पुस्तक आँसू और रोशनी : आलोकधन्वा से संवाद से एक अंश
1
एक रात आलोकधन्वा ने मुझसे कहा :
चाँदनी का वह असर है
कि वह पक्षियों को भी
ठीक से सोने नहीं देती
वे डैनों में चोंच डालते हैं
और नींद लेने की कोशिश करते हैं
फिर चोंच निकालकर देखते हैं :
अँधेरा तो अभी हुआ ही नहीं
पूर्णिमा की रात में पक्षी भी जगेंगे
कवि तो जगेंगे ही जगेंगे
अगर वे सचमुच कवि होंगे।
2
आलोकधन्वा की कविता में बहुत-से ऐसे मक़ाम आते हैं, जहाँ लगता है कि इससे ख़ूबसूरत, उदात्त और परिष्कृत अभिव्यक्ति सम्भव न थी। यथार्थनिष्ठ होते हुए भी वह एक स्वप्निल ऊँचाई हासिल करती है, जिससे सर्वोत्तम की हमारी आकांक्षा का गोया समाधान होता है।
उनकी आलोचना में लोग एक ही बात कह पाते हैं कि उन्होंने और नहीं लिखा। यह शिकायत भी उनसे बेपनाह मुहब्बत का ही सबूत है। अपने प्रिय कवि से किसकी यह चाहत न होगी? फिर भी इतना कहा जाना ज़रूरी है कि उनकी कविता का औदात्य और लिखने पर मुन्हसिर नहीं है।
‘पतंग’, ‘कपड़े के जूते’, ‘गोली दागो पोस्टर’, ‘जनता का आदमी’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’, ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ और ‘सफ़ेद रात’ सरीखी ज़रा लम्बी कविताओं में एक क़िस्म की महाकाव्यात्मकता है। एक दुर्लभ उत्कर्ष, जो कई छोटे आकार की कविताओं में भी है, जिससे बेहतर की कल्पना न हम कर पाते हैं, न कवि को ही उसके आगे की राह मिल सकी; मगर जिसकी बदौलत वह हिन्दी कविता के एक लीजेंड हैं। ‘दुनिया रोज़ बनती है’ मुश्किल से सौ पृष्ठों का उनका एक ही कविता-संग्रह है, लेकिन न जाने कितने संग्रहों पर भारी है!
कहते हैं कि बड़े फ़ैसले लिखने के बाद जज क़लम तोड़ देते हैं। बड़ी कविता रचने के बाद कवि भी शायद ऐसा कुछ करते होंगे।
क़लम तोड़ देने के बाद और क्या लिखना!
इनसानी ज़िन्दगी में सुकून की ख़्वाहिश पर ‘नींद’ से बेहतर कविता मैंने नहीं पढ़ी है :
नींद
रात के आवारा
मेरी आत्मा के पास भी रुको
मुझे दो ऐसी नींद
जिस पर एक तिनके का दबाव भी न हो
ऐसी नींद
जैसे चाँद में पानी की घास।
3
एक श्रेष्ठ कवि उनके लिए भी सहृदय होता है, जो पढ़ नहीं पाए, अनाम रह गए। जीवन इतना उदार नहीं था कि उनकी प्रतिभा को विकसित होने देता।
सामर्थ्य का आदर तो सभी करते हैं; अभाव, गुमनामी और साधारणता से ममत्व, उनके सम्मान की तमीज़ हमें कविता ही सिखाती है। मौजूदा हिंस्र दौर में उसका यह मूल्य और बढ़ जाता है।
आलोकधन्वा की ये अनमोल पंक्तियाँ माँ के बहाने कविता के इसी वैशिष्ट्य का स्मरण कराती हैं :
माँ थी अनपढ़
लेकिन उसके पास गीतों की कमी नहीं थी
कई बार नये गीत भी सुनाती
रही होगी एक अनाम ग्राम-कवि।
4
सौभाग्य कि कवि आलोकधन्वा ने एक दिन फ़ोन किया। वह जब बोलते हैं तो मेरा मन करता है कि सृष्टि की सारी आवाज़ें थम जाएँ और मैं केवल उन्हें सुन सकूँ। वाणी भी उनकी कविता सी ही उदात्त और परिष्कृत है। जैसे आप कोई लम्बी कविता सुन रहे हों। वैसी ही एकाग्रता, मार्मिकता और सौन्दर्य और इनसे भी बढ़कर प्यार की एक कशिश, जो हमारे ज़माने में अप्राप्य होती जाती है।
बोले : “बड़ा कवि जो होता है, वह रूपक और उपमा जैसे अलंकारों या गुणों के कारण नहीं, बल्कि अपने मर्म और उस मर्म में छिपे नाटक की बदौलत होता है। जैसे कि ग़ालिब हैं। सुनने में यह बात चाहे जितनी अजीब लगे, मगर सच है कि उनके यहाँ जो पुकार है, वैसी या उस स्तर की पुकार हमें फिर मुक्तिबोध में सुनाई पड़ती है। मुक्तिबोध बड़े कवि हैं, क्योंकि उनके यहाँ
करुणा का आयतन विशाल है। यह केवल विचारधारा से नहीं होता। दूसरी बात है कि उनमें प्रगीतात्मकता है : जो भी बड़ा कवि होगा, उसमें यह गुण ज़रूर होगा।”
फिर कहा कि वीरेन डंगवाल के न रहने पर मुझे आघात लगा था, दूसरा तब लगा, जब पिछले वर्ष मंगलेश डबराल नहीं रहे। मेरा वज़न नौ किलो कम हो गया। अब वही कोई 45 किलो वज़न होगा। मैंने जवाब दिया : आप चिन्ता मत कीजिए! गांधी जी का वज़न तो ज़िन्दगी-भर पैंतालीस और सैंतालीस के बीच ही रहा। तब जैसे वह ज़रा ख़ुश हुए।
कहने लगे : “विष्णु खरे बड़े कवि थे। अच्छे मनुष्य भी थे, बीच-बीच में पागल हो जाते, तो ज़रूर सृष्टि को इधर से उधर कर देते थे। उनके मित्र चन्द्रकान्त देवताले भी अच्छे कवि थे। एक बार ज्ञानरंजन जी ने विष्णु खरे से कहा कि आपको हम ‘पहल सम्मान’ देना चाहते हैं। विष्णु जी स्वयं लेने से इनकार करते हुए बोले कि देवताले को दे दो! इसे कहते हैं मैत्री।”
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आलोकधन्वा कहते हैं कि बड़े कवि आज़ादी के लिए संघर्ष के दौर में निर्मित होते हैं, चाहे वह आन्दोलन विदेशी हुकूमत के ख़िलाफ़ हो या देशी ताक़तों के।
“अगर हमारा देश आज़ाद नहीं रह जाएगा और इसमें आज़ादी धीरे-धीरे ख़त्म की जाएगी, जैसे नदियों को सूख जाने दिया गया और पेड़-पौधे नष्ट किए गए, तो हम रह नहीं पाएँगे, हमारी साँस टूट जाएगी।
तब आप कवियों से उम्मीद मत कीजिए कि वे फ़ैज़, मख़्दूम और पाश को गाएँगे या ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ और ‘सफ़ेद रात’ जैसी कविताएँ लिखेंगे।”
मैं उन्हें सुनता हूँ और मेरे समक्ष उनकी एक कविता का सन्दर्भ जैसे खुल जाता है :
क्या एक ऐसी
दुनिया आ रही है
जहाँ कवि और पक्षी
फिर आएँगे ही नहीं
वह कह रहे हैं : “मॉब लिंचिंग जिस देश में होती हो, वह एक आज़ाद देश नहीं हो सकता, वह देश नहीं हो सकता, जिसमें पार्लियामेंट है।”
मुझे उनकी एक कविता याद आती है और लगता है कि जिस कविता को इन्होंने रचा है, उससे ये स्वयं भी रचे गए हैं : उसमें जितनी करुणा है, प्रतिगामी शक्तियों को प्रश्नांकित कर सकने की उतनी ही तेजस्विता भी :
वह क्या था उनके होने में
जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?
वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका
जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बन्दूक़ों के घेरे में?
आँसू और रोशनी : आलोकधन्वा से संवाद : पंकज चतुर्वेदी (संवाद), मू. 299 (पेपरबैक), प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।