प्रेम से बाहर न समय था ना कोई दुनिया

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(सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी: सारंग उपाध्याय)

जीतेश्वरी

इक्कीसवीं शताब्दी के इस भयावह दौर में जब हमारे देश ने अपनी गंगा-जमुनी तहजीब को पूरी तरह से भूला दिया है, धर्म और मजहब के नाम पर जब खून के छींटे हर जगह दिखाई दे रहे हैं ऐसे अंधेरे और भयावह समय में युवा पत्रकार, लेखक सारंग उपाध्याय का उपन्यास ’सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ आपसी प्रेम-मोहब्बत की तहजीब को जो इस देश की रूह में समाहित थी उसे फिर से स्थापित करने की कोशिश करता हुआ दिखाई देता है।

इस उपन्यास को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है कि यह हमारे स्याह समय में एक ऐसी रोशनी की तरह है जो भविष्य की उम्मीद से भरी हुई है। लाख हताशा और निराशा के बाद भी सायरा और राघव जैसे जीवंत पात्र धर्म और मजहब के इस स्याह अंधेरे को चुनौती देते रहेंगे।

’सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित सारंग उपाध्याय का पहला उपन्यास है। ’सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ अपने कथ्य, शिल्प, बुनावट और भाषा में एक अलग तरह का उपन्यास है। यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होने के पूर्व ही हिंदी की सुप्रसिध्द पत्रिका ’तद्भव’ में प्रकाशित होकर प्रशंसित हो चुका है।

सारंग उपाध्याय ने ’सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ की कथा को ग्यारह किस्सों में विभक्त किया है और हर अध्याय की शुरूआत एक सुदंर कविता से की है जो हर किस्से में वर्णित आख्यान के दास्तान को प्रतिबिंबित करती है।

इस उपन्यास का आरंभ मुंबई के मछुआरों की बस्ती वर्सोवा से होती है। वर्सोवा में मछुआरों की एक ऐसी दुनिया है जिस दुनिया की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मछुआरों को दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए समुद्र के लहरों के साथ समुद्री तुफान से भी लड़ना पड़ता है, तब कहीं जाकर उन्हें दो वक्त की रोटी मयस्सर हो पाती है। मछुआरों के जीवन में समुद्र से मछली पकड़ना और उसे बेचकर किसी तरह अपना

गुजर-बसर करना बस यही उनकी छोटी सी दुनिया है। इस उपन्यास में लेखक मुंबई के मछुआरों के जीवन में घटित होने वाली हर बारीक से बारीक चीजों को इस तरह से दर्ज करते चले जाते हैं जैसे वे स्वयं मछुआरों की बस्ती में रहते हुए मछुआरों के जीवन संघर्ष का एक नया और प्रामाणिक इतिहास लिख रहे हों।

मेरी दृष्टि में यह उपन्यास कई अर्थों में मुंबई का एक ऐसा अनजाना और अनदेखा इतिहास है जिसके ग्यारह किस्से हैं और हर किस्से में मछुआरों की अलग-अलग दुनिया, उनके संघर्ष के अलग-अलग रंग शामिल हैं। लेकिन केवल इतना ही नहीं है इसमें मुबंई का वह भूगोल और इतिहास भी है जिसके बिना मुबंई, मुंबई नहीं है। इसमें 1993 का वह मुबंई भी है जो बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद दंगों की आग में सुलग उठा था और वह मुबंई भी है जिसके सीने पर सन 2006 का बम ब्लास्ट भी कहीं दफ्न है। यही नहीं बल्कि इस उपन्यास में सायरा और राघव के प्रेम का यह एक ऐसा चटकीला रंग भी है जो अन्य उपन्यासों में दुर्लभ है। इस चटकीले रंग के साथ ही एक धूसर रंग भी है जो हमें उदास और विचलित करता है।

वर्सोवा मुंबई के सबसे चमकते इलाके अंधेरी के सबसे अंधेरे इलाके में बसी हुई एक ऐसी बस्ती है जहां रहने वाले अनगिनत मछुआरों की जिंदगी अंधेरे में ही शुरू होती है और अंधेरे में ही खत्म हो जाती है। उपन्यास के प्रमुख पात्रों में जालना आलम मोहम्मद खां और उनकी पत्नी अरफाना है। जालना और अरफाना की जवान बेटी सायरा इस उपन्यास की प्रमुख केन्द्रीय पात्र हैं, जिसके इर्द-गिर्द इस उपन्यास का पूरा ताना-बाना रचा गया है। सायरा के हिस्से में रोशनी कम और अंधेरा ज्यादा है। इसी रोशनी और अंधेरे में पलकर सायरा जवान होती है।

इस उपन्यास के पूरे घटनाक्रम का सबसे बड़ा गवाह समुद्र है, जिसने जालना के परिवार को टूटते-बिखरते हुए तथा जालना और अरफाना के इश्क को बेहद करीब से देखा और जाना है। जालना समुद्र से मछली पकड़ने के हर चाल को जानता है वैसे ही समुद्र भी जालना के हर नीयत को समझता है। जैसे-जैसे सायरा बड़ी होती जाती है वह भी मछली पकड़ने के काम में अपने अब्बू का हाथ बंटाने लगती है और इस तरह अब जालना और सायरा दोनों मिलकर घर की पूरी जिम्मेदारी संभालते हैं।

इस उपन्यास में 6 दिसंबर 1992 का भी शिद्दत से जिक्र किया गया है। इसी दौर में सायरा के अब्बू जालना एक दूसरी औरत आशमा से निकाह कर लेते हैं। सारंग उपाध्याय ने अपने इस उपन्यास में इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इधर जालना का परिवार टूटने को था और उधर देश भी टूट रहा था। सन 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दिया गया और यह वही दौर था जब पूरा देश एक दूसरे को नफरत भरी निगाह से देख रहा था।

उपन्यास की नायिका सायरा और नायक रघु प्रसाद यादव उर्फ राघव जो अभी महज कुछ ही महीने पहले एक दूसरे के करीब आए थे, जिनकी प्रेम कहानी की कलियां बस खिलने-खिलने को थी, वह 2006 में मुबंई में हुए बम धमाकों के कारण सदा-सदा के लिए मुरझा गई। इस उपन्यास में सायरा और राघव की प्रेम कहानी की शुरूआत भी लेखक ने एक अलहदा अलग अंदाज में किया है जो लेखक का अपना अंदाज है।

राघव हिंदू था सायरा मुस्लिम लेकिन दोनों ने कभी एक-दूसरे के धर्म को अपने प्रेम के बीच नहीं आने दिया। सायरा मुस्लिम लड़की होने के बाद भी राघव के अच्छे व्यवहार के कारण उसे पसंद करने लगी थी।

सायरा और राघव के प्रेम को सायरा की मां अरफाना ने भी अपनी मंजूरी दे थी और कुछ ही दिनों बाद सायरा और राघव विवाह के बंधन में बंधने ही वाले थे तभी 2006 में मुबंई में वह त्रासद घटना घटी जिसने सायरा और राघव के सपनों को कुचल कर रख दिया। यह केवल सायरा और राघव के साथ ही घटित नहीं हुआ था बल्कि मुबंई के अनेक लोग इसके गिरफ्त में थे।

मुबंई में मार्च 1993 के बाद 11 जुलाई 2006 की तारीख अब एक त्रासद इतिहास बन चुका है। इसी तारीख को मुबंई ब्लास्ट में सायरा की मां अरफाना की जिंदगी पूरी तरह खत्म हो गई थी और यही नहीं सायरा और राघव की जिंदगी की रोशनी भी उसी तारीख को बुझ गई। अच्छा खासा ऑटो रिक्शा चलाने वाला राघव इस बम ब्लास्ट में अपाहिज हो गया था। भारत की आर्थिक राजधानी में हुई इस भयानक त्रासदी को आज भले ही कोई याद नहीं करता हो, लेकिन सारंग उपाध्याय ने मुबंई में हुए इस त्रासद घटना को उसकी पूरी विदू्रपता के साथ अपने इस उपन्यास में दर्ज करने का साहस दिखाया है।

लेखक ने ’सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ में मुंबई के एक ऐसे मछुआरा परिवार की कहानी को अपने उपन्यास का आधार बनाया है जिसने मोहब्बत भी की और मुबंई के दंगे भी देखे। यह एक ऐसे निम्न वर्गीय मजदूर मछुआरा परिवार के प्रेम की दास्तान है जिसे लेखक ने अपनी अद्भुत कथा शैली में विन्यस्त किया है। इस उपन्यास में वर्णित कथा की यह सबसे बड़ी शक्ति है कि लेखक ने तमाम मुसीबतों के बाद भी सायरा और राघव के माध्यम से दुनिया में प्रेम को बचाए रखने की हर संभव कोशिश की हैं।

लेखक ने मछुआरों के जीवन और अपने देश की उस अनमोल विरासत को अपने इस उपन्यास में जिस तरह से चित्रित किया है वह बेहद मानीखेज और आश्चर्यचकित करने वाला है।

इस उपन्यास की भाषा भी कोई कम लाजवाब नहीं है। इसमें मुंबई की मुंबईया भाषा से लेकर, अंग्रेजी और शानदार मराठी भी शामिल है। साथ ही इस उपन्यास

में उर्दू भी कोई कम जादू नहीं करती है। यह उपन्यास अपने विषयवस्तु और शिल्प में जितना बेजोड़ है उतनी ही भाषा की दृष्टि से एक सुदंर और मार्मिक गल्प भी है।

इस उपन्यास में लेखक की सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थापना यह है कि प्रेम ही दुनिया से नफरत को खत्म कर सकता है और एक ऐसी सुंदर दुनिया का निर्माण कर सकता है जहां धर्म और मजहब नहीं सिर्फ प्रेम और मोहब्बत ही सर्वोपरि होगा।

सारंग उपाध्याय के इस उपन्यास की बहुत चर्चा होनी चाहिए और होगी भी, क्योंकि उनका यह उपन्यास ’सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ अपने अद्भुत कथ्य और बेजोड़ शिल्प में हिंदी का एक अद्भुत उपन्यास है।

सांरग उपाध्याय के उपन्यास ’सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ के विषय यह भी निःसंदेह ही कहा जा सकता है कि यह उपन्यास प्रेम और मनुष्य के पक्ष में खड़ा होने वाला अपने समय का सबसे असाधारण उपन्यास होने का दर्जा रखता है।


सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी : सांरग उपाध्याय (उपन्यास), मू. 250 (पेपरबैक), प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।  


जीतेश्वरी : आलोचना और कविता के क्षेत्र में उभरता नाम। जन सरोकार से जुड़े सम-सामयिक मुद्दों पर लगातार लेखन। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन-प्रकाशन। रायपुर में निवास।


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