विजय शर्मा
हैदराबाद और डालटनगंज में मैंने मधुमक्खियों को मरते हुए देखा। शोध से पता चला है कि यह मोबाइल फ़ोन का असर है। मोबाइल फ़ोन टावर तथा सेलफ़ोन से एलैक्ट्रोमैगनेट तरंगे निकलती हैं जो मधुमक्खियों के लिए हानिकारक है। इस पर केरल के एक वैज्ञानिक डॉ. सैनुद्दीन पट्टाषि (Dr. Sainuddin Pattazhy) ने एक शोध किया जिसके परिणाम को उन्होंने पीटीआई के हवाले से बताया मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगे शहद इकट्ठा करने वाली वर्कर मक्खियों को अपंग कर देती हैं जिसके फ़लस्वरूप मधुमक्खियों की कॉलनी नष्ट हो जाती है। उन्होंने पाया कि यदि छत्ते के नजदीक सेलफ़ोन रखा जाए तो वर्कर मक्खियाँ वापस छत्ते में नहीं लौट पाती हैं, छत्ते में केवल अंडे और रानी मधुमक्खी रह जाती है और दस दिन में पूरा छत्ता भहरा जाता है। उनका कहना है यदि मोबाइल टावर और सेलफ़ोन की संख्या बढ़ती गई तो दस साल में मधुमक्खियाँ पूरी तरह समाप्त हो जाएँगी। भारत में गौरैया घर-आँगन की चिड़िया थी। कार्निस, रोशनदान, पंखे के ऊपर घोंसला बनाती। जब परक जाती तो चोंच में भर कर परात से आटा ले जाती। सुबह-शाम उसके चहकने-फ़ुदकने से होती थी। आज कहाँ नजर आती है? कर्नाटक में पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। जमशेदपुर में एक्का-दुक्का नजर आ जाए तो गनिमत समझिए।
याद आते हैं कृश्नचंदर (कवर पर यही वर्तनी है) के उपन्यास ‘एक गधे की आत्मकथा’, ‘एक गधे की वापसी’ और ‘एक गधा नेफ़ा में’। ऐसा चुटीला व्यंग्य! निशाना बना कर बात कहना उनकी विशेषता है। किशन चंदर गधे को साधन बनाकर अपनी बात कहने में माहिर हैं। समाज में फैली विषमताओं पर बेबाक व्यंग्य ‘जिसके पढ़ने से बहुतों का भला होगा’। यह उपन्यास देश की सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। पद्म भूषण कृश्नचंदर ने पिछली सदी के पाँचवें दशक में उपन्यास ‘एक गधे की वापसी’ लिखा। स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र पर यह बहुत मारक व्यंग्य है। उनके गधे की ख्याति ऐसी फ़ैली कि जब लेखकों के एक जलसे में किसी ने उन्हें प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिलवाया तो उन्होंने कहा, ‘हाँ, हाँ, जानता हूँ, वही गधे वाले।’ यह वाकया किशन चंदर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है।
इस उपन्यास में एक गधा है जो आदमी की भाषा में बोलता है। पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है, आदमी के रूप में गधा है या गधे के रूप में आदमी है। प्रतीकात्मक शैली में लिखा यह उपन्यास भारतीय जीवन के विविध पक्षों को उजागर करता है। इस रोचक उपन्यास में बाराबंकी में ईंट ढ़ोने वाला एक गधा दिल्ली की यात्रा करता है और वहाँ एक धोबी के यहाँ गधे की तरह खटता है। दुर्भाग्य से धोबी को यमुना में मगरमच्छ निगल लेता है। बेवा और यतीम बच्चों की सहायता के लिए गधा दर-दर की ठोकरें खाता है, कहीं सुनवाई नहीं होती है। प्रशासनिक-सरकारी कार्यप्रणाली की धज्जियाँ उड़ाता कथानक आगे बढ़ता है। वाम जो मजलूमों का हमदर्द बनने का दावा करता है, वह भी कुछ नहीं करता है। यूनियन वाले भी कोई सहायता नहीं करते हैं। लेकिन जब प्रधानमंत्री इस गधे पर सवारी करते हैं तब गधा देश-विदेश में प्रसिद्ध हो जाता है। इसके माध्यम से किशन चंदर ने सौंदर्य प्रतियोगिता, साहित्य अकादमी सबकी खबर ली गई है। जाति-धर्म-वर्ग सबकी बखिया उधेड़ता उपन्यास आज भी प्रासंगिक है।
पशु-पक्षियों पर बहुत सारी फ़िल्में बनी हैं। इनमें से कई साहित्याधारित हैं। मुझे ‘व्हेल राइडर’ याद आ रही है। एक पिता विटी इहीमीरा ने बेटी की कही बात से प्रेरित हो कर न्यू ज़ीलैंड के माउरी लोगों की एक बच्ची की कहानी ‘व्हेल राइडर’ लिखी। असल में एक दिन छुट्टियों में उनकी बेटी जेसिका ने कई फ़िल्में देखने के बाद उनसे पूछा, ‘डैडी, लड़के ही सदा क्यों हीरो होते हैं और लड़कियाँ इतनी असहाय? वे खाली चिल्लाती हैं, ‘बचाओ, बचाओ, मैं इतनी बेबस हूँ।’ इस समय विटी अमेरिका में रह रहे थे। और इसके कुछ दिन बाद पूरा अमेरिका – जहाँ उन दिनों लेखक रह रहा था – खूब उत्तेजित था। एक विशालकाय व्हेल न्यू यॉर्क की हडसन नदी में आ गई थी। लेखक इहिमीरा को यह व्हेल राइडर और न्यू ज़ीलैंड के व्हेल का अपने लिए संदेश लगा। उन्हें लगा कि दुनिया के दूसरे छोर पर रहते हुए भी वे भुला नहीं दिए गए हैं। विटी इहिमीरा ‘व्हेल राइडर’ लिखने बैठ जाते हैं और छ: सप्ताह में किताब समाप्त कर लेते हैं और जब जेसिका और उसकी बहन (उनकी बेटियाँ) अगली बार उनके पास आती हैं तो वे उन्हें पढ़ने के लिए देते हैं क्योंकि यह उनके लिए लिखी गई थी।
और इसी किताब पर प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक निकी कारो ने फ़िल्म बनाई। फ़िल्म का स्क्रीनप्ले भी निकी कारो ने लिखा। वही निकी कारो जिन्होंने नाज़ी यातना काल पर ‘ज़ू कीपर्स वाइफ़’ फ़िल्म बनाई है। उन्होंने बच्ची नायिका पाई या पाइका या पाइकिया के लिए किइसा कैसल-हग्स का चुनाव १०,००० बच्चों में से किया और इस बच्ची ने अभिनय की सर्वोत्तम ऊँचाई को स्पर्श किया। किताब में यह बात बहुत स्पष्ट है कि पाई के बाबा के मन में पोती के लिए कोई प्रेम नहीं है। पाई कहती है, ‘मेरा कोरो अपने दिल में चाहता है कि मैं कभी पैदा ही नहीं हुई होती।’ बारह साल की यही पाई न केवल बाबा का सिर ऊँचा करती है वरन पूरे समुदाय की लीडर बनती है क्योंकि वह व्हेल– माउरी लोगों के पूर्वजों के संसर्ग में हैं, उन्हें मंत्र शक्ति से बुला सकती है। वह मरती हुई व्हेल को जिंदा करती है। समुद्र तट पर छोटी पाई अकेली व्हेल के पास पहुँचती है। वह उसे हौले-से स्पर्श करती है, उसके हाथ प्राचीन चमड़ी को सहलाते हैं। वह कौन-सा संवाद कर रही है? हम नहीं जानते हैं। शायद प्रार्थना, शायद प्रेम, शायद अनुनय-विनय। शायद उसका अपना पक्का इरादा। शायद ये सब एक साथ। वह अपनी नाक और माथे से व्हेल को स्पर्श करती है – जैसे माउरी एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं। चुपचाप अपना माथा वहाँ रखती है। एक लंबे समय तक संवाद करते हुए। उससे संवाद करते हुए। आखीरकार वह उसके पूर्वजों का व्हेल है। वह पाइकिया का व्हेल है। वही व्हेल जो पाइकिया को हैवाइकी से लाया था, तीन हजार मील के चौड़े समुद्र से उसके नए घर, माउरी लोगों के नए घर। पाई विशाल व्हेल की पीठ पर चढ़ जाती है। एक छोटी बच्ची विशाल व्हेल की पीठ पर। वह उसे अपने नन्हें हाथों से दुलराती है।
वह कहती है, ‘चलो!’ और उसने अपनी नंगी एड़ी से व्हेल की पीठ को ऐड लगाई। जैसे सवार घोड़े को ऐड़ लगाता है। और व्हेल की सवारी करती छोटी पाई को विशालकाय व्हेल अपने साथ धीरे-धीरे गहरे समुद्र में लिए जा रही है। पढ़ कर देखिए कैसे व्हेल माउरी जनजाति के भाग्य विधाता हैं। व्हेल ही एक समय हजारों मील की यात्रा करा कर उन्हें न्यू ज़ीलैंड के तट पर लाए थे।
इस फ़िल्म ‘व्हेल राइडर’ को बहुत कम लोगों ने देखा है किताब तो और भी कम लोगों ने पढ़ी होगी। पर साहित्य में जब व्हेल की बात आती है तो साहितय प्रेमी सबसे पहले नाम लेते हैं, मोबी डिक’ का। वही ‘मोबी डिक’ जिसके नाम से मटिल्डा का पापा भड़क उठता है क्योंकि उस अनपढ़ और पढ़ने से नफ़रत करने वाले व्यक्ति को केवल एक शब्द समझ आता है, ‘डिक’। खैर अमेरिकी उपन्यासकार हरमन मेलविल की इस कठिन किताब का व्हेल 90 फ़ीट से भी अधिक लंबा है। 1851 में प्रकाशित इस उपन्यास का व्हेल खलनायक है और एक व्हेल का शिकार करने वाले जहाज के कैप्टन का जीवन तबाह करता है। इसने कैप्टन अहाब का एक पैर चबा लिया है अब वह खड़े होने और चलने के लिए हाथीदाँत का पैर इस्तेमाल करता है। अहाब के जीवन का एकमात्र उद्देश्य मोबी डिक को हराना है। इस उद्देश्य ने उसे पागल बना दिया है। अहाब को न खाने की सुध है न ही उसे कोई अन्य भावना स्पर्श करती है। नफ़रत एक बहुत शक्तिशाली भावना है जो नफ़रत करने वाले को भी नष्ट कर डालती है। अहाब मशीन की तरह जीता है और उसके जहाज पेकौड के कर्मचारी उसके भय से थरथर काँपते हैं।
उपन्यास का एक तरह से प्रमुख पात्र यह क्रूर व्हेल ही है जो अपने रास्ते में आने वाले को समाप्त कर देता है। पर एक अन्य मुख्य पात्र इस्माइल कथावाचक है। इसाइल इस जहाज पर एक सामान्य नाविक है। वह अपने आसपास के विवादों को देखता है और मोबी डिक को आदर्श मानता है उसे इस विशिष्ट व्हेल के जादूई होने में विश्वास है। अंत तक केवल इस्माइल बचा रहता है और वही मोबी डिक की कहानी सुना रहा है। इस उपन्यास पर इसी नाम से फ़िल्म भी बनी है। आज यह उपन्यास साहित्य के इतिहास में विशिष्ट स्थान रखता है मगर जब प्रकाशित हुआ था इसकी पूछ नहीं हुई थी। मेलविल की मृत्यु के समय यह उपन्यास उपलब्ध भी न था। वो तो लेखक की शताब्दी बाद इसे विलियम फ़ॉक्नर ने मानय्ता दिलाई। उसने कहा काश उसने यह खुद लिखा होता। डी एच लॉरेंस ने भी उसे विश्व की महान रचना घोषित किया। इंग्लिश भाषी समाज अपने लेखकों को प्रमोट करना जानता है। पर इसमें शक नहीं कि समुद्र पर लिखी गई यह एक महान रचना है। (शीघ्र आने वाली पुस्तक का अंश).
डॉ. विजय शर्मा [समालोचक, सिनेमा विशेषज्ञ, विश्व साहित्य अध्येता] पूर्व एसोशिएट प्रोफ़ेसर. विजिटिंग प्रोफ़ेसर हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी तथा रॉची एकेडमिक स्टाफ़ कॉलेज. देश के विविध स्थानों पर अनेक सेमीनार एवं कार्यशाला आयोजित. सेमीनार में शोध-पत्र प्रस्तुति. कई हिन्दी और इंग्लिश पत्रिकाओं में सह-संपादन. अतिथि संपादन ‘कथादेश’ दो अंक. ‘हिंदी साहित्य ज्ञानकोश’ में सहयोग. प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, आलेख, पुस्तक-समीक्षा, फ़िल्म-समीक्षा, अनुवाद प्रकाशित. आकाशवाणी से पुस्तक-फ़िल्म समीक्षा, कहानियाँ, रूपक तथा वार्ता प्रसारित. प्रकाशित पुस्तकें: अपनी धरती, अपना आकाश: नोबेल के मंच से (द्वितीय संस्करण); वॉल्ट डिज़्नी: ऐनीमेशन का बादशाह; अफ़्रो-अमेरिकन साहित्य: स्त्री स्वर; स्त्री, साहित्य और नोबेल पुरस्कार (द्वितीय संस्करण); विश्व सिनेमा: कुछ अनमोल रत्न; सात समुंदर पार से… (प्रवासी साहित्य विश्लेषण); देवदार के तुंग शिखर से; हिंसा, तमस एवं अन्य साहित्यिक आलेख; क्षितिज के उस पार से; स्त्री, साहित्य और विश्व सिनेमा; बलात्कार, समलैंगिकता एवं अन्य साहित्यिक आलेख; सिनेमा और साहित्य: नाज़ी यातना शिविरों की त्रासद गाथा; तीसमार खाँ (कहानी संग्रह); विश्व सिनेमा में स्त्री (संपादन); नोबेल पुरस्कार: एशियाई संदर्भ; ऋतुपर्ण घोष: पोर्ट्रेट ऑफ़ ए डॉयरेक्टर (ईबुक); ऑर्सन वेल्स: निर्देशन की जिद, काँटों का ताज; महान बैले नृत्यांगनाएँ; कथा मंजूषा; विश्व की श्रेष्ठ 25 कहानियाँ (अनुवाद); लौह शिकारी (अनुवाद). दो पाण्डुलिपि प्रकाशनाधीन. इनसे इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है— vijshain@gmail.com।