आओ देखें ‘बुनकरों की दुनिया’

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कमल मिश्र

‘बुनकरों की दुनिया : पांच कहानियां और प्रार्थना’, हिंदी के अतिरिक्त तेलगु और अंग्रेजी में भी एक साथ वर्ष 2018 में प्रकाशित हुयी है. हिंदी संस्करण की बात करें तो इसकी चार कहानियों और प्रार्थना का मूल से हिंदी में अनुवाद अभय कुमार नेमा ने, और ‘हम्ब्रीलमाय का करघा’ कहानी का अनुवाद वीणा शिवपुरी ने किया है.

किताब की शुरुआत में धरती माँ और पिता आकाश से शुभ्र-धवल वस्त्र बुनने की ‘होपी – अमरीकी जनजातीय प्रार्थना’ एक अत्यंत सुन्दर चित्र के साथ छापी गयी है. अगली कथा ‘हम्ब्रीलमाय का करघा’ उस पहली बुनकर हम्ब्रीलमाय की कहानी है जिसे देवी मताय ने कपड़ा बुनना सिखाया था. इस कहानी के अनुसार जब हम्ब्रीलमाय का करघा टूट कर बिखर गया और उसका बुना कपड़ा नदी में बह चला तो पहाड़ों से मैदानों की ओर प्रवाहित होता हुआ जहाँ भी यह कपड़ा लोगों को मिला वहीं उन्होंने बुनाई की कला सीखी. दंतकथा के साथ तीन आकर्षक चित्र भी पुस्तक में दिए गए हैं.

अगली कथा का शीर्षक ‘जादुई करघा’ है. यह कहानी एक जादुई करघे और इस पर कपड़ा बुनने वाले जुलाहे के राज़ को जो अब तक पोशीदा रहा आया था पहली बार बाल पाठकों के समक्ष खोलती है. कथा के अनुसार जब यह दुनिया नयी- नयी ही बनी थी उस समय पृथ्वीलोक पर कुछ ऐसे प्राणी भी रहते थे जो मूलतः दूसरे लोक के वासी थे. इनमें एक प्राणी – जिसका नाम मित्या था – को न तो पुरुष और न ही स्त्री कहा जा सकता है. लैंगिक विभाजन की कोटियों का अतिक्रमण करने वाले इस ग़ैर-लौकिक प्राणी को हालाँकि कहानी में स्त्री लिंग संबंधी पहचान से ही निरुपित किया गया है. बहरहाल, मित्या भी दूसरे लोक के अन्य प्राणियों की तरह ही मनुष्यों को बुराई पर अच्छाई पसंद करने में मदद करना चाहती थी. इसी लिए जब उसकी मुलाकात एक ईमानदार और परिश्रमी बुनकर जमाल से हुयी तो उसने ऐसा एक जादुई करघा और जादुई धागा भी बना कर देने का निश्चय किया जिससे भविष्य में जमाल को कपड़ा बुन कर बेचना न पड़े. अब जमाल जितना चाहे कपड़ा बुन सकता था और इस कपडे को वह अपनी मर्जी से लोगों को बाँट भी सकता था. कपडे के बदले में लोग उस बुनकर की भोजन संबंधी जरूरतें पूरी करते. मगर जादुई करघे को बना कर देने के साथ ही एक जरुरी शर्त भी मित्या ने जमाल के सामने रख दी थी और जिसका पालन उसे हर हाल में करना था जादुई करघे की इस कहानी के साथ भी तीन सुन्दर रंगीन चित्र बाल पाठकों के लिए दिए गए हैं.

बुनकरों की दुनिया से अपने पाठकों का परिचय करवाती पुस्तक की अगली कथा, जिसका शीर्षक ‘सिंहासन पर खतरा’ है, वस्तुतः बनारस के राजा ब्रह्मदत्त और उनके राज्य पर घिर आयी एक बड़ी विपत्ति की कहानी है. एक बार राजा के दरबार में मंगोलों का भेजा ऐसा दूत पहुँचता है जो अपना सन्देश संकेतों के रूप में ही देना चाहता है. राजदरबार में प्रवेश के बाद जब दूत संकेतों में अपना सन्देश सुनाता है तो एक बड़ी परेशानी उसके सन्देश को ठीक ठीक समझने और फिर उसका माकूल जवाब देने की होती है. फिर जब तमाम दरबारी और नगर में रहने वाले सुशिक्षित ब्राह्मणों को भी इस गंभीर समस्या का कोई कारगर हल नहीं सूझ रहा होता उस समय नगर की परिधि से बाहर रहने वाले मामूली बुनकरों में से एक सामने आता है. वह दानिशमंद बुनकर बात की बात में अपनी चतुराई से आसन्न संकट का हल पेश कर देता है.  इसके बाद प्रसन्न हो कर राजा ब्रह्मदत्त जरी के कारीगरों को भी बनारस में बसाना मंजूर करते हैं. कहानी पाठकों को यह बताती चलती है कि कैसे ‘ज्ञानियों को बुद्धि और विवेक फुर्सत के पलों से हासिल होता है और शिल्पकारों में बुद्धि और विवेक अपने शिल्प में माहिर होने पर प्राप्त होता है.’ इस बेहद रोचक कथा के साथ भी कुल तीन चित्र दिए गए हैं.

पुस्तक की अगली कहानी ‘बुनकर ने ली महाजन से दावत’ में एक बार फिर  कारीगरों की व्यवहारिक बुद्धिमत्ता को रेखांकित किया गया है. यह एक ऐसे लालची महाजन की कथा है जो बुनकरों को सख्त नापसंद करता और मेहनतकश बुनकरों की नजदीकी को भी बुरा मानता आया है. इस महाजन को सबक सिखाने की गरज से एक दिन एक नौजवान बुनकर अपने दो साथियों से शर्त बदता है. जिसके बाद वह  न सिर्फ उस सूदखोर के घर स्वादिष्ट दावत खाने बल्कि उसे उसकी मूर्खता का भी एहसास बखूबी करवाने में कामयाब होता है. इस दिलचस्प कहानी के साथ भी दो आकर्षक रंगीन चित्र पुस्तक में छपे हैं.

किताब की पांचवी और आखिरी कहानी का शीर्षक ‘मूर्ख राजा’ है, जो बलाश नाम के एक ऐसे कल्पित राज्य की कथा है जहाँ के बुनकर दुनिया का सबसे अच्छा कपड़ा बनाने के लिए विख्यात थे. इस राज्य से बहुत सा कपड़ा दूर दराज़ के देशों को भी जमीनी और समुद्री मार्गों से भेजा जाता जिसके एवज में दूसरे मुल्क बलाश राज्य को ढेर सारा सोना और चाँदी दिया करते थे. इस तरह बलाश दुनिया का सबसे धनवान देश हो गया था. बलाश में हजारों किसान कपास उगाते और धागा बनाते थे. यहाँ  अलग अलग किस्मों की कपास से तरह तरह के धागे बनाये जाते. किसानों और बुनकरों के अलावा बलाश में करघा बनाने वाले, बॉबिन बनाने वाले, शटल बनाने वाले, करघे पर धागा चढाने वाले, मांड देने का बरुश बनाने वाले, और रंगरेज भी खासी तादात में रहते थे. साथ ही छपाई करने वाले यहाँ कपड़ों पर कलात्मक और सुन्दर छपाई किया करते थे. समय बीतने के साथ बलाश के हर कस्बे और गाँव में बुनकरी की अपनी खास शैली विकसित हो चुकी थी. कुल मिला कर सभी नागरिक ख़ुशी ख़ुशी जीवनयापन कर रहे थे कि इसी बीच पंडो और मंडो नाम के दो ठग बलाश देश पहुँचते हैं. वे बलाश के राजा को लकड़ी के करघों की बजाय उनकी आधुनिक मशीनों के इस्तेमाल से कपड़ा बनाने का उधोग शुरू करने की सलाह देते हैं. उनके झांसे में आने के बाद राजा ठगों को सोने की अशर्फियों से भरे बोरे देकर उनकी सभी मशीनें खरीद लेता है. इसके बाद बड़ी बड़ी फैक्टरियां बनवायी जाती हैं जहाँ राज्य की पूरी बिजली का इस्तेमाल कर कपडे बनने लगते हैं. साथ ही राजा हाँथ से कपड़ा बुनने पर रोक लगा देता है. इसके चलते हाँथ से कताई और बुनाई करने वाले तमाम लोग न सिर्फ़ बेरोजगार हो जाते हैं, बल्कि उनके भीख तक मांगने की नौबत आ जाती है. लोगों की बदहाली पर राजा जरा भी ध्यान नहीं देता उल्टा वह उन दोनों ठगों से बलाश में ही बसने का आग्रह करता है. मूर्ख राजा को ठगने की जुगत में लगे पंडो और मंडो अब एक नयी योजना बनाते हैं और बड़ी कामयाबी के साथ वो राजा का सारा धन ले कर रफूचक्कर हो जाते हैं. जब रानी को इस घटनाक्रम का पता चलता है तो उसे यह समझने में जरा भी देर नहीं लगती कि राजा को पूरी तरह ठगा जा चुका है. इसके बाद वह बुद्धिमान रानी राज्य के संचालन का जिम्मा खुद उठाने का फैसला करती है. रानी अपने मंत्रियों से गंभीर मंत्रणा के बाद तमाम मशीनों को बंद करने और दोबारा से हथकरघों पर कपडा बुनने की शुरुआत का आदेश जारी करती है. किसान भी अब फिर से बुनकरों की जरूरत के मुताबिक कपास उगाना शुरू कर देते हैं और कुछ सालों में ही बलाश एक बार फिर समृद्ध देश बन जाता है. इस बेहद दिलचस्प और मानीख़ेज कथा के साथ भी तीन आकर्षक चित्र पाठकों के लिए दिए गए हैं. 

समग्रता में कहें तो पुस्तक की सज्जा और फॉन्ट आकार इसे रोचक और पठनीय बनाते हैं. हालाँकि, पृष्ठ संख्या 6, 7, 12, 16, 17, 19, 21, 22, 44, 46, 51, और 56, पर जो संपादन संबंधी कुछ भूलें दिखती हैं उन्हें थोड़ी सजगता से दूर किया जा सकता था. उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे के संस्करणों में इन मामूली अशुद्धियों को सुधार लिया जायेगा. कुल मिला कर पुस्तक बाल और किशोर वय के पाठकों को अवश्य रुचिकर लगेगी. साथ ही इसे बाल साहित्य वर्ग में एक महत्वपूर्ण इज़ाफ़ा कहा जा सकता है.

अंत में, हिंदी की बात करें तो बाल साहित्य यहाँ लंबे समय से एक उपेक्षित परिक्षेत्र ही रहा है. इस रचनात्मक दायरे में यदा- कदा ही कोई गंभीर प्रयास होता दिखता है.  लेखकों की एक पूरी पीढ़ी पर नज़र डालें तो मुश्किल से ही आप को कोई ऐसा नामचीन मिलेगा जिसकी अपनी सक्रियता ने इस क्षेत्र को भी निरंतर समृद्ध किया हो. वैसे, यह कहना तो सरासर ग़लत होगा कि हिंदी जगत के विद्वानों का ध्यान इस गंभीर उपेक्षा की ओर अब तक नहीं गया. अगर हम बीते दो दशकों पर ही एक सरसरी दृष्टि डालें तो पाएंगे कि न सिर्फ़ नया ज्ञानोदय का संपादक रहते हुए प्रभाकर श्रोत्रिय ने बाल साहित्य विशेषांक (अक्टूबर, 2006) के माध्यम से महत्वपूर्ण हस्तक्षेप का प्रयास किया. बल्कि आई. टी. एम. यूनिवर्सिटी ग्वालियर जैसे अकादमिक संस्थान और एकलव्य जैसी सामाजिक संस्थाओं ने भी अपने महत्वपूर्ण प्रकाशनों के ज़रिये पिछले कुछ सालों के दौरान लगातार इस दिशा में कुछ सार्थक करने की कोशिश की है. साथ ही नेशनल बुक ट्रस्ट और जुगनू प्रकाशन– जिसने पिछले दिनों हिंदी के कुछ बेहतरीन साहित्यकारों को इस कार्यभार से संबद्ध किया — की सक्रियता भी यक़ीनन दूरगामी महत्त्व की है. इसी कड़ी में हम उज़रम्मा और बनियन ट्री के संयुक्त तत्वाधान में प्रकाशित ‘बुनकरों की दुनिया: पांच कहानियां और प्रार्थना’ को भी देख-परख सकते हैं. 

पुस्तक में चित्रांकन राहक का है. किताब का लेआउट और डिजाईन शुभम पाटिल ने तैयार किया है, और इंदौर के भारती प्रिंटर्स से इसका मुद्रण हुआ है. बाल और किशोर वय के  पाठकों को ध्यान में रख कर तैयार की गयी इस 62 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य 80 रुपये है.


कमल कुमार मिश्र मूलतः साहित्य, इतिहास और दर्शन के विधार्थी हैं। उन्होंने पिछले दिनों जामिया मिल्लिया इस्लामिया के तुलनात्मक धर्म और सभ्यता अध्ययन केंद्र में आधुनिक बंगाल के एक तांत्रिक संप्रदाय का इतिहास जैसे अनछुए विषय पर अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत किया है। बतौर छात्र आजकल वो जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिंदी विभाग द्वारा संचालित पत्रकारिता कार्यक्रम से जुड़े हैं। उनकी साहित्य में गहरी रूचि है, और उन्होंने हिंदी के जासूसी साहित्य पर भी एक रोचक अकादमिक अध्ययन प्रस्तुत किया है।

                        


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