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एक आधे-अधूरे में पूरा अभिसार

लीलाधर मंडलोई “इतना भी कवि नहीं मैं कि तुझमें ढूंढूं अपनी प्रागैतिहासिक प्रेमिकाएं न इतना अंधविश्वासी कि बांधू तुझे किसी पिछले जन्म के उत्तरीय से मगर कुछ तो है कि स्वयं को देह और इतिहास के बाहर देखने लग जाता हूँ” (यक्षिणी पृ.18) हे कवि! यह चेतनावस्था के उदगार हैं न?   देह और इतिहास से …

जो शामिल हैं इस दुनिया की तबाही में

विस्‍थापन, पीड़ा और दुश्‍चिंताओं की इबारत ओम निश्चल लीलाधर मंडलोई एक बेचैन कवि हैं। कुछ कवि होते हैं जिनके पास कहने को बहुत कुछ होता है और बार बार वे उस पीड़ा का इज़हार करते हैं जिससे यह पूरी मनुष्‍यता गुज़र रही है। कहने को हम विश्‍वबंधुता का ढोल अक्‍सर पीटते हैं पर पूरी दुनिया …