पारमिता षड़ंगी
अपनी चेतना की भूख मिटाने के लिए मनुष्य साहित्य का सहारा लेता है। संवेदनशील भावना ही समाज में परिवर्तन ला सकती है। समाज में स्त्री की स्थिति को दर्शाने और सामने लाने में मराठी कवयित्रियों ने अपनी कविताओं को माध्यम बनाकर जो आवाज़ उठाई है, वह सराहनीय है। यह कविता हृदय को छूती सहलाती है और कभी-कभी आग लगाकर विद्रोह के बीज भी अंकुरित करती है।
भारतीय साहित्य में मराठी स्त्री कविता की धारा तेरहवीं शताब्दी से भक्ति भाव को लेकर शुरू हो कर क्रमशः नारीवाद को छूती हुई अपनी राह बनाती रही है। नारीवादी कविता अक्सर भाषा और भाव का सहारा लेकर समाज में प्रचलित कुसंस्कार और रूढ़िवादी धारणाओं को चुनौती देने का प्रयास करती है।
भाषा केवल भाव अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, यह एक परंपरा है। एक पीढ़ी के विचारों और भावनाओं को अन्य पीढ़ी तक पहुंचाती है। नारी मनोस्थिति का वर्णन करती हुई एक साहित्य कृति है-डॉ. नीलिमा गुंडी, अंजली कुलकर्णी और सुनीता डागा के संपादन में प्रकाशित कविता संकलन ‘समकालीन मराठी स्त्री कविता’।
प्रतिष्ठित कवयित्री सविता सिंह ने यथार्थ में कहा है कि– “इस संग्रह की 29 स्त्री कवियों की कविताओं से गुजरते हुए लगता रहा कि लगातार हम कोई शहर पार कर रहे हैं, कोई नदी लाँघ रहे हैं, कोई आकाश खोल रहे हैं, कोई जंगल पास आ रहा है और स्त्रियां इन सबसे निकल इनसे गुजरने के अनुभवों को अपने भीतर किसी कीमती थाती की तरह सँभाले नया संसार गढ़ने जा रही हैं।”
नामकरण की यथार्थता
आधुनिक काव्य धारा को उजागर करते इस संकलन की कविताएं, परिपक्व काव्य स्वर को धारण करती हैं । सत्तर, अस्सी व नब्बे के दशक की सामाजिक हवा के प्रभाव से उद्धत जीवनचर्या में ‘मुक्ति‘ को कवयित्रियों ने ऐसे प्रयोग किया है, जो आज भी तरुण पीढ़ी की मानसिकता को प्रभावित करने में तत्काल सक्षम है । जैसे –“कुछ क्षणों का समागम इच्छा/ या अनिच्छा से/व्यभिचार, बलात्कार, जो भी/ नया जीव सिरजा सकता है उसकी कोख/ में किसी स्त्री को/यहाँ तक कि नाबालिग को भी/ कर सकता है विवश/ माँ बनने के लिए”(ए चाइल्ड गीव्ह्ज बर्थ टू मदर)
“लोगों,/आपकी अदालत में/ मैं ले आई हूँ एक फ़रियाद/ कम-स-कम क्या आप तो मुझे न्याय दिलाएंगे?” (फरियाद), “आत्महत्या करनेवाली स्त्री/क्या कहना चाहती थी/अब नहीं बूझ पाएंगे कभी/या फिर कुछ कहना ही नहीं था/और यही एक रास्ता नजर आया था नजदीकी/आक्रोश में समाहित व्यर्थता को/लाँघकर जाने का यह भी अब रहेगा अनसुलझा ही” (आत्महत्या : एक खबर), “उन्होंने फिर मुझे मार डाला/मैं पानी बन गई/फिर पहाड़ बनी/मिटटी बनी/बार-बार वे मुझे/मारते-काटते खत्म करते रहें/बार-बार मैं जन्म लेती रही/उन्हें मुझे खत्म करने की आदत-सी हो गई/और पुनः-पुनः जन्म लेने की मेरी आदत से /मैं मरती गई पर/बाज़ नहीं आई” (बाज़ नहीं आई ) “बिना माँगे/गुनाहों का लेखा जोखा/रखते जाते समय /अकस्मात उठती है बग़ावत की आवाज”(उम्र के चालीसवें पड़ाव की रात्रि), “मैं करती हूँ नीचे दस्तखत/ लिखकर देती हूँ कि/मैं किसी भी यल्लमा-काली/पीर फ़क़ीर साधू/महंत पंडे महराज/देवी-देवता/ किसी की भी उपासना करने के लिए/नहीं हूँ बाध्य/ और इसके भले-बुरे परिणामों के लिए/ रहूंगी स्वयं उत्तरदायी”(शपथ)
“एक ही समय के खंड में जन्म लिया/इसलिए समकालीन कहलाते हम/समवयस्क या कुछ छोटे-बड़े एक-दूजे से/यह कौनसी सदी जी रहे हैं/ धरती और आसमान जब टकटकी लगाकर निहार रहे हैं हमें/ हम भोग रहे हैं समय को/या समय हमें पूरा-का-पूरा नंग-धड़ंग”(मेरा समकाल)
“क्या क्या जलता जाता है/जली हुई सिगरेट के एक ठूंठ के संग?/होठों पर बची/आखिरी चुम्बन की नमी/भीतर बची अल्प-सी महक/विरह की तपन/ या/ऐश ट्रे में पड़ने से पूर्व की/संबंधों की धधक”(चेतावनी),
इन कविताओं को पढ़ते वक्त शब्दों के अर्थ, ध्वनि और स्वर को महसूस करने की जो अनुभूति होती है, उसे वर्णन नहीं किया जा सकता। मुझे तो आश्चर्य हो रहा है कितनी आधुनिक सोच है इन कवयित्रियों की, जिनका चिंतन आज की पीढ़ी को भी सही लगने के साथ-साथ राह दिखाने में भी सक्षम है। इसलिए इस संकलन का नामकरण यथार्थ है।
नारी मनोस्थिति का विश्लेषण
इस संकलन की कविता सरल है, गंभीर है, कवियों की कवितामय जीवन-यात्रा की शुद्ध कलात्मक अभिव्यक्ति है या यूं कहें कुछ ख़ामोश मुहूर्त बेचने के परि प्रकाश। जैसे वे सब इन सारे मुहूर्त में जीवन को धोकर, निचोड़ कर, सूखाकर फिर से पहने हुए हैं। टूटे सपने, आस्था और अविश्वास, विडम्बना, प्रतीक्षा, हताशा, प्रेम आदि विभिन्न विषयों का सूक्ष्म समावेश इन कविताओं की काव्यात्मकता की विशेषता है। कविता का कैनवास लंबा हो या न हो शब्दों का प्रयोग बहुत सीमित होता है, इसलिए एक कवि के लिए सूक्ष्म बारीकियों को व्यक्त करना कठिन होता है। कवि सहजता से उसे शब्दों के माध्यम से अपनी अनूठी शैली को कैद कर लेता है।
स्त्री चेतना की बुलंद आवाज़ में सारा अकेलापन और पीड़ा निहित है। उसके भीतर नारीत्व को विकसित होने की कामना है। जहां वह तमाम वैभव और पराजय के बावजूद समय गुजारना चाहती है। बड़े होने का यह कटु संघर्ष ही आधुनिक नारी का मजबूत आत्म-अनुभूत विश्वास है, जिसने काव्य चेतना में एक नया आयाम लाया है। यहाँ कवियों की उपलब्धियों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। “अपने पास है एक सक्षम गर्भाशय/ इस अनुभूति से भरकर/ कोख पर हाथ घुमाया उसने/ और कहा खुद से ही/ कितनी बड़ी पूँजी है मेरे पास/ फिर किसलिए भला मैं समझती हूँ /खुद को यूँ कंगाल”
(पूँजीवादी ज्ञान), “चारदीवारी में बसर करती/ हाँ में हाँ मिलाती/आँचरे के छोर से खेलती/गर्दन नीचे किये जीनेवाली मैं/आरक्षित महिला प्रभाग से /चुन ली गई और/नगर सेविका बन गई” (सिल-बट्टा),”अपनी ही चेतना से अनभिज्ञ वह/मुकर्रर कर चुकी होती हैं देहरियाँ/तैंतीस कोटि देवताओं को/अपने पेट में समेटती गाय/उसके हिये में दिन-रात रंभाती है”(रम्भाहट), “पर जब/देखती हूँ बाहर तब/इस मृत उजास में/लरज़ जाती हूँ समूह में जीने से/भयभीत होती हूँ” (मेरे मन का ‘वह’), “जीने के जंजाल में/गुम हो चुकी/कुएँ के तलहटी में पड़ी/कितनी कहानियां/नींद के प्रदेश में/दुःस्वप्न बनकर चक्कर काटती हैं” ( कहानियां)
कवि के लिए कोलाहल की यह दुनिया, यह भौतिक मोह, अपने होने का दिखावा करने वाले मनुष्य ,सब कुछ झूठ है। अपने अकेलेपन को अंतरंग बना कर, सीने में कई ज़ख्म छुपाकर, एक पल की दुआ से मौत का रास्ता बदलने के हौसले की यह स्वीकारोक्ति है : इस जीवन का अंतिम क्षण ही नया जन्म का आरंभ है।‘’ कवि की अनुभूति में वह स्वयं को संसार की आपाधापी, जीवन की कठोरता से बाहर निकालता है और अवसादग्रस्त हो जाता है। वह तुरंत घोषणा करता है कि हर अंत की एक नई शुरुआत–“नए-पुराने संस्कारों की/चिम्मड़ परतों को/उकेरा तो/समूचा अस्तित्व ही छीलकर बाहर आ गया” (मोहनजोदड़ो व हड़प्पा तक)
भावनात्मक रूपरेखा
कविता की आत्मा है उसका काव्य शिल्प। कविता में भाव तत्त्व की प्रधानता होती है। कविता गद्य की अपेक्षा कम शब्दों और प्रवाहपूर्ण भाषा में लिखी जाने के कारण व्यक्ति के मन पर अधिक प्रभाव डालती है। कविता के दो महत्त्वपूर्ण पक्ष होते हैं- भावपक्ष और कलापक्ष अर्थात् शिल्प-सौंदर्य । जिसमें कवि की कल्पना, रस, विचार और संदेश शामिल होते हैं । जीवन-संघर्ष के अंशों को काव्य में रूपांतरित करना, वर्तमान का अतीत से सचेत संबंध और भविष्य के प्रति प्रबुद्ध चेतना का आह्वान ही कविता का सार है। यद्यपि इन कविताओं में निराशा व्यक्त हैं, फिर भी चेतना में इच्छाएँ आशावादी हो गई हैं। हालाँकि, इन कविताओं के मुख्य स्वर के रूप में, स्थान चेतना, समय चेतना, विडंबना और मृत्यु चेतना, शून्य चेतना और पारलौकिक चेतना के रूप में भावनात्मक रूप से विश्लेषण किया गया है। इन सबके बीच आशावाद की आवाज तीखी है। सबसे बढ़कर, जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण, चेतना का प्रमुख स्वर है।
“धीरे-धीरे सभी/स्त्रियां दिखने लगती हैं एक-सी/मिट जाते हैं उनके होंठ/हास्य-रेखाओं के दयनीय कोष्ठक में/बढ़ने लगते हैं आँखों के नीचे के काले घेरे/समझ में आने लगते हैं मायने”(धीरे-धीरे) ,”एक आवेग के साथ उसने अपना कहा/खत्म किया और/एक निचाट सन्नाटा चहुँ ओर फैल गया/दोपहर की तीखी किरणें सौम्य होगई उसके विरोधियों के हिंस्त्र नाखून भी/भोथरे बनते चले गए”(रानी), “मेरी देह की खातिर/ कोई देह/किसी देह की खातिर/मैं देह देह से जुड़ी देह/एक श्रृंखला बनी/मैं इस शृंखला की/मात्र एक कड़ी
(शृंखला), “सांय-सांय चलती हवाओं से/अरण्य जलता है/लेकिन चूल्हा जलाना हो तो/मारनी होती है धीमे से फूँक/अगर एक बार सीख लो/चूल्हे के सामने ठीक से फूंक मारना”(ध्यान में रखना री), “सँझा-समय सी/स्वप्न व निद्रा के/दरमियान लटकती रहती है वह”(सँझा-समय सी),
“हमारा अपराध इतना ही होता है कि/ हम ढूंढते हैं/हमारे भी दो-चार स्वप्न/उनकी आँखों में/नए अँखुएँ फूटे पौधे की तरह/उजास के पर लिये हुए” (वे देखते हैं)। इन कविताओं से भावनात्मक चेतना को हम भांप सकते हैं और असहायता तथा विच्छिन्न भाव से जीने का सूत्र ढूंढा जा सकता है।
काव्य शिल्प
केवल अर्थ ही नहीं, शब्द जब उतने ही अर्थ को छोड़कर नया समझाने की कोशिश करते हैं, तभी सार्थक कविता का जन्म होता है, अंतर्मन की कविता का। शब्द का अर्थ बताने के बाद और कुछ नहीं बचता; शुरुआती शब्द के अलावा कुछ और भी है और इस रहस्य को भेदने में सक्षम कवि ही युगों तक अपना प्रभाव छोड़ जाता है। इस भाव को लेकर कुछ उपलब्धियाँ ऐसे हैं, “कवयित्री को मोह होता है/यशोधरा ने जिस तरह से नापा अँधेरा/पारम्परिक/दैहिक/ दार्शनिक/उस अँधेरे को नापने का,(कवयित्री को मोह होता है), “दसों दिशाओं को समटते मस्तिष्क पर/भरोसा रखते हुए/स्त्री लाँघती है स्त्रीत्व की सीमा/बुनने लगती है एक स्वेटर/खुद की गर्माहट की खातिर (पुनः विचार) ,” माँ ने पहले/बतौर देह/मेरा पोषण किया/फिर/बतौर हाड़-माँस/फिर बतौर लड़की/फिर बतौर इंसान/उसके जीवन में आये/अवस्थान्तरों के अनुसार/ बदलती गई मेरी देह की भाषा,(मेरी देह की भाषा), “एक प्रवाह से/दूजे प्रवाह में विलीन होते समय/मैं पाती जाती हूँ अपनी ही नई पहचान/मेरे मानस पटल पर से सरकते जाते हैं/ गतिशील अनगिन बदलावों के प्रवाह”(फेमिनिज्म की राह पर चलते हुए)
इन संकलन की सारी कविताओं में दुर्लभ है नारी। जीवन का दुःख, नारी जन्म के संघर्षों के कारण पीड़ित होता है। कई कविताओं में बहुत सूक्ष्म भाव परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप में वर्णित है।
किसी प्रियजन की अनुपस्थिति हो, शोक हो या जीवन के बाध्यकारी नियमों के विरुद्ध प्रतिक्रिया हो, इस संकलन ने हृदयविदारक और दर्द को एक दार्शनिक रास्ता दिखाया हैं। दार्शनिक काव्य अपनी प्रस्तुति में व्यक्तिवादी चेतना को लोक चेतना में परिवर्तित करता है।
अतीन्द्रिय चेतना
यह समझा जाता है कि भौतिक शरीर की पांच इंद्रियों से ऊपर के पारलौकिक मन को चेतना कहा जाता है। अर्थात पांचों इंद्रियों से ऊपर । व्यक्ति की यह आध्यात्मिक चेतना भावनाओं, संवेदनाओं और अनुभवों के माध्यम से उपलब्ध होती है। कवि का व्यक्तित्व मुक्त होकर लौकिक यथार्थ में समाहित हो जाता है। मुझे कुछ पंक्तियों में ऐसा महसूस हुआ। चलिए आपको वहाँ ले चलती हूँ, “बोधवृक्ष का मिथक इस तरह से/ झूलता रहता है अनिवार/ अनात्मवाद के उजले यथार्थ में/ कवयित्री को कभी मोह नहीं होता है/सिद्धार्थ बनने का/ कवयित्री को मोह होता है/यशोधरा का” (कवयित्री को मोह होता है), “मुझे भय नहीं है मृत्यु से/फिर भी/बरसती बिजलियाँ/ जमा देती हैं मुझे भीतर तक/रीढ़ में उठती है एक लहर/सप्तरंगों का फलक/उतरती शाम में बिखेरता जाता है एक-एक रंग/अँधेरा देता है आहट”(मृत्यु ऐसी भी होती है), ”फड़फड़ाते हैं प्राण/देह से बँधे रहते हैं पंचेन्द्रिय/और गुम कहानियों का एक लम्बा स्वप्न/पलकों पर होता जाता है/ सदा के के लिए उत्कीर्ण”(कहानियां)
भौतिकवादी जीवन ने इन कवयित्रियों को मृत्यु के पारंपरिक तरीके से प्रेरित हुए बिना जीवन का एक नया तरीका ईजाद करने के लिए प्रेरित किया है। हालाँकि, परिवर्तन का यह अपरिहार्य तथ्य या मृत्यु की चेतना पर काबू पाने का प्रयास, इस संकलन का एक मजबूत पहलू है।
प्रश्नवाचक शैली
प्रश्न शैली को आम तौर पर आधुनिक कविता में देखा गया है। एक प्रश्न पूछने के रूप में समझा जाता है, जहां एक प्रश्न कई अन्य प्रश्नों को जन्म देता है। यह प्रश्न में उत्तर को परोक्षरूप में बताने की कोशिश रहती है। भाषा की अभिव्यंजक गुणवत्ता इसी शैली के कारण दृष्टि आकर्षण करती है। आधुनिक उड़िया कविता में कई कवियों ने इस शैली में लिखा है, जैसे बंशीधर षड़ंगी, दीपक मिश्रा, प्रमोद कुमार महांति, फनी मंहाति। कवि की कविता का आरंभ और अंत भी प्रभावशाली हो जाता है । जीवन में ‘हां’ और ‘ना’ का स्वरूप कितना भरोसेमंद है, यह इस शैली में देखा जा सकता है । इस शैली में लिखी गई कुछ कविताएं मुझे खूब आकर्षित करती हैं ।
“रात में कीट नाशक फवारकर/बाहर चले जाने व लौट आने के पश्चात्/ दरवाजा खोलते ही/सामने खड़ा भयावह सन्नाटा/मरे हुए जीवों की इतनी आवाज थी?/किस कोलाहल में जा मिले थे/उनके तंतु?/जो ऐसे अलग-थलग होकर मर गए हैं?/सभी चीजों का सूक्ष्म क्रंदन/क्या चलता ही रहता है?”(रात में कीट नाशक फवारकर), “तुमने कहा,/‘किसलिए सुनती रहती हो औरों का/और नाहक़ ही परेशान होती रहती हो?”(जानलेवा शांति)l, “और सहसा ‘वह’ मिल गई/ या ‘वह’ लौट आई?/वैसे तो अब उसे कोई नहीं ढूँढ रहा था/इसलिए ‘वह’ मिल गई ऐसा भी कैसे कह सकते
हैं? …कोई इस तरह से अचानक लौट आए तो/क्या करना होगा?”(खोई हुई वह) ,”कौन इस अँधेरे से आया होगा दरवाजे पर/क्या वे साथ होंगे एक तिल को साझा करनेवाले ?…..
किसे लगी होगी सुगबुगाहट पुनः/मेरे लसीले कलेजे की?”,(खुल जा सिम सिम कहते हुए), “हम दोनों की/बिना दीवाल की इस गृहस्थी में/कहाँ तक भागती रहूंगी मैं?”(शाश्वत दुःख),
“इस घर में/फटाफट सारे काम निबटाकर/किताब के हाथ में लेते ही/ खूब खरी-खोटी सुननी पड़ी/टुकड़ा-टुकड़ा समय चुराकर/अधीरता से पढ़े दुनिया भर के शब्द/क्या होगा पढ़ने से?(इस घर में), “कोई क्रांति/भीतर-ही-भीतर सीझती-पगती जाती/ या कोई उप निषेध/गले में ही अटककर घुलता-पगता हुआ?” (चेतावनी)
वर्णनात्मक शैली किसी विचार को अलंकृत करके या शब्दावली का उपयोग करके सीधे या प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त किए बिना उसका वर्णन करना है। इससे काव्य रूप का सौन्दर्य निखरता है। इन कविताओं में कवियों ने समय बोध के विभिन्न रूपों का बड़ी चतुराई से वर्णन किया है। आधुनिक कविता में गद्य छंद प्रचुर मात्रा में होता है इसलिए यह आवृत्ति उपयोगी है ।
कविताओं के अन्तराल में व्यक्त, उद्देश्य या दृष्टिकोण से काव्य शिल्प कविता से समृद्ध होता है। समसामयिक शब्दों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को काव्य में रूपांतरित किया गया है । कविताएँ शब्दों के प्रयोग, रूपकों, उपमाओं, प्रश्नों और कथा शैलियों के विशेष क्षेत्रों में देखी गई हैं।
मनुष्य जीवन की थकान, निराशा, अवसाद, असंगति, यांत्रिक परिवर्तन और स्वयं को अतीत की गतिशीलता से मुक्त करने का प्रयास कर रहा है। यहां कवि जीवन के प्रति निराशावादी नहीं, बल्कि अत्यंत आशावादी है। कविताओं में कवियों ने जीवन की असहायता, विसंगतियों से उबरकर नये अंदाज में जीने का प्रयास किया है। यहाँ कवि वह नहीं है जो दर्द का नक्शा बनाकर मूक द्रष्टा बन गया है। उसकी काव्यात्मक आवाज़ एक घायल आत्मा की आवाज़ है। सारा दर्द एक उग्र महिला आवाज़ के रूप में मजबूती़ से स्थापित है। अपनी शैली की सहजता और जटिलता से कवि की बातें पाठक के हृदय में उतर जाती हैं। इन सभी पीड़ाओं के बीच कवियों ने जीवन को शालीनता से जीने की राह बतायी हैं। कविता में वे लचीली मनोदशा, ठंडी छाया के नीचे रहते हुए ‘परिवर्तन’ की मांग करती है ।
इस संग्रह को पढ़ते वक्त, महसूस करते वक्त या यूं कहें कि इस में गुजरते वक्त जितनी रुहानी अनुभूति होती है, उसे वर्णन किया नहीं जा सकता है । इस संकलन को रूप देने के लिए मैं संपादिका डॉ. नीलिमा गुंडी, अंजली कुलकर्णी और सह-संपादिका व अनुवादिका सुनीता डागा जी को खूब खूब बधाई देती हूँ । यह संकलन पाठकों के द्वारा खूब आदृत हो , ईश्वर के पास प्रार्थना करती हूँ ।
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पारमिता षड़ंगी : ओड़िआ साहित्य जगत में पारमिता षड़ंगी एक सुपरिचित नाम हैं । वह अपनी आँचलिकता में सशक्त स्त्री –कथाकार एवं कवयित्री ही नहीं, कुशल ओड़िआ भाषानुवादक भी हैं। जीवनवादी कहानीकार होते हुए भी पारमिता की कविताएँ चेतना और मानसिकता को खूब प्रभावित करती हैं। हिन्दी और ओड़िआ भाषा में कहानी, कविता लेखन में उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। उनकी रचनाएँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों और विदेश में भी प्रकाशित हुई है।