प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’
नंद भारद्वाज हिन्दी तथा राजस्थानी के सुविख्यात कवि एवं कथाकार हैं। उनकी कहानियों का नया संकलन “आपसदारी” अभी हाल ही में हासिल हुआ। मैं कोई नक़्क़ाद या समीक्षक नहीं; छोटी-मोटी शायरी, अनुवाद, ऐतिहासिक उपन्यास आदि में लगा रहता हूँ; नंद जी की इन कहानियों पर कुछ लिखूंगा यह तो ठीक से सोचा भी नहीं था, लेकिन एक-दो पढ़ीं तो इतनी दिलचस्प लगीं कि दो-तीन दिनों में सब की सब तरतीब-वार पढ़ गया। अंत में क्या हुआ यह तो अंत ही में बताऊँगा। फ़िलहाल भाई महेश्वर दत्त जी ने इन कहानियों पर वेब पोर्टल ‘पुस्तकनामा’ में इज़हारे-ख़याल का मौक़ा दिया है, तो सोचता हूँ पहले इन पर कुछ लिख डालूँ।
सबसे पहले तो मुझे यह कह लेने दीजिए कि मुझमें इतनी अदबी सलाहियत नहीं कि इन कथाओं की नाप-तोल करके इनका मोल बताऊँ। दूसरे, नंद जी और मैं अरसए दराज़ से एक-दूसरे को जानते हैं, त’आल्लुक़े ख़ातिर है; यूँ समझ लीजिए कि ग़ायबाना ही सही, लेकिन हमारे बीच भी एक क़िस्म की आपसदारी है— ग़रज़ ये कि जो कहूँ उसमें उन्नीस-बीस की गुंजाइश रख लीजिएगा, लेकिन बस उतने की ही क्योंकि सफ़ेद झूठ मैं नहीं बोलता। बहरहाल, चूंकि रचनाकार को जानता हूँ, इसलिए मैं उनके और उनकी कहानियों, किरदारों, और संकलन के शीर्षक के बीच कुछ ऐसी अंतरंगता देख पाया हूँ जो साझा करने लायक़ तो ज़रूर है। मन में सवाल उठता है—क्या होती है आपसदारी? कैसे बना होगा यह लफ़्ज़, और ‘आपस’ व ‘दार/री’ के इस जोड़ का अर्थ क्या है? …लगता है कि अगर कोई कहे, इसे परिभाषित करो, तो अटक जाऊँगा। क्योंकि जिस तरह से मैं समझ पाया हूँ इस शब्द को, केवल इसके लक्षण बता सकता हूँ, यह कह सकता हूँ कि आपसदारी में क्या-क्या होता है और क्या नहीं होता, और नंद जी की इन कहानियों में से कुछ चुनिंदा मिसालें दे सकता हूँ।

आपसदारी वाले संबंधों में बड़बोलापन नहीं होता; यह सतही नहीं होती—अंत:सलिला होती है; बाहर से दिखाई दे न दे, बहती रहती है भीतर, बहुत गहरे कहीं; जैसे फ़ाक़िर साहब का शे’र है न – ‘चलती राहों में यूँ ही आँख लगी है फ़ाक़िर/ भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं ज़िन्दा हूँ अभी’ – वैसे ही आपसदारी थोड़ी देर को सो भले ही जाए, आसानी से मरती नहीं; बल्कि ज़रूरत पड़ते ही नमूदार हो जाती है हौसला और इमदाद के साथ। वैसे तो किस दुनियाबी रिश्ते में कुछ लेन-देन नहीं होता, लेकिन आपसदारी पारस्परिक रिश्तों की उस ताक़त का नाम है जो उन रिश्तों को क़ायम रखने की काविश में माँगती कम, और देती कहीं ज़्यादा है। एक बात जो बहुत साफ़ है वह ये कि हक़ीक़त से पुरनूर इन अफ़सानों का इस संकलन के शीर्षक से गहरा तआल्लुक़ है। ज़्यादातर कहानियों के मुख्य किरदार आपसदारी की ज़िन्दा मिसाल बन कर ऐसे वक़्तों में काम आते हैं जब अपने भी पराये हो चुके होते हैं – जैसे संकलन की अंतिम कथा “वापसी” में सुखदा के लिए आनंद की आमद, मानो कोई फ़रिश्ता आ गया हो, जबकि एक ही गाँव के होने व बरसों पहले के एक हादसे को टालने में मदद से ज़्यादा दोनों के बीच ज़ाहिरा तौर पर कुछ न था, पर आपसदारी थी। यह अद्भुत, अंडर-स्टेटेड कहानी एक पूरे उपन्यास का नन्हा-सा बीज है। ज़बरदस्त फ़ील गुड फ़ैक्टर है इस कहानी में – अगर मैं फ़िल्म निर्माता होता तो नंद जी से इसके फ़िल्म राइट्स ख़रीद चुका होता।
“अपने अपने अरण्य” का अनिकेत मांगता कुछ नहीं, बिना किसी लाग-लपेट के मानसी की प्रतिभा को सहारा देता है। “आसान नहीं है रास्ता” की गंगा बाई को बेटी से प्रेम नहीं है ऐसा नहीं, लेकिन अंतत: तरजीह वह पार्वती से अपनी आपसदारी को ही देती हैं। कभी-कभी तो आपसदारी की ऐसी बानगी भी देखने को मिलती है गोया किसी ठूँठ से कोंपल फूट कर पनपने लगे, मस्लन बिखरे हुए सपने के बावजूद “दूसरी औरत” गीता का अपने अधेड़ व बदसूरत दुहेजू पति के लिए उमड़ आया सिनेह। आपसदारी ही है जो “बदलती सरगम” में घर के लोगों से बेज़ार हो चुकी वसुधा को बीना की मदद के लिए बड़े शहर से खींच कर क़स्बे के दलदल तक ले आती है। लेकिन “उलझन में अकेले” कहानी में पारिवारिक परिस्थितियों की बाड़ जब आपसदारी की खेत चर लेती है, तो घर की बात भी ग़ैर की ज़ुबानी सुनने को मिलती है – आप पढ़-लिख गए तो क्या, खेती-बारी संभालो, गाँव रहो; शहर में हम रहेंगे बेटियों के संग! जिस कथा से इस संकलन का शीर्षक मिला नंद जी को, वह तो रोमैंटिक सस्पेंस की एक बेहतरीन मिसाल है। उसे पढ़ते हुए अंग्रेज़ी की मशहूर लेखिका डैफ़्नी डु मॉरिएर के उपन्यास ‘माइ कज़न रैचेल्’ की याद आती रही, हालांकि दोनों के कथानकों में एक जैसा कुछ ख़ास नहीं।
इस संकलन का सबसे मज़बूत पहलू है— इसके रचनाकार का सकारात्मक ‘वर्ल्ड व्यू’ – दुनिया देखने का नज़रिया; उनका यह विश्वास कि ज़माना चाहे जितना बुरा हो, नेकनीयती अभी ज़िन्दा है; अच्छे लोग हैं और मैटर करते हैं। यह बात नंद जी के किरदारों की फ़ेहरिस्त में साफ़ झलकती है। वसीम बरेलवी का एक मिसरा है ‘कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा’ – तो नंद भारद्वाज आसपास की दुनिया को ऐसी नज़र से देखते हैं कि उन्हें एक घटिया आलोक के बरअक्स अनिकेत, मास्टर गिरिजा शंकर, आनंद, नरसाराम, गंगा बाई आदि जैसे न जाने कितने नेकदिल किरदार दिखाई देते हैं। मैंने कहा था अंत आख़िर में बताऊँगा— सो यह कि तालाबंदी के इन स्याह दिनों में उम्मीद की किरनों से रौशन यह कथा संकलन पढ़ कर आनंद आ गया। नंद जी को बहुत बधाई। नंद भारद्वाज इतने मधुर और शर्मीले स्वभाव के हैं कि वे तो कहेंगे नहीं, उनकी ओर से मैं ही कह देता हूँ – आनंद आ गया? …तो फिर और क्या चाहिए, दीपिका?
आपसदारी : नंद भारद्वाज [कहानी-संग्रह], मू. 295, यश पब्लिकेशन, दिल्ली। पुस्तक को यहाँ yashpublishersprivatelimited@gmail.com संपर्क कर मँगवा सकते हैं।

प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ का जन्म 1946 में मोतीहारी (बिहार) में हुआ। सन् 1967 के बाद कुछ बरस दिल्ली विश्वविद्यालय के एक संस्थान में इतिहास पढ़ाने के बाद वे भारतीय प्रशासनिक सेवा में आ गए। राजस्थान और दिल्ली में विभिन्न पदों पर रहने के बाद सम्प्रति वे विदेश मंत्रालय में अपर सचिव और वित्तीय सलाहकार के पद पर काम कर चुके हैं। अब तक उनकी आधा दर्जन से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से ‘टूटा हुआ पुल’, ‘रात गये’, ‘धूप तितली फूल’, ‘यह ज़बान भी अपनी है’ और ‘इन्तख़ाब’ चर्चित कृतियाँ हैं। प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ ने नवीं शताब्दी के प्रख्यात चीनी कवि बाइ जूई की कविताओं का रूपान्तर कर, हिन्दी के पाठकों का परिचय कुछ ऐसी कालजयी रचनाओं से कराया है जो अपने कविता- काल को संक्रमित कर सदैव समकालीन और प्रासंगिक रहेंगी। देश-विदेश की यात्राओं से प्राप्त अनुभव-क्षितिज के विस्तार को कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत करने वाले प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ की ग़ज़लें अनेक प्रसिद्ध गायकों ने प्रस्तुत की हैं। इनसे आप इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— pthakur06@yahoo.com
Comments
शर्मिली सी खूबसूरत रिव्यू। लेखक और समीक्षक बहुत से अर्थों में सांझा पन रखते हैं। काफी छोड़ दिया पढ़ने के लिए। मुबारक।
विपदा के इस माहौल में आपके ये आत्मीय शब्दों से, आपसदारी पर चिन्हित भाव आपके और नन्द जी के स्नेहधार, सरोवर की उन किनारे में ले गई जहां पंकज अपने खिले पत्तियों से सम्पूर्णता की बोध में हो। सुन्दरता से की गई चित्रण के बाद मुझे कुछ लिखने की साहस नहीं, किन्तु आशीष पाने के लिए सम्मुख तो होना ही पड़ेगा।
क्या सरस सलिल स्वत: प्रवाह वाली समीक्षा है। उत्सुकता हो उठी है पढ़ने की।