(सलाम बांबे व्हाया वर्सोवा डोंगरी: सारंग उपाध्याय) जीतेश्वरी इक्कीसवीं शताब्दी के इस भयावह दौर में जब हमारे देश ने अपनी गंगा-जमुनी तहजीब को पूरी तरह से भूला दिया है, धर्म और मजहब के नाम पर जब खून के छींटे हर जगह दिखाई दे रहे हैं ऐसे अंधेरे और भयावह समय में युवा पत्रकार, लेखक सारंग …
“ये बार डांसर…हाड़-मांस की नहीं बनी. ये तो सिर्फ नखरों से बनीं हैं. कुछ ख़ास बारों में ये आ कर आपकी बगल में बैठ जाएँगी और कहेंगी- हेल्लो हेन्सम, क्या मैं तुम्हारा सेल इस्तेमाल कर सकती हूँ या हाय स्वीटी तुम कैसे हो? और स्वाभाविक है कि आप उत्तेजित हो जायेंगे”