श्रीधर नांदेड़कर की कविताएं
ओम निश्चल
यह संयोग ही था कि पिछले विश्व पुस्तक मेले में श्रीधर नांदेड़कर का कविता संग्रह जमीन और पानी के दरमियान का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ और उसके थोड़े ही दिनों बाद उन्हें साहित्य अकादमी के मंच पर सुनने का अवसर मिला। यह सौभाग्य की बात है कि मराठी और हिंदी में जो पारस्परिकता है, वह बीते कुछ दशकों में निरंतर सघन हुई है। मराठी की दलित कविता की साहसिक छाया हिंदी पर पड़ी तो हिंदी कवियों की प्रगतिशीलता की छाप ने मराठी कवियों को बहुत प्रभावित किया। कहना न होगा कि हिंदी में अनेक भारतीय भाषाओं के अनुवादों की उपलब्धता के चलते जिस तरह की भाषिक गतिविधियां प्रबल और सबल हुई हैं उनकी अर्थछायाऍं हिंदी को नए रूपकों, बिम्बों और अर्थछायाओं से भर रही हैं। इसके लिए न केवल मराठी कविता के तापमान को जानना जरूरी है बल्कि हिंदी कविता में ऐसी अंतरध्वनियों को समेटने सहेजने का काम करने वाली सुनीता डागा के प्रयासों की सराहना करनी भी जरूरी है।
जमीन और पानी के दरमियान की कविताएं इस बात का परिचायक हैं कि इसकी एक कविता’ ‘एक वृद्ध पंछी’ के माध्यम से भी एक ऐसी करुणा का सृजन किया जा सकता है जोकि कभी-कभी हमारे भीतर उद्वेलन पैदा करती है। अचरज नहीं कि नदी के बिंब श्रीधर में बहुत देखने को मिलते हैं। नदी इंसान के सुख-दुख की संगिनी है। बचपन से लेकर आखिरी डुबकी तक नदी जैसे मानवीय जीवन के साथ साथ चलती है। उससे अपनापा व्यक्त करते हुए कवि जिस तरह कृतज्ञताओं से आह्लादित होता है और संकल्प और प्रतिश्रुतियों की याद करता है, वह नदी से मनुहार की एक नई भाषा है कि तुम्हारे भीतर कितनी डुबकियां लगाई हैं, तुम्हारी गोद में पिता ने आखिरी नींद ली है, उनकी राख तुम्हारे भीतर ही विलीन है, मैं तुम्हारा आंचल सुहागन की तरह शगुन से भर दूंगा। इसलिए अपना रोष त्याग दो नदी मां / किनारों पर बसे लोग और घोसले उजड़ जाएं।
एक दूसरी कविता ‘नदी किनारे भटकते लोग’ भी ध्यातव्य है जहां लोग नदी के किनारे भटकते देखे जाते हैं। जैसे वही उनकी समस्याओं की और इस दुनियावी पीड़ा से उबरने की निष्कृति हो।
श्रीधर की कविताओं के भीतर भी एक ऐसी नदी प्रवाहित है जिसमें कभी कुछ तरंगे लहराती हैं। कभी धीर प्रशांत बहती हुई जीवन के तमाम दुख और अवसाद समेटती हुई। इसी तरह उनकी कविताओं के भीतर के प्रवाह में सुख-दुख, अवसाद, महत्व, राग और विराग का सौंदर्य समाहित है— एक ऐसी गैरिक बसना आभा भी उसके भीतर है जो प्रेम से मिलकर पुंजीभूत हुई है। जब हम ‘ आग की आंच नहीं लगने दूंगा’ जैसी कविता पढ़ते हैं तो हम देखते हैं, प्रेम की दुनिया अपनी भाषा में बिल्कुल नई और अनूठी होकर सामने आई है। जब कवि कहता है तुम्हारी आंखों की गहराई में छटपटाती मछली सा मैं हमेशा पीठ फेर कर रह लूंगा/ तुम्हारी आंखों के पानी को नहीं लगने दूंगा/ मेरे भीतर की आग की आंच/ तुम निस्संदेह होकर संभालना गझिन दरख्तों से घिरे तुम्हारे और केवल तुम्हारे गहरे सरोवर को / मैं नहीं झरूंगा / पेड़ का सूखा पत्ता बनकर/ पुष्प बनकर नहीं खिलूंगा/ मछली बनकर नहीं सरसराऊँगा (पृष्ठ 85)। वह प्रकृति के निकट जाकर जितना अभिभूत होता है उसे यह कह कर संतोष पाता है कि यह तुमने जो दिया उसके प्रति कृतज्ञ हूं। एक कृतज्ञता सी कविताओं में फैली हुई है तो कभी-कभी कवि जीवन और मृत्यु को एक दार्शनिक चिंतन की तरफ भी देखता है जब वह कहता है,
कितना भयावह है
समय और जीवन का रेला
और कितनी दूर है मौत की गुफा
यह प्रदीर्घ यात्रा जब तक रूकती नहीं है/
इसी प्रदेश के दरख्तों के नीचे
सुस्ताने दो
मेरे थके हुए
अवांछित कदमों को (पृष्ठ 91)
श्रीधर नांदेड़कर की ये कविताएं प्रेम, करुणा, मानवीयता, आशा-निराशा, चिंतन और दर्शन के रसायन में डूबी हुई दिखती हैं। आखिरी की कुछ कविताओं में तोता कविता पढ़ते हुए तोते का कंठ जैसे हमारे सम्मुख खुल खुल जाता है। कैसे वह अपनी ओर से कृतज्ञता से भरा हुआ है और उन सब चीजों को याद करता है जिस तरह की दिनचर्यायों में डूब कर उसने अपना जीवन धन्य किया है। वह कहता है :
मैं कूद फांद नहीं सकता हूं
अब इस आत्मीय रिश्ते की गझिन टहनी से
मेरे पंख अब दर्द करते हैं
आपके रखे साफ पानी के बर्तन पर झुकते हुए
अपनी प्रतिमा को निहारते हुए
मैं कभी भी मिट कर गिर सकता हूं
मेरे पंखों पर चढ़ चुकी है लाल पीली झाईं
एक छोटा सा चक्कर काटते हुए
मुझे हल्के से गिर जाने दो
विलीन हो जाने दो
आपके आंगन की मिट्टी में
किसी समय की इस हरी धुगधुगी को। (पृष्ठ 163)
यह वह स्थिति है जब तोते का पिंजरा खोल कर रखा जाता है कि आखिर कहां जाएगा अब और वह है कि अब उड़ाने ही नहीं भर सकता। जीवन इन्हीं आत्मीयताओं और कृतज्ञताओं का नाम है जिसमें इंसान के साथ कितनी प्राणि प्रजातियां अपने सह अस्तित्व के साथ जी रही हैं और यही कवि की कविता कुशलता भी है कि वह मानवीय मूल्यों और मानवीय हार्दिकताओं के साथ उनकी अनुभूतियों को कैसे आवाज देता है, कैसे उन्हें कविता की एक कोमल इकाई में बदलता है। श्रीधर की इन कविताओं से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि हम भाषा की किन्हीं नई वीथियोंसे गुजर रहे हैं — जहां तोता है, जहां उल्लू है, नदी की तेज धार, है जीवन और मृत्यु के तोलन बिंदु हैं, सहयात्राएं हैं, विस्मरण है, कविता के भीतर की चट्टान पर रखा सिर है, कब्र पर परिंदों का झुंड है, वायलिन के गले की दहाड़ है, हिलती कब्र पर खड़ा एक अकेला घर है, हमारे जीवन में रिश्तों के गझिन अरण्य में जुगनू जितना उजास है और जमीन और पानी के दरमियान कभी न खत्म होने वाली कहानी की तरह प्रेम को कितने सारे दृश्यों को कविताओं में समेट रखा है श्रीधर ने, जिनके सर्जनात्मक एकांत में हमें कटे पेड़ की चीख अंतिम सांस तक सुनाई देती रहती हैं। मौत की बैलगाड़ी में बैठी बुढ़िया पढ़ते हुए मौत की ट्रेन में निंदिया जैसी अशोक वाजपेयी की कविता याद आ जाती है। किस तरह से निरलंकृत सादगी के साथ कविता अपने पारदर्शी हृदय के साथ हमारे सम्मुख आ खड़ी होती है और तब हमारे भीतर जैसे कुछ बजने लगता है
कविता सुनो दोस्त
शीशे को तोड़ दो
और मेरे गले लग जाओ (पृष्ठ 67)
एक सिफत तो इन कविताओं में है कि यह मराठी कवि की अभिव्यक्ति होते हुए भी हिंदी में अनूदित होने के बावजूद हिंदी के आस्वाद में अभिवृद्धि करती हुई लगती है। कहीं भी सपाट और सतही न होते हुए जीवन को बहुत निकट और गहराई से देखने के लिए शिद्दत से हाथ बढ़ाती कविता के पाठ में एक तरह की समरसता है , आस्वाद्य बिम्बों का पुण्य है और भाषा की कोर से बांध लेने वाली कोमलता जो हिंदी में विरल है। अरुण कमल ने कविताओं की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा है और मराठी कविता की उज्जवल परंपरा को याद करते हुए इस श्रृंखला में श्रीधर के योगदान को गर्व के साथ स्मरण किया है। मुझे सुनीता डागा जैसी अभ्यस्त अनुवादक और शुद्ध कवयित्री की प्रज्ञा से उद्भूत ये काव्यानुवाद सृजन की अंतः यात्राओं की तरह मोहक लगते हैं। हालांकि किसी भी भाषा की बनावट, उसकी गहराई, उसकी संवेदना, उसकी व्याप्ति को पूरी तरह अनुवाद में नहीं उतारा जा सकता है, फिर भी उन्होंने अत्यंत न्याय पूर्वक मराठी कविता के विन्यास को जैसे हिंदी के सुघर कलेवर में जीवंत कर दिया है। आज के मराठी कविता के नायक और उन्नायक कवि श्रीधर नांदेड़कर के साथ सुनीता डागा को भी इन कविताओं के प्राणवान अनुवाद के लिए बहुत-बहुत बधाई।
ज़मीन और पानी के दरमियान। कविता संग्रह श्रीधर नांदेड़कर, अनुवाद : सुनीता डागा, सेतु प्रकाशन, नोएडा, संस्करण 2023, मूल्य 299 रुपये।
लेखक डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक, कवि एवं भाषाविद हैं. इनकी शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, भाषा में बह आई फूल मालाऍं:युवा कविता के कुछ रूपाकार व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों ‘अन्वय’ एवं ‘अन्विति’ सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. युवा कवियों पर लगातार लिखने का श्रेय उन्हें जाता है. हिंदी अकादमी के युवा कविता पुरस्कार, आलोचना के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब के शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं. मोबाइल 9810042770, मेलः dromnishchal@gmail.com