साहित्य में अकेले कंठ की वे पुकार थे

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प्रेमचंद परिवार से जुड़े हिंदी के प्रसिद्ध लेखक अजितकुमार को साहित्य विरासत में मिला था। उनकी मां सुमित्रा कुमारी सिन्हा शिवरानी देवी की समकालीन लेखिका थीं और उस जमाने की प्रमुख प्रकाशक भीथीं। बच्चन परिवार के अंतरंग रहे अजित कुमार के संचयन ‘अंजुरी भर फूल’ (संपादक: पल्लव) के बहाने हिंदी के वरिष्ठ कवि पत्रकार विमल कुमार हिंदी की दुनिया के अनछुए प्रसंगों को पेश कर रहे हैं जिसे अजित कुमार ने निराला अज्ञेय शमशेर रघुवीर सहाय सर्वेश्वर अपने अद्भुत संस्मरणों में कैद किया था। इस आलेख में अजितकुमार के साहित्यिक व्यक्तित्व को रोचक ढंग से पेश किया गया है। तो आज पढ़ते हैं अजितकुमार के बारे में जो हिंदी मे अकेले कंठ की पुकार थे।

दूर वन में अजितकुमार की आवाज

विमल कुमार

क्या आपको पता है जब महाप्राण निराला अपने जीवन के अंतिम समय में विक्षिप्त हो चल थे। वे खुद को पंडित जवाहरलाल नेहरू कहलाना पसंद करते थे और एक बार तो उन्होंने एक अखबार में अपने एक पत्र के नीचे पंडित जवाहरलाल नेहरू लिखकर उसे प्रकाशित भी करवाया था?

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क्या आपको यह मालूम है कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने हिंदी के यशस्वी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापक की नौकरी दिलाने के लिए उस जमाने के मशहूर आलोचक डॉ. नगेंद्र से सिफारिश की थी जो उन दिनों इस विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रभावशाली अध्यक्ष थे लेकिन डॉ. नगेंद्र ने उस सिफारिश को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि हिंदी विभाग में दो सत्ता केंद्र नहीं हो सकते?

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क्या आपको यह मालूम है कि अज्ञेय ने जब तीसरा सप्तक निकाला तो उन्होंने हिंदी के प्रसिद्ध लेखक अजितकुमार को उसमें शामिल करना चाहा था लेकिन उनकी जगह उन्होंने उनकी बहन कीर्ति चौधरी को शामिल किया और इसकी एक अलग कहानी है? इस तरह अजितकुमार सप्तक के कवि बनने से वंचित रह गए।

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यह केवल संयोग नहीं था कि अजितकुमार के पहले कविता संग्रह का नाम ‘अकेले कंठ की पुकार’ था और वह साहित्य की दुनिया में अपनी वैचारिक तटस्थता के कारण ‘अकेले कंठ की पुकार’ होकर रह गए यानी अकेले रह गए, किसी गुट विशेष के नहीं हुए।

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हिंदी के कथा आलोचक और ‘बनास जन’ जैसी सुंदर पत्रिका के संपादक पल्लव ने हाल ही में अजितकुमार की रचनाओं का एक संचयन ‘अंजुरी भर फूल’ संपादित किया है। 549 पृष्ठ के इस संचयन को रजा फाउंडेशन ने प्रकाशित किया है।

इस संचयन में अजितकुमार की कविताएं, कहानियों (अजित जी ने कहानियां और उपन्यास भी लिखे, यह बहुत कम लोग जानते होंगे) के अलावा अपने समय के दिग्गज लेखकों पर उनके सुंदर संस्मरणों, यात्रा संस्मरण, ललित निबंध आलोचना आदि शामिल हैं।

इस तरह अजित जी ने हिंदी की अनेक विधाओं में अपनी कलम चलाई लेकिन हिंदी साहित्य में उनका अभी तक कोई मूल्यांकन नहीं हुआ और न ही उनके लेखन पर कोई चर्चा ही हुई। याद नहीं पड़ता दिल्ली में उनकी किसी किताब पर कोई संगोष्ठी हुई हो। यहां तक कि साहित्य की दुनिया में उनका कोई ‘स्थान’ भी निर्धारित नहीं किया गया। यह हादसा आखिर अजितकुमार के साथ क्यों हुआ? मेरी दृष्टि में इसके अनेक कारण संभव हैं। एक तो यह कि वे दिल्ली में करीब 55-60 साल रहते हुए भी किसी लेखक संगठन के ‘स्नेह पात्र’ नहीं बने क्योंकि वह मुख्यतः अज्ञेय वृत के ही लेखक माने जाते रहे थे और अज्ञेय को लेकर प्रगतिशील लेखकों में एक शत्रुतापूर्ण रवैया शुरू से रहा जिसके कारण अजित जी अलक्षित रहे हों पर अजित जी उस तरह अज्ञेय मंडली के भी लेखक नहीं रहे जिस तरह विद्यानिवास मिश्र, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रघुवीर सहाय आदि रहे लेकिन एक दूसरा कारण यह लगता है कि चूंकि अजीतकुमार ने कई विधाओं में लिखा इसलिए लोगों का ध्यान उनकी किसी एक विधा पर केंद्रित नहीं हो पाया।

यूं तो उनकी जो थोड़ी बहुत पहचान बनी वह शुरू में एक कवि के रूप में ही बनी थी जब उनका पहला कविता संग्रह ‘अकेले कंठ की पुकार’ आया था लेकिन बाद के दिनों में उनके अनेक संस्मरणों से उनकी पहचान एक संस्मरण लेखक के रूप में भी बनी। हमें इस बात को रेखांकित करना चाहिए कि वे रवींद्र कालिया या काशीनाथ सिंह से अधिक गंभीर और ईमानदार संस्मरणकार हैं। उनके संस्मरणों में लेखक के व्यक्तित्व की कई परतों को खोलने का प्रयास दिखता है। उनके संस्मरणों में कहीं कोई अगंभीर या हल्की बात नहीं मिलती।

उन सारे संस्मरणों को पढ़कर लगता है कि अजितकुमार आजादी के बाद हिंदी के प्रमुख संस्मरणकारों में से एक हैं जिनके पास निराला, बच्चन, पंत, धीरेंद्र वर्मा से लेकर अज्ञेय, शमशेर, निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय, राजेंद्र यादव, निर्मला जैन, देवीशंकर अवस्थी, ओंकारनाथ श्रीवास्ताव जैसे अनेक लेखकों के निकट के संस्मरण हैं और उन्होंने इन्हें लिखकर साहित्य के एक युग को ही चित्रित कर दिया है। उनके इन संस्मरणों के जरिए उस युग के कालखंड और इतिहास को जाना जा सकता है तथा लेखकों के व्यक्तित्व की गुत्थियों को भी सुलझाया जा सकता है तथा इसके आधार पर उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करने में महत्वपूर्ण सूत्र भी हाथ लग सकते हैं।

अजित जी ने जब समय समय पर ये संस्मरण लिखे तब उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि उन्होंने जाने अनजाने इतना बड़ा काम कर दिया है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए उसमें हिंदी साहित्य का एक अप्रकाशित इतिहास भी छिपा हुआ है। उनके निधन के बाद उनके इस संचयन ने उनकी की रचनाओं  को दोबारा पढ़ने की जिज्ञासा पाठकों के मन में पैदा कर दी है। इसके लिए पल्लव विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं क्योंकि उनके इस प्रयास से इस संचयन के माध्यम से अजितकुमार के बारे में पहली बार पाठकों को एक समग्र तस्वीर मिलती है।

अब तक कुछ लोग उन्हें केवल कवि के रूप में जानते रहे थे तो कुछ लोग संस्मरणकार के रूप में जानते रहे या दूरदर्शन के ‘पत्रिका कार्यक्रम’ के संचालक के रुप में या फिर धर्मयुग और दिनमान के लेखक के रूप में लेकिन इस संचयन से पता चलता है कि वे एक कहानीकार एक उपन्यासकार एक आलोचक और यात्रा संस्मरणकार भी रहे पर अजितकुमार की पहचान उस तरह से नहीं बनी जिस तरह उनके समकालीन लेखकों की बनी। दरअसल अजित जी ऐसे समय में लिखना शुरू किया जब हिंदी की ‘गैलेक्सी’ साहित्य में सक्रिय थी। वह ऐसे लोगों के बीच उठते बैठते रहे जिनकी कीर्ति का पताका उस जमाने में तेजी से चारों तरफ फहरा रहा था।

शायद यह भी एक कारण रहा हो कि लोगों का ध्यान अजित जी की तरफ नहीं गया क्योंकि खुद अजितकुमार ने अपना ध्यान हिंदी के अनेक यशस्वी लेखकों पर लिखने में लगाया था। इस कारण भी वह थोड़े ओझल हो गए। यह हादसा केवल उनके साथ ही नहीं हुआ बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कुछ ऐसे लेखकों के साथ भी हुआ जिन्होंने अपने लेखन में हिंदी के दूसरे लेखकों पर अधिक ध्यान दिया और उसकी वजह से वे ओझल हो गए लेकिन क्या अजित जी ने अपने कवि व्यक्तित्व को उतनी गंभीरता से लिया जितनी गंभीरता से रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर या श्रीकांत वर्मा ने लिया था। क्या उन्होंने कविता की भाषा शिल्प और कथ्य में वह प्रयोग किया जो उनके समकालीन लेखकों ने किया। क्या वे अपने कवि कर्म का उत्तरोत्तर विकास करते रहे या अपनी ऊर्जा अन्य कार्यों में लगाई। वे बहुविध कार्य करते रहे। एक तरह दूरदर्शन में उनका बहुत समय और ध्यान जाता रहा जिससे उनके लेखन को बहुत अधिक फायदा नहीं हुआ बल्कि दर्शकों को जरूर फायदा हुआ।

मुझे यह भी लगता है कि बच्चन जी से उनकी निकटता के कारण उनको जितना फायदा न हुआ हो उससे अधिक उन्ही नुकसान ही हुआ। नुकसान इस अर्थ में कि अजित जी की छवि बच्चन के ‘शिष्य’ के रूप में बनी और वे उनके शिष्य बन कर रह गए। हिंदी की वामपंथी दुनिया ने बच्चन को कभी अच्छा या गंभीर कवि नहीं माना यद्यपि बच्चन रचनावली के लोकार्पण समारोह में इंदिरा गांधी और अजितकुमार के साथ मंच पर प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह भी मौजूद थे। लेकिन वह केवल शोभा की वस्तु मात्र थे।

पल्लव : संचयन के संपादक

अजित जी को साहित्य विरासत में मिली थी। उनकी माता जी सुमित्रा कुमारी सिन्हा खुद एक महत्वपूर्ण लेखिका थी। 1939 में उनका प्रथम कहानी संग्रह छपा था। अजित जी ने अपनी माता जी की रचनावली का संपादन किया तब हिंदी समाज को उनके योगदान के बारे में पता चला अन्यथा लोग उन्हें भूल चुके थे। लेकिन युग मंदिर, उन्नाव को भला कैसे कोई भूल सकता हैं जहां से निराला की भी किताबें छपी थी और निराला तो महीनों उनके घर पर रहे थे।

अजित जी प्रेमचंद के परिवार से भी जुड़े थे क्योंकि अमृत राय और श्रीपत राय उनके चचेरे मामा लगते थे। प्रेमचंद की बेटी कमला देवी जो पटने में ब्याही थीं सुमित्रा जी की रिश्ते में बहन थीं और गहरी मित्र थी। इस तरह अजित जी के पास साहित्य की समृद्ध परंपरा और विवेक था। उनकी सोहबत अपने समय के श्रेष्ठ लेखकों के साथ रही। माडल टाउन में शमशेर सर्वेश्वर जी जैसी लोग उनके पड़ोसी थे। राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, निर्मला जैन उनके पारिवारिक सदस्य जैसे रहे। लेकिन अजित जी का व्यक्तित्व  दबंग नहीं था बल्कि मृदु था। वह किसी को डांट नहीं सकते थे। वे थोड़े सहज सरल विनम्र रहे और ‘तटस्थ’ तथा ‘स्वतंत्र लेखक’ अधिक थे। उन्होंने लिखा है कि इलाहाबाद में वह प्रगतिशीलों और परिमल दोनों की गोष्ठियों में जाया करते थे इसलिए दोनों गुटों के वे विश्वासभाजन नहीं बन सके।

बहरहाल पल्लव ने संचयन की भूमिका में अजितकुमार की रचना और व्यक्तित्व पर पहली बार बातचीत की है अन्यथा इससे पहले इनपर शायद ही कोई सुचिंतित लेख किसी ने लिखा हो। अजित जी ने हिंदी में पहली बार किसी लेखक का विचार कोश निकाला जो रामचंद्र शुक्ल विचार कोश था। उसके बाद ही प्रसाद विचार कोश और नामवर विचार कोश निकले। हिन्दी की वर्ष भर की श्रेष्ठ कविताओं के कई संचयन उन्होंने बच्चन, ओंकारनाथ श्रीवास्तव और देवीशंकर के साथ निकाले। ओंकार जी अजित जी के कालेज के मित्र थे जो बाद में उनके बहनोई बन गए और लंदन में बस गए। वे बीबीसी की नौकरी पाकर तो देवी शंकर जी उनके सहकर्मी मित्र कानपुर में रहे। दोनों ने एक ही दिन डीएवी कालेज में 1956 में नौकरी शुरू की। बच्चन जी से उनके पारिवारिक संबंध थे। मुझे याद है कि अमिताभ पर हिंदी में पहला लेख संभवतः अजित जी का था जो उन्होंने दिनमान में लिखा था। संचयन में बच्चन जी पर उनके संस्मरण से उनके निकट के संबंधों के बारे में जाना जा सकता है।

करीब 35-40 साल पहले ‘दूर वन में’ किताब आई थी जिसके संस्मरणों ने मुझे भी अजीत जी का मुरीद   बना दिया था। उन दिनों अजित जी के मॉडल टाउन स्थित घर जानेवालों लोगों में मैं भी शामिल था। एक छात्र के रूप में उनसे बहुत कुछ जानने को अवसर मिला था। उनकी कवयित्री पत्नी स्नेहमई चौधरी की कविताओं पर पहला लेख लिखने का सौभाग्य भी मुझे मिला। उन दोनों के व्यवहार में एक विनम्रता और सहजता रही जबकि उनके अनेक समकालीनों में एक तरह का रूखापन, अहंकार और दंभ भी देखने को मिला। अजित जी ने भी ऐसे लेखकों की तरफ इशारा किया है।

पल्लव ने इस संचयन में उनकी महत्वपूर्ण कविताओं और लेखों एवं आलोचनात्मक निबंधों को शामिल कर इसे गागर में सागर भर दिया है।

अजित जी की औरतों पर कई कविताएं भी हैं। इनमे ‘आठ औरतें’ शीर्षक श्रृंखला से उनकी चार ऐसी कविताएं हैं जो स्त्री को नए कोण से देखती हैं। इसमें स्त्री की अनेक छवियां हैं और आठ केवल संख्या सूचक नहीं बल्कि एक रूपक भी है। स्त्री पुरुष के संबंधों पर ऐसी कविता हिंदी में शायद नहीं है जिसमें स्त्री के आठ रूपों को चित्रित किया गया है। यह एक प्रेम कविता है जिसमे अनेक रंग समाहित है। आज। स्त्री विमर्श के दौर में इस कविता पर बात होनी चाहिए। ये आठ रूप क्या हैं?

इनमें से एक कविता यह प्रस्तुत है जिसे पढ़कर पाठक जानना चाहेंगे आखिर हिंदी कविता में अजितकुमार की आठ औरतें कौन हैं?

आठ औरतें

जिनमें से एक ने प्रेम किया मुझसे

ज्यों बूंदों ने धरती से

दूसरों ने घृणा जतलाई

जैसे बलिपशु ने बधिक से!

अंतरतम से अद्भुत भावनाएं!

तीसरी ने मान दिया मुझे

जैसे सुरभि ने पवन को

थी ने तन देना चाहा

उर्वशी ने अर्जुन को ज्यों!

भक्ति आशक्ति के परस्पर विरोधी अनुभव!

पांचवी ने मुझ पर सर्वस्य वार दिया

ज्यों शेफाली करती समर्पण हर सुबह

और छठी ने मेरा सर्वस्व लेना चाहा

वामन ने बलि का जैसे!

मानव विकारों के अद्भुत उदाहरण!

सातवीं उमड़ी मुझ तक

चांद के प्रति लहरों के आवेग की भांति आठवीं हटी मुझसे

पाप जैसे मंदिर से :

जीवन के ‘पल पल परिवर्तित’ व्यवहार!

बदला मैं जुड़ा

जुड़ा और टूटा भी

मिला और छूटा भी

उठा और गिरा

कभी मुक्त कभी घिरा रहा

उन सब के कारण!

और वह सब की सब _

आठों, दसों या बीसों!

केवल एक तुम थीं।

इस किताब का नाम अंजुरी भर फूल जरूर है पर इसमें केवल एक ही फूल नहीं बल्कि अनेक फूल है जिनकी अलग अलग गंध है। अजित जी के लिए साहित्य हमेशा अनेक गंधों वाला फूल रहा है। वे अकेले कंठ की पुकार थे जिन्हे कम सुना गया।


अंजुरी भर फूल (अजित कुमार रचना संचयन) : संपादक-पल्लव। मूल्य : 1200 (हार्डबाउंड)। प्रकाशक : सेतु प्रकाशन


विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com


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