‘कारी तू कब्बि ना हारी’ एक साधारण शिक्षक के जीवन-संघर्ष की गाथा है, जो विषम परिस्थितियों से जूझता है, लेकिन कर्तव्यनिष्ठा के बल पर गाढ़े समय से पार पा लेता है। यह एक आम आदमी की विजय-गाथा है। इस आपाधापी भरे जीवन में ‘जीवन के शाश्वत् मूल्यों’ का निर्वहन करना किसी चुनौती से कम नहीं होता। ‘कारी तू कब्बि ना हारी’ का नायक अंततः विजयी होता है। मूल में कथानक यही संदेश देता है। पुस्तक के लेखक वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी ललित मोहन रयाल हैं। इस पुस्तक में उनका गद्य अपने खास अंदाज में दिखाई देता है। यह जीवनी विधा में एक अनूठी रचना है, जो एक शिक्षक के जीवन की संघर्ष-गाथा का वृत्तांत है. गढ़वाली बोली के आस्वादन से मिश्रित एक शिक्षक की इस दास्तान को पढ़ा जाना तो बनता है-पुस्तकनामा
गायत्री आर्य
यूँ तो हर दौर की मांओं से भारी और पिताओं से ऊँचा कौन ही है? लेकिन 20वीं सदी के पिताओं की पीढ़ी कई मायनों में ‘न भूतो, न भविष्यति’ है। ये पिताओं की वह अंतिम पीढ़ी है जो अब कभी नहीं आएगी।वे पिता जिन्होंने अंग्रेज भी देखे और आजादी भी! जिन्होंने सूचनाओं के आदान-प्रदान लिये हरकारे और मुनादी भी देखी और बेतार युक्त फोन से लेकर इन्टरनेट और वाट्सअप भी! ये पिताओं की वह पीढ़ी थी जो तीन-चार बच्चों और पत्नी यानी पांच-छ: जनों के परिवार को इस हिफाजत, श्रम, गौरव और धैर्य से साईकिल पर कहीं बैठा के ले जाते थे जैसे कि कोई लाखों की गाड़ी में भी आज नहीं ले जा सकता। क्योंकि अब गाडी में किसी पांचवे-छठे के बैठते ही ‘स्पेस’ कम पड़ने लगता है! यह पिताओं की वह पीढ़ी जो घनघोर गरीबी, तंगी, में जीवित रहते हुए ऊँचे आदर्शों से लिपटी रहती थी और अपने बच्चों में विलुप्त होते संस्कारों के बीज रोपती थी। पिताओं की वह पीढ़ी जो अलबत्ता तो बीमार पड़ती नहीं थी, और पड़ जाती तो आजकल के तथाकथित युवाओं से जल्दी रिकवर कर जाती ।
पिताओं की वह पीढ़ी जो शार्टकट में नहीं बल्कि कठिन तपस्या में यकीन रखती थी। जो खुद उदास रहकर भी पूरे घर की उदासी तिरोहित करती थी। जिनका खुद का कोई गॉड फादर नहीं हुआ करता था। लेकिन जो न सिर्फ अपने घर बल्कि मोहल्ले, पडोस से लेकर पूरे गाँव और आसपास के गांवों तक के बहुत से बच्चों के गॉड फादर बनने का माद्दा रखते थे और बनते भी थे। जिनकी चिंता अपने बच्चों की पढ़ाई और ब्याह तक न सिमटी होकर कई परिवारों (और बहुत बार तो गांव) के बच्चों तक को तारने तक फैली होती थी। जिस पीढ़ी के पिताओं ने कुआँ खुद खोदकर पानी पीया है! हमने पिताओं की एक ऐसी पीढ़ी हमेशा के लिये खो दी है या पूरी तरह से खोने के कगार पर हैं,जीवटता में जिसका कोई सानी नहीं था। अपने पिता की स्मृति में लिखी ललित मोहन रयाल की किताब ‘का..री तु कब्बि ना हा…रि’ उन तमाम पिताओं को एक हार्दिक और मार्मिक श्रधांजलि है ।
20वीं सदी के पिताओं की कर्मठता और जुझारूपन का कोई सानी नहीं, सिवाय उसी दौर की माओं को छोडकर! लेखक अपने पिता के जीवन की ढेरों घटनाओं का वर्णन करके अपने पिता का रेखाचित्र सा बनाने में सफल हुआ है। खास बात यह है कि पूरी किताब में पहाड़ी भाषा का जो जबर्दस्त तड़का लेखक ने लगाया है उससे किताब का स्वाद काफी बढ़ गया है। अपने पिता की प्रबल जीजिविषा और संघर्षवान चरित्र को बताते हुए वे लिखते हैं –‘मनखि ह्वाण दुर्लभ छ ।’ (मनुष्य होना दुर्लभ है) उनका बड़ा सधा-सधाया जीवन-दर्शन था, जो उनके अनुभवों से उपजा था, कहते थे-‘जीवन में सफल होने के लिये तपना जरूरी है। जिसके बालपन में कठिनाई न झेली हों, धक्के न खाए हों, भूखा न सोया हो, शीत-जाड़े में न ठिठुरा हो, वह क्या संघर्ष करेगा? ड्राइंग रूम में सजाया गमले का पौधा धूप-बारिश का सामना नहीं करता। उसकी परवरिश दूसरे माहौल में हुई होती है। वह उसी का अभ्यस्त हो जाता है। मुकाबला तो चट्टानों पर उगा हुआ पौधा ही कर सकता है, जो जेठ की झुलसती लू, भादों की मूसलाधार बारिश और पूस-माघ की शीतलहर और घने पीला में डटा रहकर भी गलत-फूलता है। कुदरत आपको किसी खास मकसद के लिये चुनती है। अगर तुम संघर्ष के अभ्यस्त नहीं होते, तो जीवन-संघर्ष में बाजी कैसे मरोगे?’’
आज के समय में महिला उत्थान की जो बयार बह रही है उसमें बार-बार ये बात उठकर सामने आती है कि पुरुषों के सहयोग के बिना महिलाओं का स्थाई सशक्तिकरण सम्भव नहीं हो सकता। ललित मोहन रयाल ने इस किताब में जिस पिता की छवि दिखाई है वे आज के दौर के पिताओं और पतियों के लिये आदर्श साबित होते हैं। निसंदेह पिताओं की उसी पीढ़ी में ऐसे पिता भी बहुत थे, जो बच्चा पालन को सिर्फ माओं की ही जिम्मेदारी समझते थे। लेकिन लेखक के पिता इस मामले में अपवाद थे, और अर्धनारीश्वर के गुणों से भरे नजर आते हैं ।
पिता के ऐसे ही गुणों की फेहरिस्त दिखाते हुए ललित मोहन लिखते हैं “कुशल ग्रह पति तो वे थे ही, जिम्मेदार पिता भी थे और जिम्मेदार शिक्षक भी। ड्यूटी पर होते तो स्कूल की छुट्टी के बाद चूल्हा-चौका संभालते। पढ़ाने के लिए बच्चे साथ में थे। बच्चों की देखभाल करते। बच्चों को सुलाने के बाद ढिबरी-लैंप जलाकर आसन बांधकर कर बैठ जाते। दर्जनों सहकारिता की नोटबुक खरीदे रहते थे, चौड़े चौड़े रूल वाली कापियां। मोटे निब वाले पेन से ढेरों नोट्स लिखते। दर्जनों कापियां भर डालते। लिख-लिखकर पढ़ते थे। लैंप में तेल कम होता तो जरकिन ढलकाकर लैंप में तेल डालते। कभी-कभी बत्ती सुधारने की नौबत भी आ जाती थी। उनका हर काम अर्थपूर्ण होता था। मोतियों जैसे सुडोल अक्षर देखते ही श्रद्धा उमड़ आती ।”
‘यूज एंड थ्रो’ के समय में मितव्ययीता की बात करना बच्चों के मन में ‘कंजूस माता-पिता’ की छवि बनाती है। लेकिन पिछली पीढ़ी के माता-पिताओं के खून में किफायत इस कदर बसी थी की वे ठोक-पीटकर अपने बच्चों में किफायत, मितव्ययीता और संसाधनों के सर्वश्रेष्ठ प्रयोग का बीज रोपने में कुछ हद तक सफल हो जाते थे। पढाई में सुंदर लेखन और सीमित साधनों के बेहतरीन प्रयोग से जुड़े एक टुकड़े के बारे में जिक्र करते हुए ललित मोहन लिखते हैं “हस्त लेख पर उनका बड़ा जोर रहता था। फाउन्टेन पेन हस्तलेख का सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। विद्यार्थियों की नरकट की कलम की नोक की तिरछी कटिंग, खुद अपने जेबी चाकू से करते थे। तब साधन सीमित ही होते थे। कापी पर कितना अभ्यास करते। स्टेशनरी पर खर्चे को वे अपव्यय मानते थे। एडमिशन के दिन ही गार्जियन से कहते– ‘डॉ-तीन सलेट ले आना, जो सालोंसाल चलें। कम से कम दर्जा पांच तक चल ही जाएं। विद्यार्थी सलेट को पचासों बार। मिटाते अभ्यास पर अभ्यास करते ।”
इस किताब की एक सबसे मोहक बात यह है कि यह जीवन के चार-पांच दशक जी चुके सभी पाठकों को अपने पिताओं से मिलवाती है। इस किताब का लगभग हर पन्ना आपको अपने पिता के जीवन के अतीत में ले जाता है। ललित मोहन रयाल ने यह किताब लिखकर न सिर्फ अपने पिता का तर्पण-अर्पण किया है, बल्कि 40-50 की उम्र के पास की पूरी भारतीय पीढ़ी के तरफ से उनके पिताओं का तर्पण कर दिया है! वे तमाम बच्चे जो कभी भाषा, कभी समय, कभी भाव तो कभी अभिव्यक्ति की अभावों के चलते अपने पिताओं के जीवन चिन्हों को कहीं दर्ज नहीं कर सके, वे इस किताब में अपने-अपने पिताओं की एक झलक पा लेते हैं।
इस जीवनी को पढ़ते हुए, हम अपने दिवंगत पिताओं का एक जीवंत सा स्पर्श पाते हैं। वे पिता जो शुद्ध खांटी होकर भी हद दर्जे के असाधारण थे अपने शील में, आचरण में, चिंतन में, कर्म में, व्यवहार में। जो हर जगह लिप्त होकर भी सबसे निर्लिप्त थे, निर्लोभी थे। यह पुस्तक 20वीं सदी के पिताओं को सच्ची और बेह्द भावपूर्ण हार्दिक श्रद्धांजलि है।
कारी तू कभी ना हारी : ललित मोहन रायल। अमेज़न लिंक ।
गायत्री आर्य : लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनसे निम्न ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है– gayatreearya@gmail.com