पठनीय और विचारणीय उपन्यास: रूदादे-सफ़र

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डॉ. सीमा शर्मा

पंकज सुबीर वर्तमान साहित्य जगत् में एक सुपरिचित नाम हैं और अपनी किसी-न-किसी रचना, कभी उपन्यास तो कभी कहानी के कारण चर्चा में बने रहते हैं। इन दिनों अपने नवीनतम प्रकाशित उपन्यास ‘रूदादे-सफ़र’ को लेकर चर्चा में हैं। उपन्यास ‘रूदादे-सफ़र’ का दूसरा संस्करण मेरे पास है। यह अलग बात है कि इसका तीसरा संस्करण भी अब प्रकाशित हो चुका है। ‘रूदादे-सफ़र’ एक अनूठा उपन्यास है, इसे किसी एक विषय पर केंद्रित मानकर देखना उचित नहीं है, क्योंकि यह एकांगी लेखन नहीं है, इसमें कई परतें हैं जो समाज को बहुत सूक्ष्मता से देखती हैं। छोटे-छोटे प्रकरणों के द्वारा लेखक ने समाज की उन समस्याओं पर विचार किया है, जिन पर आज बात करना बहुत आवश्यक है। इसमें यदि हम देखें तो परिवार की सुरक्षा, परिवार की बुनावट, समाज और परिवार के अंत:संबंध परिवार और परिजनों के बीच व्यवहार जैसे कई महत्त्वपूर्ण विषय इस उपन्यास में उभर कर सामने आते हैं।

ऊपर से जब हम इस उपन्यास को देखते हैं, तो हमें यहाँ दो विषय प्रमुखता से दिखाई देते हैं, एक एनाटॉमी विभाग, उसकी कार्यप्रणाली तथा पिता और पुत्री के भावनात्मक संबंधों का बहुत मार्मिक वर्णन। इन्हीं दोनों बिंदुओं पर इस उपन्यास की सर्वाधिक चर्चा भी की जा रही है। निःसंदेह यह सत्य भी है किन्तु मैंने जब इसे पढ़ा तो इन विषयों से इतर बहुत कुछ ऐसा दिखाई दिया, जिस पर बात की जानी चाहिए।

चिकित्सा के एक बड़े विभाग ‘एनाटॉमी’ का लेखक ने बहुत सूक्ष्म और शोधपरक चित्रण किया है। यह विशेषता पंकज सुबीर की लगभग सभी रचनाओं में देखने को मिलती है फिर चाहे ‘अकाल में उत्सव’ हो या ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ या ‘रूदादे-सफ़र’। लेखक की शोधवृत्ति रचनाओं की विश्वसनीयता को बढ़ा देती है, जिससे उनकी पठनीयता में वृद्धि स्वाभाविक है। ‘एनाटॉमी’ ऐसा क्षेत्र है जिस पर समस्त चिकित्सा व्यवस्था निर्भर करती है। यदि ‘एनाटॉमी विभाग’ न हो तो कुशल चिकित्सकों का निर्माण सम्भव नहीं है किन्तु यह ऐसा विषय है कि इसको लेकर युवाओं में वैसा आकर्षण नहीं दिखाई देता जैसा कि अन्य चिकित्सकीय विशेषज्ञताओं को लेकर है। इसके कई अलग-अलग कारण हो सकते हैं।

समीक्ष्य उपन्यास हिंदी पाठक के शब्दकोश और ज्ञान के दायरे को कुछ और समृद्ध कर जाता है। जैसे- कैडेवर, एम्बाल्मिंग (शवलेपन अर्थात विज्ञान की सहायता से मानव अवशेषों के संरक्षण करने की कला) एम्बाल्मिंग फ्ल्यूड, स्कैलपल (सर्जिकल ब्लेड), डिसेक्शन आदि कई ऐसे शब्द और चिकित्सकीय प्रक्रियाओं से जुड़ी तकनीकी शब्दावली जिनकी आवश्यकता उसे अपने जीवन में सामान्यतः नहीं होती किन्तु उसे यह जानकारी विस्मित करती है। एनाटॉमी विभाग की कार्यप्रणाली का बहुत सूक्ष्म चित्रांकन लेखक ने किया है। उपन्यास की प्रथम पंक्ति देखिए- “मैम, डिसेक्शन-रूम में एक लड़की बेहोश हो गई।” यह प्रथम वाक्य एनाटॉमी विभाग का प्रवेश द्वार है। इसके बाद इस विभाग का ऐसा सजीव चित्रण है कि पाठक इसे किसी चलचित्र की तरह अनुभूत करता है। वहाँ की अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया, कैडेवर की आवश्यकता और उसका संरक्षण, मृत शरीर को सम्मान के साथ देखने का भाव, देहदान की प्रक्रिया, इस प्रक्रिया में आने वाली जटिलताएँ, प्रशिक्षु चिकित्सकों की प्रतिक्रियाएँ, दधीचि पथ और ‘साइटस इनवर्सस’ जैसी जानकारियाँ। डॉ. अर्चना भार्गव जैसे पाठक के लिए भी शिक्षक बन जाती हैं और उनके संवादों के द्वारा पाठक भी बहुत कुछ सीख जाता है। यह इस उपन्यास की एक उपलब्धि है।

समीक्ष्य उपन्यास में चिकित्सा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी लेखक ने परत-दर-परत उजागर किया है और भविष्य में संभावित वृद्धि पर ‘अस्पताल कसाईखानों में बदल जायेंगे’ कह कर यह भी संकेत किया किया कि इस भ्रष्टाचार का अंत निकट भविष्य में तो नहीं दिखाई देता है। लेखक नैराश्य में जाकर पलायन के मार्ग को उचित नहीं मानता बल्कि उससे जूझने की बात करता है- ‘भागने से कुछ  होने वाला, भागने से तो हालात और ख़राब हो जायेंगे, हमें उपस्थित रहकर बदलने की कोशिश करनी है। बदलने के लिए उपस्थित रहना सबसे आवश्यक है, पलायन किसी समस्या का हल नहीं है।” डॉ. राम भार्गव और डॉ. अर्चना भार्गव के द्वारा लेखक ने इस संघर्ष को जीवित रखने का प्रयास किया है। उपन्यास के इन दोनों प्रमुख पात्रों में यह संघर्ष उनके सम्पूर्ण जीवन में परिलक्षित होता है। ये दोनों अपना सम्पूर्ण जीवन सही अर्थ में संघर्षरत बने रहते हैं।

पंकज सुबीर के इस उपन्यास को केवल देहदान और पिता पुत्री के संबंधों तक सीमित करना उचित नहीं होगा क्योंकि इस उपन्यास का विस्तार इससे कहीं अधिक है। इसे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर ‘केस स्टडी’ की तरह भी देखा जा सकता है। वर्तमान सामाजिक ढाँचा तीव्रता के साथ परिवर्तित हो रहा है। हम सभी भौतिकता की दौड़ में बहुत तेज़ गति से दौड़ रहे हैं और इस दौड़ में वही हमसे छूटता जा रहा है जिसकी चाह में हैं, अर्थात् मानसिक शांति, प्रसन्नता और सुख अनुभूति क्योंकि इसका कोई तय फार्मूला नहीं है। केवल भौतिक दौड़ से तो यह बिलकुल भी सम्भव नहीं है। इस दौड़ में पारिवारिक विघटन एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है और यह समस्या अभी और बढ़ेगी ऐसा मुझे लगता है ।

पंकज सुबीर के इस उपन्यास को केवल देहदान और पिता पुत्री के संबंधों तक सीमित करना उचित नहीं होगा क्योंकि इस उपन्यास का विस्तार इससे कहीं अधिक है। इसे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर ‘केस स्टडी’ की तरह भी देखा जा सकता है। वर्तमान सामाजिक ढाँचा तीव्रता के साथ परिवर्तित हो रहा है। हम सभी भौतिकता की दौड़ में बहुत तेज़ गति से दौड़ रहे हैं और इस दौड़ में वही हमसे छूटता जा रहा है जिसकी चाह में हैं, अर्थात् मानसिक शांति, प्रसन्नता और सुख अनुभूति क्योंकि इसका कोई तय फार्मूला नहीं है। केवल भौतिक दौड़ से तो यह बिलकुल भी सम्भव नहीं है। इस दौड़ में पारिवारिक विघटन एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है और यह समस्या अभी और बढ़ेगी ऐसा मुझे लगता है ।

लेखक के लिए भी यह विषय विचारणीय है और उसकी संवेदना इससे जुड़ी है। ‘रूदादे-सफ़र’ की कथा में कहीं माता-पिता के अलग होने की कथा नहीं आती, फिर भी लेखक ने डॉ. अर्चना के माध्यम से प्रश्न किया है- “पापा मैं कभी-कभी सोचती हूँ कि अगर आपको और मम्मी को जोड़ने वाला यह एक तार नहीं होता, तो क्या होता? अगर आप और मम्मी किसी मोड़ पर एक दूसरे से अलग गए होते? उसके आगे का सफ़र कैसा होगा? मैं वैसी ही होती क्या जैसी आज हूँ? एक बेटी के लिए सबसे डरावना सपना क्या होता है? यह कि किसी दिन वह सोकर उठी तो घर में नहीं, किसी जंगल में है। उसके माँ और पिता उसे छोड़कर अलग-अलग दिशाओं में चले गए। अब वो जहाँ है वहाँ आसपास एक भी परिचित चेहरा नहीं है, अनजान अपरिचित चेहरों से घिरी हुई वह बैठी हुई रो रही है। अचानक उठकर भागना शुरू कर देती  है, भागती जाती है, भागती जाती है। चीख-चीख कर रोती हुई बस भागती ही जाती है।”

यह सपना केवल किसी लड़की के लिए डरावना नहीं है बल्कि लड़कों के लिए भी उतना ही डरावना है। मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘आपका बंटी’ को एक उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। एक बालक की असुरक्षा के भाव को साकार कर लेखक समाज को जैसे कांता सम्मित उपदेश देते हुए वैचारिक स्तर पर परिष्कार करता चलता है- “माँ और पिता का अलगाव कभी नहीं चाहिए… कभी नहीं होना चाहिए…।” इसके साथ ही लेखक वैचारिक भिन्नता को पति-पत्नी के अलगाव के कारण के रूप में नहीं देखता- “विचार अलग हों पर मन के तार जुड़े रहें, तो साथ बना रहता है, ज़रूरी नहीं कि विपरीत विचार वालों के बीच रिश्ता हो ही नहीं सकता।”

डॉ. राम भार्गव उनकी पत्नी पुष्पा और इन दोनों की बेटी डॉ. अर्चना भार्गव, ये तीन चरित्र ऐसे हैं जो समीक्ष्य उपन्यास के प्रतिनिधि पात्र हैं जो सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर घटित व्यवहार को उजागर करने का माध्यम बनते हैं। कथा मूलतः इन्हीं की है। कहानी को आगे बढ़ाने में कई और महत्त्वपूर्ण पात्र आते हैं जिनमें डॉ. रेहाना और कलेक्टर प्रवीण गर्ग आदि के नाम लिए जा सकते हैं। ये ऐसे पात्र हैं जो कहानी को नीरस और बोझिल नहीं बनने देते और पाठकों के मन में कई संभावनाओं को बनाए रखते हैं। इनके माध्यम से पाठकों की कल्पना को भी एक उड़ान मिलती है तथा वह कई संभावनाएँ खोजने लगता है। यह अलग बात है कि उपन्यास का अंत उसकी कल्पनाओं से नितांत भिन्न तरीक़े से घटित होता है। अंत इतना स्तब्धकारी है कि उसकी समस्त कल्पनाएँ धरी की धरी रह जाती हैं। वह भौंचक्का सा देखता रह जाता है, जो हुआ उसकी तो उसने कल्पना भी नहीं की थी। 

इस विशिष्टता के साथ-साथ समीक्ष्य उपन्यास में पिता-पुत्री के संबंधों की एक अनोखी कथा है जिसे लेखक ने बहुत गहन, सूक्ष्म और भावात्मक स्तर पर बुना है। पिता और पुत्री के रिश्ते की गहनता को शब्दों की सीमा में समेटना कठिन है; यह भावनात्मक संबंध है। लेखक ने इसे उसी भावनात्मक आत्मीयता, स्नेह और संतुलन के साथ रचा है। डॉ. राम भार्गव अपनी पुत्री के साथ जिस तरह आत्मीय व्यवहार रखते हैं जहाँ स्नेह है, वैचारिक खुलापन है, किसी तरह का कोई प्रतिबंध भी नहीं है फिर भी उसके जीवन को सही दिशा देने का कार्य वे बड़ी कुशलता के साथ करते हैं। डॉ. राम भार्गव एक ऐसे पात्र के रूप में उभर कर आता है जो अनायास ही ‘पेरेंटिंग’ सिखाता सा जान पड़ता है। यहाँ मुझे नेल्सन मंडेला का एक कथन याद आता है, जब वे कहते हैं- “किसी समाज की सबसे अच्छी पहचान इसी से होती है कि वह अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करता है।”

इन दोनों पिता और पुत्री के बीच की कड़ी पुष्पा है, जो एक तुलादंड सी इन दोनों को संतुलित बनाए रखती है। ‘पुष्पा’ जैसा चरित्र गढ़ने के लिए अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता होती है क्योंकि तनिक संतुलन बिगड़ने पर यह चरित्र नकारात्मक बन सकता है। चिड़चिड़ा सा पात्र जो अधिकांश बातों में अपने पति से वैचारिक रूप से भिन्न है किंतु फिर भी वह एक महत्त्वपूर्ण पात्र है। उसकी खीज, चिड़चिड़ाहट कहीं भी उसे नकारात्मक चरित्र में नहीं बदलने पाती है। यह लेखक का कौशल है, अन्यथा बहुत सरलता से डॉ. राम भार्गव को महान् और डॉ. अर्चना की माँ पुष्पा को एक नकारात्मक पात्र के रूप में दिखाया जा सकता था, किंतु ऐसा नहीं होता। इसके पीछे लेखक की एक स्पष्ट दृष्टि है जो ऊपरी तह पर तो नहीं दिखाई देती, किंतु उपन्यास जब आगे बढ़ता है और परिवार के महत्त्व को लेखक रेखांकित करता है तब यह स्पष्ट होने लगता है कि दो विरोधी चरित्रों को इस कथानक का अंग क्यों बनाया गया है? ऊपर से जो कथा दिखाई देती है उसे बाहरी तौर पर देखें तो ‘एनाटॉमी विभाग’ और ‘पिता-पुत्री’ के मधुर संबंधों का भावात्मक चित्रण दिखाई देता है, पर जब कथानक की आंतरिक परतें खुलती हैं तो एक सूक्ष्म संश्लेषण की प्रक्रिया दिखाई देती है। पिता-पुत्री के मधुर संबंधों के बहाने तथा पति-पत्नी के हिचकोले खाते रिश्तों के माध्यम से परिवार व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की दृष्टि इसमें निहित है। वह इस उपन्यास का ऐसा सूत्र है, जो आदि से अंत तक बना रहता है। इस विशिष्टता के कारण यह उपन्यास बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाता है।

परिवार का महत्त्व युवा जोड़े संभवत: है उतना नहीं समझ सकते जितना एक लंबा जीवन जी चुके दंपत्ति या अलग रह रहे स्त्री और पुरुष समझ सकते हैं। जैसे डॉ. राम को उनकी पत्नी मृत्यु के बाद अनुभव होता है। कैसे उनकी पत्नी का चले जाना उनका अधूरा हो जाना है। जबकि वह वैचारिक रूप से उनसे पूर्णतया भिन्न थी। डॉ. राम भार्गव के शब्दों में यह भाव और भी स्पष्ट हो जाता है- ‘विचार अलग हों पर मन की तार जुड़े रहे हैं, तो साथ बना रहता है। ज़रूरी नहीं है कि विपरीत विचार वालों के बीच रिश्ता को ही नहीं सकता।”

साहित्य सृजन सोद्देश्य प्रक्रिया है और उद्देश्यपूर्ण साहित्य ही पाठक को प्रभावित करता है। इस संबंध में प्रेमचंद द्वारा कथित पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं जहाँ वह कहते हैं- “हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।” (प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य) इस दृष्टि से देखें तो पंकज सुबीर का उपन्यास ‘रूदादे-सफ़र’ पूर्णतः सोद्देश्य रचना है, जो पाठक के अंदर बेचैनी पैदा करती है उसे विचार के लिए विवश करती है। साथ ही यह भी स्थापित करती है कि हमारी प्रसन्नता और दुःख बाँटने के लिए हमें परिवार की आवश्यकता होती है। जीत पर सराहना और हार पर सांत्वना भी परिवार से ही प्राप्त होती है। अतः परिवार के साथ ही मनुष्य की पूर्णता है। छोटी-छोटी मत भिन्नताओं के कारण पारिवारिक विघटन बड़ी समस्या के रूप में समाज में उभर रहा है। इस विषय पर गंभीरता से विचार करना अत्यंत आवश्यक है।

वर्तमान समाज में अकेलापन भी उभरती हुई समस्या है। डॉ. अर्चना भार्गव भी उस अकेलेपन के साथ जीने को अभिशप्त है।  डॉ. रेहाना के शब्दों में इसे अनुभूत किए जा सकता है- “अप्पी, आपने अपने अंदर भी एम्बॉल्मिंग कर ली है। नसों में जो ज़िंदगी का रस था उसे पूरा ड्रेन कर दिया है और उसकी जगह अकेलेपन का फार्मेलीन भर लिया है। आपकी नसों में ज़िंदगी का रस नहीं बहता अब, अब वहाँ आपका अपना बनाया हुआ एम्बॉल्मिंग फ़्ल्यूड बहता है। आप ने उस दिन कहा था न अपने देहदान के बारे में, लेकिन आपने तो अपने को जीते जी ही कैडेवर बना लिया है।” इस समस्या के मूल में भी कहीं-न-कहीं परिवार का भाव है। लेखक ने इस विषय पर भी सार्थक टिप्पणी करते हुए इसके कारणों की और संकेत किया है- “हम अपने आस-पास, अलग-अलग दूरी के कुछ दायरे खींच देते हैं। सबसे अंदर के दायरे तक किसी को आने नहीं देते क्योंकि यहीं आकर कोई हमसे प्रश्न पूछ सकता है। इन दायरों के सबसे अंदर हम किसी नाभिक की तरह बैठे रहते हैं। भूल जाते हैं कि दायरे ही दूरियाँ उत्पन्न करते हैं और दूरियाँ ही हमें अंततः हमें एकाकी कर देती।”

डॉ. राम भार्गव और डॉ. रेहाना दोनों ऐसे पात्र हैं जो लेखक के विचारों के वाहक बनते हैं। उपन्यास के पूर्व भाग में डॉ. राम भार्गव इस दायित्व का निर्वाह करते हैं और पश्च भाग में विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषयों पर डॉ. रेहाना के संवादों के द्वारा यह कार्य सम्पादित किया जाता है। उदाहरण के रूप में- “अप्पी ज़िंदगी में एक्सक्यूज़ नहीं होते, जो कुछ भी हम कर रहे होते हैं उसके लिए हम ही ज़िम्मेदार होते हैं। कोई दूसरा उसके लिए जवाबदार नहीं होता। दुनिया तो वही है, जिसमें दूसरे सारे लोग रह रहे हैं और हज़ारों साल से रह रहे हैं। हमें अगर वही दुनिया रहने लायक़ नहीं लग रही, तो हमें अपने अंदर जरूर झाँकना चाहिए।”

पंकज सुबीर की लेखन शैली अद्भुत है। सरस-सरल और रुचिकर जहाँ वे गीत-ग़ज़लों का उपयोग खुलकर करते हैं। एक उदाहरण- “भूल जाता हूँ मैं सितम उसके, वो कुछ इस सादगी से मिलता है।” तथा “अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदादे-सफ़र, हम तो निकले थे कहीं और जाने के लिए……।”

पंकज सुबीर की लेखन शैली अद्भुत है। सरस-सरल और रुचिकर जहाँ वे गीत-ग़ज़लों का उपयोग खुलकर करते हैं। एक उदाहरण- “भूल जाता हूँ मैं सितम उसके, वो कुछ इस सादगी से मिलता है।” तथा “अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदादे-सफ़र, हम तो निकले थे कहीं और जाने के लिए……।”

गीतों और ग़ज़लों ये की पंक्तियाँ कथा प्रवाह और उसकी रोचकता को बहुत बढ़ा देती हैं। रूदादे-सफ़र की निम्न दो पंक्तियाँ बिना किसी टिप्पणी के पाठकों के लिए उद्धृत कर रही हूँ- “बेटे पूरे शहर के होते हैं और बेटियाँ घर की होती हैं। बेटे जब लौटते हैं तो शहर के लिए लौटते हैं और बेटियाँ बस घर के लिए लौटती है।”

भोपाल शहर का बहुत मनोहर चित्रण इस उपन्यास में किया गया है। कोहेफ़िज़ा, भारत भवन, भोपाल की झीलें, वहाँ के प्राकृतिक दृश्यों का बहुत सुरम्य वर्णन उपन्यास के सौंदर्य में श्रीवृद्धि करता और पाठक को अपनी ओर खींचता है। भाषा का जीवंत प्रयोग, पात्रों के अनुकूल संवाद इस कृति को और भी पठनीय बना देते हैं। समीक्ष्य उपन्यास इन सब विशिष्टताओं के कारण बहुत महत्त्वपूर्ण बन गया है। इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इसकी प्रासंगिकता समय के साथ और बढ़ेगी।


रूदादे-सफ़र (उपन्यास) पंकज सुबीर; शिवना प्रकाशन, सीहोर (म.प्र.), संस्‍करण 2023, मूल्‍य 300 रुपये।


डॉ. सीमा शर्मा : प्रकाशन-ममता कालिया के कथा साहित्य में नारी चेतना (आलोचनात्मक पुस्तक)। शिवना साहित्यिकी, हंस, कथादेश, नया ज्ञानोदय, पाखी, परिकथा, लमही, वागर्थ, साक्षात्कार, पुस्तक वार्ता, आजकल, अक्षरा, उत्तर प्रदेश, हिंदी चेतना, गवेषणा, विश्वगाथा, वाङ्गमय, सृजन कुंज, अहा! जिंदगी, शोध दिशा, समय सुरभि अनंत आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित एवं विभिन्न आलोचनात्मक पुस्तकों में आलेख प्रकाशित। दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में अतिथि के रूप में सहभागिता। आगमन साहित्य सम्मान, 2015। सम्प्रति: स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य के पद पर कार्यरत। इनसे इस ई-मेल पर संपर्क किया जा सकता है- sseema561@gmail.com


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