थेथर स्त्री की कथा ‘हादसे’

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विभा ठाकुर

हिन्दी साहित्य स्त्री आत्मकथा की दृष्टि से विशेष संपन्न नही है फिर भी जितनी संख्या मे आज उनकी उपस्थिति दर्ज की गई है वह सराहनीय है। कारण आत्मकथा में सामाजिक जीवन के साथ व्यक्तिगत जीवन के अनकहे निजी प्रसंगों को विशेष कर स्त्रियों के लिए लिखना जोखिम भरा होता है। क्योंकि मर्दवादी समाज ने स्त्रियों को मनुष्य का दर्जा कभी दिया ही नही उसे सिर्फ देवी होने की कसौटी पर परखता रहा है ऐसे में स्त्री का अपना सच कहना पुरुष प्रधान समाज में दुस्साहस करने के बराबर है लेकिन पारंपरिक भारतीय समाज की इस मानसिकता से वाकिफ रमणिका जी ने अपनी आत्मकथा ‘हादसे’ के माध्यम से अपने जीवन के उन सभी पहलुओं को बडे ही बोल्ड और बेवाकी से कहने की ईमानदार कोशिश की है जिन्हे कहने में सामान्य भारतीय स्त्रियां सदैव संकोच करती रही हैं।

समाज के पारंपरिक सांचों में ढाल दी गई स्त्रियों को जब यथार्थ का सामना करना पडता है तब जन्म से बिठाई गई इन ग्रंथियों के कारण वह स्वयं को मुक्त नही कर पाती। और जीवन में घटे अनअपेक्षित घटनाओं को लेकर अपराधबोध से ग्रसित रहती है। रमणिका जी लिखती हैं—“मैं भी इन दोनो ग्रंथियों से मुक्त ना थी… मैं बहकी बहुत बहकी पर यह सब मेरे व्यक्तिगत मामलों तक ही सीमित रहा। सामूहिक मामलों में मेरी जिद और मेरे निर्णय से मेरी ये ग्रंथियां हारती रही “ (पृ.52) कहना होगा रमणिका जी ने अपनी आत्मकथा ‘हादसे’ मे स्त्री देह की राजनीति से देश की राजनीति तक के कई प्रश्नों को बेवाकी से उठाने की सफल कोशिश की है। साथ ही अपने समय के राजनीतिक परिवेश के साथ साथ समग्र भारतीय मर्दवादी समाज में स्त्री के वजूद को दबाये रखने के पुरुषों के वह सारे उपक्रमों को भी उजागर किया है जिसे पुरुष सभ्य और आधुनिक होने के मुखौटे के पीछे छिपाये रखने का असफल प्रयास करता रहा है।

स्त्री के देह पर सदैव पुरुषों के अधिकार ने स्त्री को अपनी देह के प्रति उपेक्षित रखा है ऐसे में रमणिका जी के मुक्त यौन संबंधो की स्वीकृति भारतीय पितृसत्तात्मक समाज को अवाक करने के लिए विवश करते है। इन प्रसंगों के जिक्र ने उन्हें बोल्ड लेखिकाओं की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। रमणिका जी उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अपने सामाजिक परिवेश के साथ साथ अपने देह को लेकर भी सजग है। उदाहरण के लिए “राजनीति में आने के बाद यह मेरी पहली महत्वपूर्ण यात्रा थी जो इतिहास के कई महत्वपूर्ण नायकों से जुड़ने के साथ साथ प्रेम के कई महानतम घनिष्ठतम और गम्भीर अति संवेदनशील प्रसंगों को भी जोड़ती है।” (पृ.29) यहीं यह बात भी स्प्ष्ट कर दी जाय कि सस्ती लोकप्रियता को पाने के लिए उन्होंने अपने प्रेम प्रसंगों का कहीं भी कुछ भी ऐसा जिक्र नही किया जो रसिकों को चटखारे लेने जैसा मजा दे पाए। बड़े ही संयत सहज भाषा में अपने जीवन के विगत अनुभवों को आत्मसाक्षात्कार के रूप में प्रस्तुत करना इनकी आत्मकथा की विशेषता कही जा सकती है। आत्मविश्वास के बल पर स्वयंसिद्धा होने की उनकी जिद्द ने उनके चरित्र की आत्मनिर्भरता को खाद पानी से सींच कर सदैव लहलहाते वृक्ष की तरह तन कर खडे रहने की प्रेरणा दी। खासकर पुरुषप्रधान राजनीति में बेल लता बनने के वजाय उन्हें अपनी जड़ें जमाने की जमीन खुद तलाशने की शक्ति दी। कॉग्रेस पार्टी में रहते हुए राजनीति में स्त्री शोषण के सच को बडे ही निर्भिकता से कहते हुए वह लिखती हैं कि “वहां लोग स्त्री कार्यकर्ता को कलेवा मानते थे जिसे भूख लगने पर खाने का एक स्वअर्जित जन्मसिद्ध अधिकार उन्होंने प्राप्त कर रखा था। उनकी नजर में बिना किसी पुरुष नेता-वृक्ष का सहारा लिए महिला नेता–पनप और बढ़ नही सकती थी और मैं लता बनने को तैयार नही थी। (पृ.27) परजीवी बनने से उनका इनकार पुरुष प्रधान राजनीति को गवारा नही था। वैसे भी भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर सक्रिय और आत्मनिर्भर होती स्त्री की स्वतंत्र चेतना पर अंकुश लगाने के अनेक हथकंडे पुरुष अपनाता आया है। रमणिका जी को भी अपनी पहचान पाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पडा लेकिन थेथर बनकर संकल्प शक्ति और इच्छाशक्ति को बनाए रखने का मूल मंत्र वह कभी नही भुली। रमणिका जी लिखती है “मैने हमेशा अपने को समर्थ बनाने का लक्ष्य रखा ताकि अपनी शर्तों पर चल सकूं… इसलिए मेरा पहला हमला प्रचलित नियमों, प्रथाओं, प्रतिबंधों यहां तक की यौन संबंधों पर होने लगा। मुझे रुढ़ियां तोडने में बड़ा मजा आता था और प्रतिक्रिया में रुढ़िवादियों का तिलमिलाना या झल्लाना अच्छा लगता था।” (पृ.17) सामाजिक राजनीतिक बदलाव की कामी रमणिका जी ने सदैव परंपराओं और मिथको में फसी जिन्दगी को आधुनिकता और यथार्थ के वास्तविक धरातल पर लाने की कोशिश करती रही और कुछ हद तक सफल भी हुई। अपना जीवन अपने तरीके से जीने की जिद ने उन्हें भीड़ से अलग दिखाई देने वाली महिला की पहचान दिलाई। यही वजह है कि वह कहती है कि जिद अगर मुझ में न होती तो संभवत: मैं कही गृहणि बनी रोटियां पका पका कर आठ दस बच्चों को खिलाने में ही संतुष्ट रही होती… जिस मुकाम पर मैं आज हूं वहां नही होती… छुई मुई बनने से समाज में काम चलने वाला नही है। (पृ.17) विद्रोहिणी स्वभाव की रमणिका जी ने स्त्री की आत्मनिर्भरता हो या यौनमुक्तता दोनों विषयों पर बेवाक राय रखने के साथ पुरुष के दोहरे पक्षपाती व्यवहार पर कुठाराघात किया हैं। आगे वह लिखती है “मैने कभी अपने यौन शोषण का आरोप किसी पर नही लगाया चूंकि मैं यातो उसमें भागीदार रही या विरोध में डटी रही।… एक औरत को आगे बढ़ने के लिए थेथर होना भी जरुरी है… उनकी नीयत को पहचानना सब सुनकर समझकर अपने फैसलों पर अडिग रहना ही अगर थेथरपन है तो वह राजनीति में स्त्रियों के लिए लाजिमी है।” (पृ.54) सती सावित्री होने के खोखले दावों से अलग एकदम व्यावहारिक सोच की धनी रमणिका जी के चरित्र की यही खासियतहै जो उन्हे विशेष होने का दर्जा दिलाती है। स्त्री की शक्ति में विश्वास रखते हुए वह लिखती हैं, “मैं औरत के संदर्भ में पतित शब्द की परिभाषा से सहमत नही हूं। यह शब्द औरत के चरित्र से जोड़ा जाता रहा है और चरित्र का अर्थ औरत के यौन संबंधों को लेकर ही समझा जाता है। औरत के संदर्भ में चरित्र के अन्य गुण या लक्षण जैसे नैतिकता, शालीनता, ईमानदारी परस्पर सदभाव या संवेदनशीलता तथा बहादुरी और निडरता आदि को नजरअंदाज कर दिया जाता है।” (पृ.16) पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने के क्रम में उन्होंने कही भी सहानुभुति की पेशकश नही की कारण सहानुभुति स्त्री की क्षमताओं को कम आंकने की पुरुष प्रवृति है। इसलिए कच्छ यात्रा में पुरुष समूह के साथ अकेले जाने की बात हो या कोयला मजदूरों के अधिकारों के लिए आंदोलन करना हो, प्रत्येक गतिविधि में बजाय पुरुषों के पीछे चलने के उन्होंने खुद हर क्षेत्र में आगे बढ़कर अगुवाई करने का बीड़ा उठाया।

किसी के भी व्यक्तित्व की बुनियाद बाल्यावस्था से ही निर्मित होनी शुरू हो जाती है। बचपन से ही खुदसर या आपहुदरी स्वभाव ने रमणिका जी के चरित्र को निर्भिकता प्रदान की। परिवार में पर्दा प्रथा का विरोध हो या वैश्या की लड़की से मित्रता या फिर छुआछुत के खिलाफ होना आदि ऐसी कई घटनाएं रमणिका जी के चरित्र की निर्भिकता को प्रगट करते है। अपने शर्तों पर जीने की आजादी उनके लिए ज्यादा महत्व रखती थी। इसलिए वे लिखती हैं, “मेरे सामने प्रथम था अपने विचारों अपनी धारणाओं को सार्थक सिद्ध करने का और लोक लाज के रुढ़िगत विचारों के विरुद्ध खड़ा होने का। मैंने अपने मानदंड खुद गढ़े।” (पृ.21) भारतीय स्त्री अपने जीवन के निर्णय खुद लेने के लिए स्वतंत्र कहां होती है? खासकर विवाह जैसे निर्णय के लिए। क्योंकि ऐसे निर्णय उन्हें सीधे सीधे परिवार और समाज के विरोध में जाकर लेना पड़ता है और ऐसे जोखिम उठाने का साहस कम ही स्त्रियों में देखा जाता है। रमणिका जी ने यह जोखिम उठा कर सिद्ध करने की कोशिश की कि स्त्री को निर्जिव वस्तु न मान कर उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया जाए। अंतर्जातीय विवाह के विरोध में जब उनके पिता ने यह कहा “यह फैसला तो बदलना ही होगा नहीं तो तुम दोनों में से किसी एक को जहर खाना होगा तुम्हारी मां को या तुम्हें रमणिका जी ने तुरंत जबाब दिया मेरी मां और आप जिन्दगी का सुख देख चुके हैं भोग चुके हैं । मुझे अभी जिन्दगी देखना बांकी है इसलिए जहर मैं नही खाऊंगी, बीबीजी (मां) खाएं।” (पृ.24) उनकी ऐसी बातें सभ्य शालीन कहे जाने वाले समाज को अप्रीतिकर लग सकती है लेकिन अपनी शर्तों पर जीने के लिए ऐसे दुस्साहस करने पड़ते हैं। आगे वह लिखतीं हैं कि, “उन दिनों परंपराओं को तोड़ना रुढ़ियों के विपरीत चलना ही मेरा लक्ष्य सा बन गया था। उसे पूरा करने के लिए विद्रोह जरुरी था और विद्रोह में अपनों के विरुद्ध भी हथियार उठाना पड़ सकता है। जिसके लिए मैंने स्वयं को तैयार कर रखा था। (पृ.24) स्पष्ट है कि रमणिका जी का विरोध सिर्फ विरोध के लिए नही अपितु समाज में स्त्री के अधिकारों की आवाज को बुलंद करना था। उस समय इस तरह का विरोध अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था। क्योंकि स्त्री के अधिकारों की मांग सर्वप्रथम परिवार से ही शुरु होती है।

स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी देन यही है कि इस विमर्श के बाद स्त्रियों ने अपनी शक्तियों को पहचान कर संगठित होकर अपने भोगे देखे सच को कहने के साथ साथ लिखने का साहस भी कर दिखाया और अपने भोगे सच को लिपिबद्ध कर स्त्री लेखन के नए आयामों को प्रस्तुत किया। खासकर आत्मकथाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य में पुरुषों के एकालाप को तोडते हुए दोहरे संवाद की स्थिति पैदा की। एक बात स्पष्ट है कि इनकी स्वकथाओं में स्त्री जीवन के खट्टे मीठे तीखे और मधुर प्रसंगों का जीवंत चित्र है जो समाजेतिहास के पन्नों में कुछ नए पन्नों को जोड कर आधे इतिहास को पूर्ण इतिहास बनाने में निसंदेह कारगर सिद्ध होगा। वैसे भी आत्मकथायें महज स्वीकारोक्ति नही होती अपितु वह अपने समय के समकालीन परिघटनाओं और परिस्थितियों (सामाजिक, पारिवारिक और राजनीतिक) का दस्तावेज भी होती है। रमणिका जी की आत्मकथा को संस्मरणात्मक आत्मकथा कहा जा सकता है। जिसमें उन्होने व्यक्तिगत जीवन से ज्यादा बतौर सामाजिक कार्यकर्ता के राजनीतिक संघर्ष के साथ साथ आदिवासी मजदूरों के जीवन संघर्ष को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। जिसके तहत उन्होने कोयला खादानों में चल रहे माफिया ठकेदारों और राजनीतिज्ञों की सांठगांठ के द्वारा यह बताने की कोशिश की है कि इस तरह के जटिल परिस्थितियों में महिला कार्यकर्ता का ईमानदारी से अपने दायित्वों को निभाने की जद्दोजहद वास्तव मेंधारा के विपरीत चलने का जोखिम उठाने जैसा था। उनकी चरित्र की यही जीवटता उन्हें बार बार अपनी जान जोखिम में डालकर मजदूरों के हक में डटे रहने के लिए प्रेरित करता था। क्योंकि राजनीतिज्ञों और ठेकेदारों की स्वार्थसिद्धी के लिए समझौते करना उन्हें गवारा नहीं था। यही वजह है कि उन्होंने कई दल बदले लेकिन दल बदल करना उनके नीजि स्वार्थपरता के लिए नहीं बल्कि मजदूरों के प्रति उनकी सच्ची प्रतिबद्धता को व्यक्त करती है यही वजह है कि वह सदा अपनी पार्टी में सदैव माफिया और ठेकेदारों को यूनियन में न आने देने के लिए विरोध करती रहीं। इस संदर्भ में वह लिखती हैं, “पता नही क्यूं मुझे किसी व्यक्ति या पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता दूसरे ही दर्जे पर नजर आई। प्राथमिकता सदैव मानवीय संवेदना को मिलती रही। इसलिए मजदूरों के हित बनाम पार्टीमें मैंने हमेशा मजदूरो के हित का साथ दिया भले पार्टी या उसका ओहदा मुझे छोड़ना पड़ा।” (पृ.190)

भारतीय समाज मेंखुद मुखतार होकर चलने वाली औरतों के आत्मविश्वास से पुरुषों को खतरा लगने लगता है उनका अहम कुंठित होता है और मन ही मन वह सोचता है कि औरत उसके मुकाबले ज्यादा प्रभावी और आकर्षित करनेवाला व्यक्तित्व बनकर उभर सकती हैं। इस बात का खतरा उनकी पार्टी मे पुरुषों को सदैव सालता रहा था जिसकी कीमत उन्हें कई जगह चुकानी भी पड़ी। ख़तरों को मोल लेने वाली निर्भिकता ने उन्हें विवादों मे बनाए रखा जिसका उन्हें कभी खेद और अपराधबोध नही रहा। उनका अपराधबोध से मुक्त होना उनके चरित्र को विशिष्ट बनाता है। हमारे समाज में एक स्त्री का कार्यकर्ता और राजनीतिक नेताजैसी दोहरी भूमिका में खुद को खरा साबित करना एक बड़ी चुनौती है। अक्सर सामाजिक कार्यकर्ता राजनीतिक दाव पेंचो मे फंस कर अपनी ईमानदारी और प्रतिबद्धता को बचा नही पाता। क्योंकि सत्ता की भूख सैंद्धांतिक दोगलापन पैदा करती है लेकिन रमणिका जी ने इस चुनौती को स्वीकार कर खुद को खरा साबित करने की पूरी कोशिश की।

अन्याय के खिलाफ सदा आवाज उठाने वाली रमणिका जी ने कभी चुप रहना सीखा ही नही था इसलिए उन्हें ऐसे हंगामे खड़ा करने में बहुत मजा आता था जिनसे निजि स्वार्थ पर चोट पहुंचे। उनके इस स्वभाव की वजह से अकारण ही लोग उनके विरोधी बन जाते थे लेकिन उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की‌‌। इन्हीं चारित्रिक विशेषताओं और आत्मविश्वास के बल पर रमाणिका जी युद्धरत आम आदमी की आवाज बनकर सामाजिक परिवर्तन के मुहीम में जीवन भर सक्रिय रहीं।


हादसे : रमणिका गुप्ता (आत्मकथा), मू. 250 (पेपरबैक), प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली।  


डॉ. विभा ठाकुर : लेखिका हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन।


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