धर्मपाल महेंद्र जैन इन दिनों साहित्य में रस नहीं रहा, निचुड़ गया है। साहित्य क्विंटलों में छप रहा है और सौ-दो सौ ग्राम के पैकेट में बिक रहा है। जगह-जगह पुस्तक मेलों में बिक रहा है पर रसिकों को मज़ा नहीं आ रहा। साहित्य को सर्वग्राही होना चाहिये, समोसे जैसा होना चाहिये। जहाँ प्लेटें उपलब्ध हों वहाँ …