर्शिता का भी परिचय मिल जाता है।
इस पुस्तक में आलोचक मृत्युंजय पांडेय ने केदारनाथ सिंह के आलोचना-कर्म के परतों को खोलकर रख दिया है, ताकि पाठक वर्ग केदारजी के भीतर छिपे आलोचक से भी मिल सकें। मृत्युंजय के अनुसार “केदारनाथ सिंह एक बड़े कवि के साथ-साथ एक अच्छे काव्य-आलोचक भी है। उनके लिए कविता से लगाव ‘जीवन और यथार्थ से लगाव’ है।… काव्य-आलोचना करते समय केदार जी नयी भाषा, नयी प्रवृत्ति और नए अंदाज पर विशेष बल देते हैं। कविता को देखने की जो एक परंपरा और संस्कार आलोचकों द्वारा विकसित की गई है, उससे इतर हटकर वे कविता को देखते-परखते हैं।”
इतना ही नहीं, मृत्यंजय पांडेय ने केदार जी को उत्कृष्ट आलोचक और दृष्टि संपन्न इतिहासकार तक कहने का साहस दिखाया है। आलोचक ने दो टुक शब्दों में कह दिया है कि केदार जी जितने बड़े कवि हैं, उतने ही बड़े और मर्मभेदी आलोचक भी हैं। एक कवि हृदय जब आलोचना की पगडंडियों पर चलता है तब उससे उपजी आलोचना केवल बुद्धि का विलास नहीं होती, वरन् उसमें हृदय का भी योग रहता है। मृत्युंजय लिखते हैं “केदारनाथ सिंह काव्य-आलोचना करते समय अपने समय के कवियों से टकराते हैं। उनके शब्दों से जूझते हैं। उससे लड़ते हैं और उससे अपने लिए भी बहुत कुछ अर्जित करते हैं। वे जिस तरीके से कविता की दुनिया में प्रवेश करते हैं, उससे टकराते हैं, वह काबिले तारीफ है। वे आलोचना के मानदंडों को अस्वीकार करते हुए, उसकी सीमाओं को तोड़ते हुए, एक सार्थक बहस के लिए आमंत्रित करते हैं। केदार जी ने जिन कवियों को अपनी टिप्पणी के लिए चुना है, उन पर उन्होंने एक नई दृष्टि से लिखा है। वे सीधे कवि की अनुभूति से जुड़ते हैं। कई जगह तो नामवर सिंह भी उन्हें कोट करते हैं। केदार जी की काव्य-आलोचना में सभ्यता-समीक्षा के भी निशान मौजूद हैं। यदि यह कहा जाए कि कविता के मूल्यांकन के लिए केदारनाथ सिंह अपने प्रतिमान बनाते हैं तो कुछ अतिशयोक्ति न होगी। वे स्थिर और जड़ मान्यताओं को एक सिरे से खारिज करते हैं। मुझे लगता है कि केदारनाथ सिंह के ये प्रतिमान हिंदी काव्य-आलोचना के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे। इसे आधार बनाकर इन कवियों को फिर से देखा-परखा जाना चाहिए।”
“साहित्य और भाषा में आधुनिकता की खोज करते हुए, सबसे पहला प्रश्न यह उठता है कि क्या सचमुच हम आधुनिक हो गए हैं ? हमने तमाम संकीर्णताओं, जड़ताओं से मुक्ति पा ली है? क्या हम चीजों को वैज्ञानिक दृष्टि से देख रहे हैं? क्या सचमुच हम बुद्धि की कसौटी पर चीजों को कस रहे हैं? क्या हम वही देख रहे हैं जो हमें देखना चाहिए या हम वह देख रहे हैं जो हमें दिखाया जा रहा है? क्या सचमुच हम विकास की मंजिलें पार कर चुके हैं? इन तमाम प्रश्नों पर विचार ‘केदारनाथ सिंह की आधुनिकता और भारतीयता’ अध्याय के अंतर्गत आलोचक ने किया है। केदारनाथ सिंह आधुनिक हैं, किंतु उन्होंने पश्चिमी आधुनिकता के मानदंडों को कतई स्वीकार नहीं किया। उनकी आधुनिकता समय और संघर्ष से जन्मी आधुनिकता है। इसी तरह उनकी दृष्टि में भारतीयता एक गतिशील प्रक्रिया है, कोई बनी बनायी स्थिर चीज नहीं। केदार जी की आधुनिकता और भारतीयता को स्पष्ट करने के क्रम में आलोचक ने दक्षिण भारत के उन तमाम कवियों के रचनाकर्म को भी प्रस्तुत किया है, जिन पर केदारजी ने टिप्पणी की है। ऐसे में कन्नड़ की अक्का महादेवी, अल्लामा प्रभु और संत वसवन्ना, मलयालम के कुमार आशान, तेलगु के गुर्रम जाशुआ और अजन्ता जैसे भारतीय कवियों से परिचित होने का सुअवसर भी पाठकों को मिल जाता है। ये सभी कवि दलितों के मसिहा हैं। इन्होंने भी अंधविश्वास और कु-परंपराओं पर ठीक उसी तरह से कुठाराघात किया है, जैसे हिंदी में कबीर, दादू, रैदास, मीराबाई आदि करते हैं। इन सभी की दृष्टि में मनुष्य सर्वोपरि है, न कि उसकी जाति, उसका धर्म, उसका गोत्र आदि। इस अर्थ में ये सभी कवि आधुनिक हैं- ठेठ भारतीयता के साथ। समकालीन होना आधुनिकता की कोई शर्त नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि जो समकालीन होगा वही आधुनिक भी होगा। दरअसल आधुनिकता एक विवेक संपन्न दृष्टि है, जो किसी भी काल और समय में हो सकती है।
केदारनाथ सिंह के भीतर के आलोचक की पारदर्शी दृष्टि से भारतीय क्या पाश्चात्य रचनाकार भी ओझल नहीं होने पाए हैं। वैश्विक कवि और उनकी कविता का जैसा सुंदर ग्राफ केदारजी के यहां देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। विद्यार्थी जीवन से ही उन्हें जॉन मिल्टन की कविताएं बेहद प्रभावित करने लगी थीं। इसके बाद वे पाब्लो नेरूदा, पॉल एलुआर, बोर्खेज, बॉद्लेयर, डिलन टॉमस, एलियट, लार्किन, टेड ह्यूज, सीमस हीनी, ब्रेख्त, एजरा पाउण्ड, रेनर मारिया, रिल्के, रेने शा, पुश्किन, यव्गेनी एव्तुशेंको, ब्लादीमिर, मायकोव्स्की, तोगे संकिची प्रभृति कवियों से भी जुड़ते चले गए। केदारजी एक ओर इन सभी पाश्चात्य कवियों पर स्वतंत्र रूप से चिन्तन-मनन करते हैं तो दूसरी ओर उनसे बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी चलते हैं।
‘आलोचना के दरवाजे पर दस्तक’ अध्याय केदारनाथ सिंह के लघु-शोध-प्रबंध ‘कल्पना और छायावाद’ (1957) पर केंद्रित है। इस शोध प्रबंध में केदारजी कल्पना का अत्यंत उन्नत और गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। साथ ही, कल्पना और छायावाद के अंतर्संबंधों पर भी अपनी पैनी दृष्टि डालने से नहीं चुकते। केदारजी की स्पष्ट मान्यता है कि “कल्पना जहां वस्तुजगत का आश्रय लेकर उड़ाने भरती है वहां छायावाद और ‘शुद्ध अंतर्दृष्टि’ के द्वारा निर्मित भावलोक में संचार करती है वहां रहस्यवाद।” दूसरी ओर आलोचक ने केदारनाथ सिंह के पी.एच.डी. के शोध-प्रबंध ‘आधुनिक हिंदी कविता में बिंब-विधान’ को भी गहन अंतर्दृष्टि के साथ विश्लेषित किया है। यहां बिंब की अर्थवत्ता, उसकी प्रकृति, उसका स्वरूप, पाश्चात्य कवियों के यहां बिंब का स्थान, हिंदी कविता में बिंब इत्यादि विषयों की गहन चर्चा की गई है। सच कहा जाए तो आलोचक ने इन अध्यायों में केदारजी के शोध-प्रबंधों की बड़ी उन्नत व्याख्या की है। साथ ही, पाठकों को उसे पढ़ने के लिए प्रेरित भी किया है।
एक व्यक्ति कवि या आलोचक या कहानीकार होने से पहले एक मनुष्य होता है। एक सामाजिक प्राणी होता है। अतएव उसके कवि, आलोचक आदि रूपों की पड़ताल करने से पहले उसके उस मनुष्य रूप को जानना आवश्यक है। ‘मार्क्सवाद, आध्यात्मिकता और दिल्ली’ अध्याय के अन्तर्गत आलोचक ने केदारनाथ सिंह के भीतर के मानुष को- सरल, सहज, गँवई मानुष को पहचानने का प्रयास किया है। इसके लिए मृत्युंजय केदारनाथ सिंह द्वारा कैलाशपति निषाद को लिखे गए पत्रों का सहारा लेते हैं। “कैलाशपति निषाद पडरैना और दिल्ली के बीच एक मजबूत धागा थे। एक पुल थे। जिसके सहारे केदार जी आजीवन पडरौना से जुड़े रहे। वहां के लोगों से मिलते रहे। वहां के परिवेश, वहां की समस्या से दो-चार होते रहे। सन् 2004 में निषाद जी की मृत्यु के बाद पडरौना और दिल्ली के बीच का वह धागा, वह पुल टूट गया। पुल के टूटने का दर्द क्या होता है यह तो कोई सहृदय व्यक्ति ही जान सकता है। वही उस धागे के महत्त्व को समझ सकता है। केदार जी को जोड़ने वाली हर एक चीज पसंद थी। पुल, नाव, धागा और चिट्ठी जोड़ने का ही काम करती हैं। केदारनाथ सिंह ने कैलाशपति निषाद को हर जगह ‘प्रिय निषाद जी’ या ‘निषाद जी’ संबोधन से ही संबोधित किया है। यह छोटी चीज बड़े मन का संकेत दे रही है। आजकल के लेखकों में यह बड़प्पन देखने को बहुत कम ही मिलता है। यानी, एक अच्छे लेखक की रचना हमारे इतिहास-बोध को जगाने के साथ-साथ बड़प्पन भी सिखाती है।” आलोचक को इस बात का दुःख भी है कि उसके समक्ष केवल केदारनाथ सिंह द्वारा लिखे गए पत्र ही हैं। कैलाशपति निषाद द्वारा लिखे पत्रों से वह अनभिज्ञ है। बावजूद इसके, इस अध्याय को पढ़ते हुए पाठक-मन उन पत्रों को जानने के लिए भी लालायित हो उठता है जो निषाद जी ने लिखे थे। ऐसे में पाठक मृत्युंजय से यह उम्मीद लगा बैठते हैं कि वे उन्हें शीघ्र ही उन पत्रों से भी मुखातिब करेंगे।
बहरहाल, हम आगे चलें। केदारनाथ सिंह भी नागार्जुन की भंति ही आम आदमी के प्रति प्रतिबद्ध हैं। केदारजी के अनुसार “एक भारतीय लेखक की प्रतिबद्धता भारतीय जन की मुक्ति के लिए होनेवाले संघर्षों में ही अपना आकार खोज सकती है। यह तीसरी दुनिया के लेखक की एक ऐसी नियति है, जिससे आँख बचाकर वह नहीं निकल सकता।” इस अध्याय में केदारजी की राजनीतिक चेतना को भी आलोचक ने स्पष्ट कर दिया है- “हिंसा के विरूद्ध व्यापक जनमत तैयार करने की सामर्थ्य आज न तो किसी राष्ट्रीय नेता में है और न ही राष्ट्रीय दल में। आजादी से पहले हिंसा और राजनीति का वैसा गहरा रिश्ता नहीं था। आज वह रिश्ता लगभग संस्थाबद्ध रूप ले चुका है। इसका सबसे दुष्परिणाम यह है कि सामान्य जन इस गिरोह को अपनी आँखों के सामने और उसे एक जानी-पहचानी वास्तविकता मानकर स्वीकार कर लेता है। यह एक चिंताजनक स्थिति है।”
केदारनाथ सिंह की प्रतिबद्धता के संदर्भ में आलोचक ने उनकी भाषा के प्रति प्रतिबद्धता को भी अनदेखा नहीं किया है। इस प्रसंग में केदारजी की एक कविता का अंश द्रष्टव्य है- ‘’हिंदी मेरा देश है/ भोजपुरी मेरा घर/ घर से निकलता हूं/ तो चला जाता हूं देश में/ देश से छुट्टी मिलती है/ तो लौट आता हूं घर में/ इस आवाजाही में/ कई बार घर में चला आता है देश/ देश में कई बार/ छूट जाता है घर/ मैं दोनों को प्यार करता हूं/ और देखिए न मेरी मुश्किल/ पिछले साठ बरसों से/ दोनों को दोनों में/ खोज रहा हूं। दरअसल केदारनाथ सिंह एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। उनकी प्रतिबद्धता उस मनुष्य के प्रति है जो ‘जनतंत्र’के ‘तंत्र’का शिकार है। साथ ही, वे अपनी भाषा- अपनी हिंदी के प्रति भी प्रतिबद्ध हैं। भले ही वे भोजपुरी से प्रेम करते हों, परंतु जब भाषा की बात आती है तब वे हिंदी को ही चुनते हैं।
‘प्रेमचंद और केदारनाथ सिंह’सुनकर बड़ा अटपटा-सा लगता है।एक ओर केदारनाथ सिंह का जन्म ही 1934 में हो रहा है और दूसरी ओर प्रेमचंद 1936 में सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे में भला इन दोनों में क्या समानता हो सकती है? यहां ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि एक रचनाकार की मृत्यु कभी नहीं होती है।वह सदा अपनी रचनाओं में जीता रहता है। प्रेमचंद और केदारनाथ सिंह दोनों ही कालजयी रचनाकार हैं।दोनों के ही मर्म लगभग एक हैं।दोनों की रचनाओं में ग्रामीण जीवनानुभव बिखरे पड़े हैं।और सबसे बड़ी चीज कि दोनों ने ही उस आम जन की पीड़ा को स्वर दिया है, जिसकी जिजीविषा को न तो पूस की रात की हांड़ कंपा देने वाली ठंड परास्त कर पायी और न हिमालय गला पाया।प्रेमचंद और केदारनाथ सिंह के मध्य के ऐसे बहुत से बिंदुओं को आलोचक ने इस अध्याय में बखूबी उजागर किया है।
सच कहा जाय तो यह पुस्तक एक ओर केदारनाथ सिंह के असाधारण गद्य के असाधारण सौन्दर्य को उजागर करता है तो दूसरी ओर ‘हिंदी कविता के रिल्के’को जानने, उससे मिलने और उसकी कविताओं के घर में प्रवेश करने की चाभी भी देता है।और सच मानिए, एक बार यदि उस घर में प्रवेश कर लिया जाय तो फिर वहां से लौट आने का मन ही नहीं करता।
केदारनाथ सिंह का दूसरा घर (आलोचना) : मृत्युंजय पाण्डेय। मूल्य : 495 रूपये मात्र। प्रकाशक : आनंद प्रकाशन, कोलकाता।
डॉ. सुलोचना दास परिमल मित्र स्मृति महविद्यलय, दार्जिलिंग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।